डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में कई धान की प्रजाति ऐसी हैं, जिसे सिर्फ कम पानी यानी बरसार के पानी पर ही पैदा कर लेते हैं। उसे अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती। उसे स्थानीय भाषा में उखड़ी चावल के नाम से जाना जाता है। एक अनाज हैचिंणा, इसकी पैदावार भी कहीं खो गई है। इसको भून कर बुखणा बनाया जाता था। स्थानीय भाषा में चिंणा के बीजों को भून कर उसे कूट कर भुने दाने को बुखणा कहा जाता है। इन भुने दानों को वर्ष भर रखा जा सकता है। और उसको चबाने में विशेष स्वाद आता है। ऐसी सारी परंपरायें लुप्त हो रही हैं। कौणी या कंगनी एक और महत्वपूर्ण पौष्टिक अनाज है। इसे अंग्रेजी में फैक्स टेल मिलेट कहते हैं। कौणी को मुख्यतः भात के रूप में खाया जाता है, स्थांनीय लोग खास मौकों पर कौणी की खीर भी बनाते है। कौणी का भात खीर एवं अन्य व्यंजन झंगोरे की तरह बनाये जाते हैं। आधुनिक तरीके से बिस्कुट, लड्डू इडली एवं मिठाइयां भी बनाई जा सकती है।
कौंणी फसल जिसको मिलेट के नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम सेतिरिया इटालिका है तथा पोएसी पौधों का परिवार का पौधा है। कौंणी एक प्राचीन फसल है, इसका उत्पादन चीन, भारत, रूस, अफ्रीका तथा अमेरिका में किया जाता है। कौंणी चीन में लगभग 5000 वर्ष पूर्व तथा यूरोप में लगभग 3000 वर्ष पूर्व से चलन में है। कौंणी का चावल एशिया, दक्षिणी पूर्वी यूरोप तथा अफ्रीका में खाया जाता है। विश्वभर में कौंणी की लगभग 100 प्रजातियां पाई जाती हैं। कौंणी की लगभग सभी प्रजातियां अनाज उत्पादन के लिये उगाई जाती हैं। वैसे तो उत्तराखण्ड में कौंणी की खेती वृहद मात्रा में नहीं की जाती है, केवल कौंणी के कुछ बीजों को मडुवें के साथ मिश्रित फसल के रूप में बहारनाजा पद्धति के तहत उगाया जाता है।
पुराने समय में कौंणी के अनाज को पशुओ के लिये पोष्टिक आहार तैयार करने के लिये उगाया जाता था परन्तु वर्तमान में एक खेत में केवल कौंणी के 8.10 पौधे ही दिखाई देते हैं जो कि बीजों को बचाने के लिये के लिये हैं। दक्षिणी भारत तथा छत्तीसगढ़ के जन जातीय क्षेत्रों में कौंणी प्रमुख रूप से उगाया तथा खाया जाता है। छत्तीसगढ़ के जनजातीय क्षेत्रों में कौंणी का उपयोग औषधि के रूप में अतिसार, हड्डियों की कमजोरी एवं सूजन आदि के उपचार के लिये भी किया जाता है। प्राचीन समय से ही कौंणी को कई क्षेत्रो में खेतों की मेड पर भी उगाया जाता है, क्योंकि कौंणी में मिट्टी को बांधने की अदभुत क्षमता होती है तथा इसी वजह से संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन साल 2011 में कौंणी को पुनर्वसन को लेकर के लिये संस्तुत किया गया था।
कौंणी की पोष्टिक गुणवत्ता की बात की जाय तो यह अन्य भी की तरह ही पोष्टिक तथा मिनरल्स से भरपूर होने के साथ.साथ वीटा कैरोटीन का भी प्रमुख स्रोत साथ.साथ कौंणी का अनाज कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स भी होता है। यदि गेहूं के आटे से कौंणी की तुलना की जाय तो कौंणी की कम मात्रा में मौजूद 50.8 पाई जाती है जबकि गेंहू में 68 तक पाई जाती है। कौंणी में 55 प्राकृतिक अघुलनशील फाइबर स्रोत पाया जाता है, जो कि छोटे बाजरा की तुलना में काफी अधिक है। यह माना जाता है कि कौंणी को खाने से काफी सारी दीर्घकालिक थकान संलक्षण बीमारियों का निवारण हो जाता है। कौंणी के साथ.साथ अन्य कौंणी छोटे बाजरा की पौष्टिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तंजानिया में एड्स रोगियों के बेहतर स्वास्थ्य तथा औषधियों के कारगर प्रभाव के लिये कौंणी से निर्मित भोजन दिया जाता है।
श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार कौंणी खून में ग्लूकोज की मात्रा 70 प्रतिशत तक कम कर देता है तथा लाभदायक वसा को बढ़ाने में सहायक होता है। कौंणी के बीजों में 9 प्रतिशत तक तेल की मात्रा भी पाई जाती है जिसकी वजह से विश्व के कई देशो में कौंणी से तेल का उत्पादन भी किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन साल 1970 की रिपोर्ट तथा अन्य कई वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार कौंणी वसा, फाइवर, कार्बोहाईड्रेड के अलावा कुछ अमीनो अम्ल होने की वजह से आज विश्वभर में कई खाद्य उद्योगों में एक प्रमुख अवयव है। कई देशों में कौंणी का आटा पौष्टिक गुणवत्ता की वजह से इसको बेकरी एंड कंफैक्शनरी उद्योगों में बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। कौंणी से निर्मित ब्रेड में प्रोटीन की मात्रा 11.49 की अपेक्षा 12.67, वसा 6.53 की अपेक्षाकृत कम 4.70 तथा कुल मिनरल्स 1.06 की अपेक्षाकृत अधिक 1.43 तक पाये जाते हैं। जबकि पौष्टिकता के साथ.साथ ब्रेड का कलर, स्वाद तथा कठोरता का वह गुण भी बेहतर पाई जाती हैं। वर्तमान में ब्रेड उद्योग विश्वभर में तेजी से उत्पादन कर रही है। विश्व में 27 लाख टन वार्षिक ब्रेड का उत्पादन किया जाता है। अगर कौंणी के आटे को ब्रेड उद्योग में उपयोग किया जाता है तो न केवल ब्रेड पोष्टिक गुणवत्ता में बेहतर होगी बल्कि इस फसल जो असिंचित भू.भाग में उत्पादन देने की क्षमता रखती है, को बेहतर बाजार उपलब्ध हो जायेगा और समाप्ति की कगार पर पहुंच चुकी कौंणी को पुर्नजीवित कर जीविका उपार्जन हेतु आर्थिकी का स्रोत बन सकती है।
चीन में कौंणी से ब्रेड, नूडल्स, चिप्स तथा बेबी फूड बहुतायत उपयोग के साथ.साथ बीयर, एल्कोहल तथा सिरका बनाने में भी प्रयुक्त किया जाता है। कौंणी के अंकुरित बीज चीन में सब्जी के रूप में बडे़ चाव के साथ खाये जाते हैं। यूरोप तथा अमेरिका में कौंणी को मुख्यत चारे के रूप में उपयोग किया जाता है। चीन, अमेरिका एवं यूरोप में कौंणी को पशुचारे के रूप में भी बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। उत्तराखण्ड सरकार की ओर से फसलों की सुरक्षा के लिए स्थाई कदम उठाये गये तो आने वाले दिनों में स्थानीय व पारम्परिक फसलों के उत्पादन में भारी बढ़ोतरी हो सकती है। जंगली जानवरों के भारी नुकसान के कारण पर्वतीय क्षेत्र में काश्तकारों ने खेती करना कम कर दिया था जिस कारण मडुवा, कौंणी, गहत, भट्ट सांवा, रामदाना व राजमा का उत्पादन भी कम हो गया। पिछले दो वर्षों से लगातार सरकार द्वारा इन दालों व अनाजों के उत्पादन पर फोकस करने व इनका प्रयोग जलसोंए महोत्सवोंए स्कूल व अस्पतालों में करने तथा उपभोक्ताओं की मांग के साथ ही इन अनाजों का समर्थन मूल्य तय करने पर इनकी मांग अचानक बढ़ गई। इस बार इसके उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है। इस बार यह फसल अब बाजारों में उपलब्ध हैण् कुमायूँ या गढ़वाल के किसी हिल स्टेशन में कुछ दिन सुकून की तलाश में आये हो तो पहाड़ी व्यंजनों की पूरी श्रृंखला आपके लिए मौजूद है। डोसा इडलीए मोमो जंक फूड और कॉन्टिनेंटल को पीछे छोड़ते हुए आप उत्तराखण्ड के किसी झरने या गदेरे की ठंडी ठंडी हवाओं के बीच परंपरागत ग्रामीण पहाड़ी स्वाद चखना चाहते हैं तो आपको अपनी गाड़ी पहाड़ के किसी ऐसे मोड़ पर रोकनी होगी जहां एक ऐसा ट्रेडिशनल ढाबा आपको नज़र आ जायेए यदि इस दिशा में सरकार द्वारा सकारात्मक पहल की जाती है तो उत्तराखण्ड के लिए सुखद ही होगा किया जाता है तो यदि रोजगार से जोड़े तो अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य फसल उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती है।
लेखक को उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं,