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काली पर प्रस्तावित पंचेश्वर बांध पर चमोली से लेंगे सबक?

24/02/21
in उत्तराखंड, चम्पावत, पिथौरागढ़
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
चमोली जिले में रविवार सुबह आए जल प्रलय ने उत्तराखंड राज्य में प्रस्तावित बांधों की सुरक्षा को लेकर सवाल खड़े कर दिए हैं। ऐसे में चंपावत जिले के पंचेश्वर में प्रस्तावित बहुउद्देशीय बांध परियोजना पर सवाल उठना लाजमी है। उत्तराखंड और नेपाल के बीच शारदा नदी महाकाली पर पंचेश्वर बांध परियोजना अभी प्रस्तावित स्थिति में है। 7 फरवरी में चमोली में आए सैलाब ने हिमायली राज्यों में हो रहे प्रकृति के दोहन पर एक नयी बहस छेड़ दी है। यहाँ तक की लाहौल-स्पीति घाटी के लोगों ने बाँधों का पुरजोर विरोध करने फैसला तक किया है। रोटी-बेटी के सामाजिक सरोकार के अलावा पंचेश्वर जैसे बाँध हिमालय की जैव विविधता के लिए संकट पैदा करेंगे और किन प्रजातियों को विलुप्ति की कगार पर खड़ा करेंगे। भारत.नेपाल की सांझी विरासत, हजारों हेक्टेयर में फैले साल के जंगल, पाथर वाली बाखलियाँ, सीढ़ीदार खेतों की नक्काशी और विशाल गोल्डन महाशीर का घर, यह परिचय पंचेश्वर क्षेत्र को बखूबी परिभाषित करता है। अब यह क्षेत्र 1996 की महाकाली जल संधि के तहत लाखों डॉलर के संयुक्त पंचेश्वर बहुउद्देशीय पनबिजली परियोजना का केंद्र है।

एक अनुमान के तहत, उत्तराखंड के तीन जिलों में लगभग 31,000 परिवार इस परियोजना के कारण विस्थापित हो जाएंगे और साथ ही कई वन्यजीव जंतु जैसे, च्यूरा, बाघ और गोल्डन महाशीर भी इस परियोजना से प्रभावित होंगे, जिनके लिए यह नदी घाटी घर है। वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और फाउंडेशन ऑफ इकोलॉजिकल सिक्योरिटी द्वारा किये गए एक सर्वे में गोरीगंगा घाटी से लेकर डूब क्षेत्र तक में तक़रीबन 227 पक्षी प्रजातियों के होने की पुष्टि की है। यह पूरी घाटी अपनी ऑर्किड विविधता के लिए भी विश्व प्रसिद्ध है, जिसमे इनकी 120 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। नदी का प्रवाह, मीठे पानी की मछली और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए मुख्य आधार हैं, जो कि बांधों द्वारा नष्ट हो जाता है। महाकाली नदी में तीन दुर्लभ ऊदबिलाऊ पनौत की प्रजातियां, यूरेशियन स्मूथ कोटेड और छोटे पंजे वाले भी पायी जाते हैं। नेपाली वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में लगभग 72 मछलियों की प्रजातियों का भी होना पाया गया है, जिसमें महाकाली नदी की लुप्तप्राय गोल्डन महाशीर भी शामिल है। दो वन्यजीव अभयारण्यों का होना ही इस क्षेत्र की जैव विविधता को दर्शाता है, जिनमे से एक प्रस्तावित परियोजना के ऊपरी भाग और दूसरा निचले तराई इलाकों तक फैला है और ये परियोजना अधिकारियों के लिए एक परेशानी है, जिसके लिए नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ से अतिरिक्त मंजूरी की आवश्यकता होगी। चूँकि प्रस्तावित परियोजना का उत्तरी भाग अस्कोट अभ्यारण से सिर्फ 300 मीटर की दूरी पर है जो हिमालयी कस्तूरी मृग, हिम तेंदुआ, असमी बन्दर और अब, धारीदर बाघ के साथ.साथ कई और लुप्तप्राय प्रजातियों का आवास है। 2016 में, डब्ल्यूआईआई के वैज्ञानिकों ने इस संरक्षित क्षेत्र से 3,274 मीटर की ऊंचाई पर एक बाघ की उपस्थिति दर्ज की थी।

यह पहली बार था, जब देश में इस ऊंचाई पर एक बाघ पाया गया है। इस दुर्लभ रिकॉर्ड ने भूटान के बाद भारत को जैव विविधता के श्रेणी में अद्वितीय स्थान दिलवाया है, जो अब तीन बड़ी बिल्ली प्रजातियों, हिम तेंदुआ, तेंदुआ और धारीदर बाघ का आवास स्थल है। प्रभावित क्षेत्र दक्षिण की तरफ से नंधौर अभ्यारण से लगा है। महाकाली घाटी में बाघ के ऐतिहासिक रिकॉर्ड मिलते आये हैं, लेकिन अनुसंधान की कमी के कारण, जानकारी बहुत कम है। इस घाटी में बाघ की लुभावनी कहानियों को फील्ड डेज़ ए नेचुरलिस्ट्स जर्नी थ्रू साउथ एंड साउथ ईस्ट एशिया जैसी किताबों में ए, जे टी जॉनसिंह और जिम कॉर्बेट ने भी अपनी शिकारी कहानियों में लिखा है। एक बार निर्माण के बाद, पूरी परियोजना 116 वर्ग किमी कृषि और जंगलों की भूमि, को जलमग्न कर देगी, जिनमें से 46.87 वर्ग किमी वन भूमि आरक्षित, संरक्षित और वन पंचायत वन की श्रेणी में है। निर्माण के इस पैमाने से इन संरक्षित क्षेत्रों के जंगलों के बीच प्रमुख संपर्क कट जाएगा। तराई में विस्थापित परिवारों के पुनर्वास के लिए घने जंगलों को भी शायद उजाड़ा दिया जाएगा जहाँ हाथी और बाघ मिलते हैं। एक प्राकृतिक आवास जो तराई के बाढ़ के मैदानों से लेकर उच्च हिमालयी बुग्यालों तक संरक्षण के एक प्रतीक के रूप में होने की क्षमता रखता था, अब विकास के लिए न्योछावर होने जा रहा है। वैज्ञानिक बारीकियों की कमी के कारण, पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट अटपटे निष्कर्ष दर्शाती है जैसे की रिपोर्ट में लिखा है, जलमग्न और आसपास के क्षेत्र में कोई बड़ा वन्यजीव नहीं पाया जाता है। इसलिए परियोजना के कारण स्थलीय जीवों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा है, प्राकृतिक आपदा से हुई भारी तबाही के बाद एक बार फिर विकास की आड़ में प्रकृति से खेलवाड़ को लेकर बहस शुरू होने लगी है। यहां बड़े बांधों के निर्माण पर चर्चा होने लगी है।

टिहरी के विशालकाय बांध के बाद भारत.नेपाल बॉर्डर पर काली नदी में पंचेश्वर बांध भी प्रस्तावित है। दुनिया के सबसे ऊंचे पंचेश्वर बांध के बनने से ऊर्जा और सिंचाईं की जरूरतें भले ही पूरी हो जाएं, लेकिन इसकी कीमत पर्यावरण और पहाड़ों में रहने वालों को जरूर चुकानी पड़ेगी। यह अतिसंवेदनशील जोन फाइव का इलाका है, यहां बांध बनने से भूकम्प के झटकों में इजाफा हो सकता है। इसके साथ ही 116 वर्ग किलोमीटर की महाझील भी एक साथ कई खतरों का सबब बन सकती है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में प्रस्तावित पंचेश्वर बांध विश्व का सबसे ऊंचा बांध होगा। 311 मीटर ऊंचा यह बांध दुनिया के उस हिस्से में प्रस्तावित है, जहां की हिमालया शृंखला सबसे कम उम्र की है। जोन फाइव में इतने बड़े बांधों को भू.गर्भीय और पर्यावरण के नजरिये से विनाशकारी माना जा रहा है। जानकारों की मानें तो बांध बनने से हिमालय की तलहटी में 116 वर्ग किलोमीटर एरिया में पानी का भारी दबाव बनेगा। इस इलाके में पहले से ही भू.गर्भीय खिंचाव बना हुआ है। जिस कारण भारतीय प्लेट यूरेशिया की ओर लगातार खिंच रही है। धरती के गर्भ में हो रही इस हलचल में मानवीय हस्तक्षेप जले पर नमक डालने का काम कर सकता है विकास की वेदी पर पारिस्थितिक सरोकारों का बलिदान कैसे होता आया है और इस बार क्या कुछ नया होगा। इसका कोई कारण नहीं नज़र आता क्योंकि खिसकते पहाड़ और हिमनद कहीं न कहीं विकास की होड़ को बतलाते हैं। जिसके भुग्तभोगी यहाँ के रहवासी हैं और आगे भी होंगे। नीति निर्माता ऊर्जा जरूरतों का पूरा करने के साथ ही पर्यावरणीय खतरों के बारे में भी चिंता करते रहें। दरअसल क्षेत्र के लोग दशकों से टनकपुर.बागेश्वर रेलवे लाइन की मांग कर रहे हैंए बांध बना तो ये क्षेत्र डूब क्षेत्र में आ जाएगा। पर्यावरणविदों का कहना है कि यहां जितनी बड़ी झील बनेगी उससे कुमाऊं का मौसम चक्र बदलेगा। जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ेगा। डीपीआर में प्रभावितों के पुनर्वास का प्रावधान भी नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक चंपावत जिले में 3 लाख से ज्यादा पेड़ बांध क्षेत्र में डूब जाएंगे। पिथौरागढ़ वन प्रभाग में भी लाखों पेड़ बांध के पानी में डूब जाएंगे। सैकड़ों गांव प्रभावित क्षेत्र में आएंगे। लोगों को अपने घर.खेत छोड़ने होंगे। अन्य बातों के अलावा, ईआईए रिपोर्ट इस क्षेत्र के निवासियों के बारे में बताना भूल गई, जहाँ सदियों से एक विलुप्तमय जनजाति समूह वन राजि बनरौत भी रहवासी हैं। फिलहाल वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की पर्यावरण मूल्यांकन समिति ने इस परियोजना के प्रभाव अध्ययन में कुछ आपत्तियों के कारण इस परियोजना को मंजूरी देने से मना किया है। लोगों का कहना है कि उन्हें अपनी संस्कृति, घर.पर्यावरण की कीमत पर विकास नहीं चाहिए।

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