उत्तराखंड में मानसूनी कहर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. प्रकृति अपने रौद्र रूप में है. कहीं भूस्खलन तो कहीं बादल फटने की घटनाएं, तो कहीं गांव-घरों में घुसता बरसाती नालों का मलबा व पानी ने मानव जीवन की कमर ही तोड़ दी है. वहीं, उत्तराखंड आपदा प्रबंधन कंट्रोल रूम से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेशभर में कई बड़े राजमार्ग और ग्रामीण मार्गों को मिलाकर कुल 98 सड़कें बंद हैं, जिन्हें खोलने का काम जारी है.प्रदेश में मानसून के कारण पिछले कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के बाद कई राष्ट्रीय राजमार्ग बाधित हैं, तो अन्य सड़कों के हालात भी खराब हैं. राज्य आपदा कंट्रोल रूम से मिली जानकारी के अनुसार सोमवार (30 अगस्त) सुबह 11 बजे तक प्रदेश में 98 छोटे-बड़े मार्ग बंद हैं. इनमें प्रदेश की बड़ी सड़कें यानी चारधाम और पहाड़ को जोड़ने वाले मुख्य राजमार्ग भी शामिल हैं. पिथौरागढ़ जिले में 5 बॉर्डर रोड और 10 ग्रामीण मोटर मार्ग बंद हैं. बादल फटने के चलते 7 लोग लापता हैं. बागेश्वर जिले में एक राज्य, एक जिला और 16 ग्रामीण मोटर मार्ग यातायात के लिए अवरुद्ध हैं. नैनीताल जिले में 6 ग्रामीण मोटर मार्ग यातायात के लिए अवरुद्ध हैं. अल्मोड़ा जिले में 2 मुख्य जिला मार्ग यातायात के लिए अवरुद्ध हैं, जिन्हें खोलने का काम चल रहा है.चंपावत जिले में टनकपुर-चम्पावत राष्ट्रीय राजमार्ग-9 बीते एक सप्ताह से बंद है. मार्ग खोलने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन बारिश के कारण मार्ग पर भूस्खलन क्षेत्र स्वांला में लगातार मलबा गिर रहा है. जिला अधिकारी विनीत तोमर ने नोडल एजेंसी को मार्ग खोलने के काम में तेजी लाने के निर्देश दिए हैं. इसके अलावा जिले में 04 ग्रामीण मोटर मार्ग भी यातायात के लिए अवरुद्ध हैं, जिन्हें खोलने का कार्य चल रहा है. उधम सिंह नगर के अंतर्गत कोई भी ग्रामीण मोटर मार्ग बंद नहीं है. देहरादून जिले में ऋषिकेश-देहरादून राज्यमार्ग रानीपोखरी पुल टूटने के कारण बंद है. राष्ट्रीय राजमार्ग-123 हरबर्टपुर-बड़कोट अलग-अलग तीन जगहों पर अवरुद्ध है. इसके अलावा जिले में 1 मुख्य जिला मार्ग और 5 ग्रामीण मार्ग यातायात के लिए अवरुद्ध हैं, जिन्हें खोलने का काम चल रहा है. भूस्खलन की घटनाओं के कई कारण है. इनमें चट्टानों में दरारें आना, पानी की ठीक तरीके से निकासी न होना आदि मुख्य कारण है. एक्सपर्ट की माने तो धरातल पर सही तरीके से पानी की निकासी करना बहुत जरूरी है. मुख्यतौर पर यही अधिकतर भूस्खलन की घटनाओं का मुख्य कारण है. इसके अलावा बिना मिट्टी की जांच के कंस्ट्रक्शन करना भी भूस्खलन और जमीन धसने का मुख्य कारण हो सकता है. जमीन धसने और भूस्खलन का कारण पहाड़ियों में पड़ने वाली दरारें और जमीन के नीचे बहने वाला पानी मुख्य कारण है. इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों की मिट्टी भी अलग अलग होती है. यानी यहां 2 चट्टानों का जोरदार टकराव होता है. इस कारण यह क्षेत्र धंस रहा है. इसके अलावा एडवांस स्टडी की पहाड़ी में बीते वर्ष और इस वर्ष भूस्खलन देखने को मिला. यह भूस्खलन चट्टानों पर भार पड़ने के कारण हुआ है. यहां भी चट्टानों में दरारें थी और पानी इन दरारों में रिसने के कारण भूस्खलन हुआ. भूस्खलन की घटनाओं से बचने के लिए सतह पर पानी को सही तरीके से नियंत्रित करना जरूरी है.पानी को सही दिशा में बहने देना चाहिए. ताकि जमीन के अंदर नमी न बने और मानसून के दौरान ऐसे क्षेत्र कमजोर न हो. कुछ वर्षों में भूस्खलन की घटनाएं अधिक देखने को मिल रही है. अनियमित बारिश और भारी वर्षा से जमीन जल्दी सैचुरेट यानी पूरी तरह से गीली हो रही है. पहाड़ों में चट्टानें टूटती रहती हैं. बारिश का पानी इन दरारों में घुस जाता है. जिससे भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है. भूस्खलन का मुख्य कारण पानी है. इसे सही दिशा में बहने देना बहुत जरूरी है. सतह के पानी को नियंत्रित करना बहुत ज़रूरी है. ताकि ज़मीन में ज्यादा नमी न बने और भूस्खलन की संभावना कम हो सके. हिमालय के पहाड़ अभी अपनी शैशव अवस्था में हैं. इन्हें कचरे और मलबे का ढेर भी कहा जा सकता है. जोशीमठ, मसूरी, गंगटोक, जम्मू, नैनीताल, भीमताल जैसे तमाम हिमालयी हिल स्टेशंस में भूस्खलन व जमीन धंसने की समस्या आम है. उन्होंने कहा कि धरासू से लेकर भैरव घाटी तक उत्तरकाशी की पूरी बेल्ट में आए दिन सड़कों के दरकने की घटनाएं होती हैं. आजाद भारत में हिल स्टेशंस पर किए गए ज्यादातर नए निर्माण में सीमेंट और कंक्रीट का भारी मात्रा में इस्तेमाल किया गया. अगर पहाड़ों को बचाना है तो सरकार को भारी निर्माण कार्यों पर तुरंत रोक लगानी चाहिए. पहाड़ों की सैर करने आने वाले सैलानियों को रोकना बेशक मुश्किल है. लेकिन, उन्हें समझना होगा कि वे यात्रा के दौरान कम से कम सुविधाओं में अपना काम चलाएं. पर्यटकों की मांग को पूरा करने के लिए भारी निर्माण नहीं किया जाएं तो काफी हद तक पहाड़ों पर दबाव कम हो सकता है. इसके अलावा ये भी जरूरी है कि पहाड़ों की तलहटी के तराई क्षेत्रों के जंगलों को काटने से परहेज किया जाए. हालांकि यह सुनने में बेहद अजीब लगेगा, लेकिन आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी, यदि आपसे ये कहा जाए कि पहाड़ों पर या हिमालय में निरंतर होने वाले भूस्खलन न होते, तो यहां पर मानव सभ्यताएं भी विकसित नहीं हो पातीं. या फिर यह जो मानव सभ्यता, खास तौर से जो उच्च हिमालय क्षेत्र में सदियों से फलती फूलती आ रही है, बिना लैंडलाइन के यहां की जीवन शैली इतनी समृद्ध नहीं बन पाती. ऐसा कैसे जो भूस्खलन अक्सर लोगों की जान ले रहा है, वो कैसे जीवन को यहां आसान बनाते आए हैं पहाड़ों पर होने वाले जानलेवा लैंडस्लाइडों का एक और अनकहा और अनसुना पहलू भी मौजूद है. दरअसल भूस्खलन लैंडफॉर्म मोडिफाइंग प्रक्रिया की एक बेहद खूबसूरत और पावरफुल घटना है. जब से हिमालय के पहाड़ बने हैं, निरंतर यह प्रक्रिया जारी है. हम, आप और सरकारें चाहे जितना चाहें, लेकिन इन भूस्खलनों पर नियंत्रण लगाना असंभव है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह प्रकृति के गुरुत्वाकर्षण के नियम के खिलाफ होगा. क्योंकि धरती पर जो भी वस्तु हाई एनर्जी स्टेट में है, उसका नीचे आना तय है. वह आज नहीं तो कल नीचे जरूर आएगी. इसी तरह से उत्तराखंड में जब तक पहाड़ हैं, भूस्खलन की प्रक्रिया जारी रहेगी. उत्तराखंड के पहाड़ों में खूब पानी बरसता है. लेकिन यह पानी बह कर नीचे चला जाता है. मैदान की तरह यहां पर भूमिगत जल भी उपलब्ध नहीं हो पाता है. लेकिन लैंडस्लाइड वाली जगह इस पानी को रोक कर रखती है. वहां पर सॉइल फॉर्मेशन बिल्कुल नया होता है. इसलिए वहां पर पानी की उपलब्धता होती है. यह पानी स्रोत के जरिए उपलब्ध होता है. इसी तरह से खेती के लिए भी पक्के पहाड़ वाली जगह की तुलना में पुराने भूस्खलन वाली जगह पर खेती करना आसान होता है. क्योंकि वहां पर सॉइल फॉर्मेशन बिल्कुल नया होता है. इसलिए वह भूमि भी बेहद उपजाऊ होती है. सैकड़ों साल पहले जब हिमालय में मानवीय सभ्यता विकसित हुई, तो उस समय लोगों ने पहाड़ों को समझा. प्रकृति को समझा और उसके हिसाब से यहां पर मानवीय जीवन फला फूला. वह बताते हैं कि पुराने लोगों ने इस बात को बेहद अच्छे से समझा कि भूस्खलन उनके लिए जहां एक तरफ पानी और खेती के लिहाज से बेहद उपयोगी है, वहीं घटना के लिहाज से बेहद जोखिम भरा. इसीलिए पुरानी बसावटें सीधे-सीधे लैंडस्लाइड के ऊपर ना विकसित करके पुराने और बड़े लैंडस्लाइड के नजदीक ऊंचाई वाली जगह पर विकसित की गई.इसके उदाहरण आज उत्तराखंड में कई जगहों पर देखने को मिलते हैं. आज ऐसे कई पुराने गांव या फिर कुछ शुरुआती बसावे हैं, जो कि काफी ऊंचाई पर हैं, लेकिन वह सॉलिड रॉक्स के ऊपर बनाई गई हैं. उत्तराखंड के सभी पुराने पारंपरिक गांव इन बातों का विशेष ध्यान करके बसाए जाते थे. हालांकि ये लोग पानी और खेती के लिए फिर भी नीचे लैंडस्लाइड वाली जगह पर निर्भर रहते थे. मेहनत करके काफी दूर से पानी और खेती के लिए काम करते थे. आज ऐसा नहीं है, अब लोग अपनी सहूलियत को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं. डॉ पीयूष रौतेला बताते हैं कि कुछ हिमालयी क्षेत्रों में लगातार आबादी बढ़ती गई और छोटे-छोटे कस्बों और गांव में लोगों का दबाव बढ़ता गया. पहाड़ों में सुविधा बढ़ी. लोक पर्यटन और अन्य कार्यों से ज्यादा आबादी बढ़ी तो उनके लिए ज्यादा आवास की जरूरत हुई, जो कि उत्तराखंड में बेहद सीमित है. इसलिए जो कि शुरुआती दौर के लोगों की ट्रेडिशनल प्रैक्टिस थी कि खेती वाली जमीन पर नहीं बसेंगे, उसे सबसे पहले दरकिनार किया गया. खेती वाली जमीनों पर भी मकान बनने शुरू हुए. लोग बढ़ने लगे तो पुराने पारंपरिक वासों की जगह मल्टी स्टोरी कंक्रीट बिल्डिंग बनने का चलन शुरू हुआ. लोग अपेक्षाकृत ऊंचाई और सॉलिड रॉक्स वाली जगह की तुलना में नदी किनारे बनी सड़कों और सुविधा को ढूंढते हुए अपने निवास स्थान वहां पर बनाने लगे. लंबे समय से लगातार यहां की ट्रेडिशनल प्रैक्टिस में आया यह अंतर आज लोगों के लिए मुश्किल का सबब बन रहा है. करोड़ों खर्च होने पर भी इस समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा हैं कोई स्थायी समाधान अब तक नहीं निकाला जा सका है।. हिमालय की तलहटी तक ही सीमित है। पहाड़ी क्षेत्र में मानसून में बहुत भारी बारिश होती है। ये तो होना ही है। हमें अत्यधिक भारी बारिश और लंबे समय तक सूखे दोनों के लिए तैयार रहना और आपदा प्रबंधन को मजबूत करना चाहिए।” *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*