डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पौंध विज्ञान के रामानुज कहे जाने वाले उत्तराखंड के लाल चन्द्र शेखर लोहुमी का जन्म अल्मोड़ा के पास सतराली गांव में बचीराम लोहनी के घर में 1904 में हुआ। 1932 में अल्मोड़ा से मीडिल की परीक्षा उत्तीर्ण कर अध्यापन कार्य जुट गए। इनकी विशिष्ट अध्यापन शैली के लिए 1964 में इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला। यद्पि इन्होंने औपचारिक रुप से उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कि तथापि विज्ञानी एवं जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण इनका स्वाध्याय चलता रहा। 1966 में इन्होंने कुरी घास जिसका वैज्ञानिक नाम ;संदजंदं बंउंतंद्ध यह एक ऐसा खरपतवार है जो अपने सुन्दर नारंगी पुष्पों के कारण अंग्रेजों द्वारा कुमाऊं में लाया गया। यह अतिशीघ्रता से फैलता है। ऊर्वरा शक्ति का हास करता है। जिससे भूमि कृषि लायक नहीं रहती इसको नष्ट करना काफी मुश्किल है। इसके नियंत्राण व नाश के लिए एक ऐसे कीट की खोज की जो बड़ी आसानी से इस खरपतवार को नष्ट कर सकता है।
चन्द्रशेखर लोहनी ने नौकुचियाताल जिला नैनीताल जब 1966 में दुबारा गए तो वहां पूरी लेंटीना घास पूरे इलाके में बुरी तरह फैली हुयी देखी जिससे वहां की किसानों की जमीन इससे ढ़क गयी थी। कुरी की झाड़ी उतारने में बच्चों के हाथ कट जाते थे किसान के आसू जानवरों की मौत और बच्चों के खून से सने हाथों को देखकर उनके सामने एक चुनौती थी। आस्ट्रेलिया के मरे डार्लिंग के किनारे इस कीट के विषय में एक पुस्तक में पढ़ा था और उस कीट ने सैकड़ों मील फैली नागफनी के जंगल काे उजाड़ दिया था और मैदान साफ हो गया था। महीनों तक इस कीड़े को तलाशने के बाद उन्हें एक स्थान पर कुरी की खुस डाली तथा झाड़ी दिखाई दी। तब उनके द्वारा लाठी से झाड़ी पर प्रहार करने से बहुत छोटे-बड़े कीट जमीन पर गिरे। उन्हीं कीटों ने कुरी की झाड़ी को नष्ट किया था। उन कीटों को ले जाकर उन्होंने कुरी की अन्य झाड़ियों में उसे डाल दिया और देखा कि यह कीड़ा कुरी की पत्तियों का रस चुस कर पत्तियों को नंगा कर देता था उन्होंने अनेक फसलों पर इसका परीक्षण किया कीड़े ने किसी भी फसल को नुकसान नहीं पहुचाया। 45 विभिन्न वनस्पतियों पर परीक्षण किया। संतोषजनक परिणाम के बाद कीट को पंतनगर विश्वविद्यालय भेजा। इस कीट को वहां के वैज्ञानिकों ने इंगलैण्ड व अमेरिका भेजा। इस कीट पर परीक्षण फोरेस्ट इंस्टीट्यूट देहरादून के कई वैज्ञानिकों ने भीमताल आकर किया। कामनवैल्थ इंस्टीट्यूट बैंगलोर के वैज्ञानिकों ने भी इसका परीक्षण किया। इस कीट पर लोहनी ने लगातार 33 माह तक 3 हजार मील पैदल चलकर अनुसंधान किया। स्वयं नक्शे बनाए आकंडे जमा किए।
लैंटाना कीट की झाड़ी में यह अन्य वनस्पति में डाल कर इसका प्रभाव देखा उन्होंने 24 अनाज के पौंधों 18 प्रकार के फलों 22 प्रकार के साग भाजियों 24 कटीली झाड़ियों 60 तरह के फूलों टीक सागौन सहित 37 वन वृक्षों के अतिरिक्त 85 विविध वृक्षों पर यह परीक्षण किया। पुनरू इस कीट के जीवन चक्र का अध्ययन करना नैनीताल अल्मोड़ा तराई में इसका परीक्षा करने पर उन्होंने यह पाया। कि यह कीड़ा कुरी के अतिरिक्त किसी भी वनस्पति को नहीं खाती।
पंतनगर विश्वविद्यालय की किसान भारतीय में इनका पूरा शोध छपा साप्ताहिक हिन्दुस्तान में इस पर हिमांशु जोशी ने बहुत कुछ छापा तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने इन्हें प्रशंसा स्वरुप 5000 रुपया भेजा तथा जगजीवन राम ने 15000 रुपया विशेष पुरस्कार के रुप में भेजा। इस तरह कुरी के बायोकंट्रोल के इस साधन की खोज कर इन्होंने विज्ञान जगत में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया। जिसके लिए इन्हें विभिन्न पुरुस्कारों से अलंकृत किया गया वर्ष 1984 में उनका निधन हो गया था। उत्तराखण्ड देवभूमि में कुरी घास बहुत नुकसानदेह हो साबित है लगभग 2000 मीटर तक की ऊंचाई तक चिर पाइन यानी भारतीय चीड़ के जंगल मिल जाएंगे, ऊंचे.ऊंचे दरख़्त नोंकदार पत्तियां और भूरे लाल रंग के तने के साथ। आप को बताऊं ये केवल चीड़ के वृक्ष नही हैं बल्कि हमारे इतिहास का आईना भी हैं।