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अब न ‘गुल’ है न ‘बुलबुल’, जब-जब गोली चले कश्मीर में रुकी फिल्मों की शूटिंग

28/06/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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*अब न ‘गुल’ है न ‘बुलबुल’, जब-जब गोली चले कश्मीर में रुकी फिल्मों की शूटिंग*
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
कश्मीर के पहलगाम में आतंकवादियों ने कोहराम मचाकर पटरी पर आते पर्यटन उद्योग पर भी बड़ा हमला किया है. घाटी का प्राकृतिक सौंदर्य हमारे सिनेमा वालों के लिए कभी सबसे हिट फॉर्मूला रहा है. अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद यहां फिल्म संस्कृति भी पटरी पर लौट रही थी. लेकिन इस घटना ने एक बार फिर दहशत फैला दी. सन् 1965 में एक फिल्म आई थी- जब जब फूल खिले. इसमें शशि कपूर और नंदा की यादगार भूमिका और उनके ऊपर फिल्माए गए अनेक गानों को लोग आज भी शिद्दत से याद करते हैं और आज के कश्मीर के खूनी मंजर पर आंसू बहाते हैं. उस फिल्म में भी नंदा एक पर्यटक थी. कश्मीर घूमने आती हैं, जिसे झील में नाव चलाने वाले शशि कपूर से धीरे-धीरे इश्क हो जाता है. फिल्म का एक गाना था- एक था गुल और एक थी बुलबुल, दोनों चमन थे… है ये कहानी बिल्कुल सच्ची, मेरे नाना कहते थे… लेकिन आज के हालात बताते हैं अब वहां ना तो वो गुल है और ना ही वो बुलबुलखूनी दरिदों ने नाना-नानी की सुहानी कहानियों का गला घोंट दिया है. आतंकी पर्यटकों को गोलियों से भून रहे हैं. खूबसूरत पहलगाम शहर के बैसरन घाटी में आतंकवादियों ने टारगेट किलिंग करके जब 26 निहत्थे लोगों को निर्ममता से मौत के घाट उतार दिया तो कुदरत का कलेजा भी मानो चीख उठा होगा. वे पर्यटक जो कश्मीर के मिनी स्विटजरलैंड कहे जाने वाली जगह पर जब अपनी-अपनी आंखों और कैमरे में यादगार खुशनुमा पलों को कैद कर रहे होंगे और तभी आतंकियों ने जब उन्हें गोलियों से भून दिया होगा, तब कश्मीर की ये धरती उन्हें कितनी दहशतनाक लगी होगी. कोई हैरत नहीं हमारे सिनेमा की कहानियों में भी पहले कश्मीर को एक रोमांटिक और सौंदर्य से परिपूर्ण स्थल के तौर पर दिखाया जाता रहा लेकिन आतंकवाद ने जिस तरह यहां सबकुछ तहस-नहस कर दिया, तो यहां के फिल्मी मंजर भी खौफनाक हो गए. जम्मू-कश्मीर हिंदुस्तान का वह अटूट हिस्सा है जहां के सौंदर्य ने ना केवल भारतीय बल्कि दुनिया भर के पर्यटकों और फिल्ममेकर्स का ध्यान खींचा है. पर्दे पर कश्मीर का बैकड्रॉप एक हिट फॉर्मूला रहा है. पचास-साठ या सत्तर-अस्सी के दशक की रोमांटिक फिल्में हों या कि आतंकवाद के बढ़ने के बाद की फिल्में- कश्मीर की हर कहानी ब्लॉकबस्टर रही है. सिल्वर स्क्रीन के लिए कश्मीर एक अहम डेस्टिनेशन रहा है. आजादी के बाद से ही तमाम दिग्गज निर्माता-निर्देशक यहां के प्राकृतिक नजारों की ओर आकर्षित हुए और अपनी-अपनी फिल्मों में उसे प्रमुखता से दिखाया है. कश्मीर घाटी को हमारे फिल्मकारों ने हमेशा मिनी स्विटजरलैंड का विकल्प समझा. कभी यहां की पृष्ठभूमि पर बरसात, कश्मीर की कली या फिर जब जब फूल खिले जैसी फिल्में बनीं और इन फिल्मों ने अपार लोकप्रियता बटोरी. ऐसी तमाम रोमांटिक फिल्मों ने अपने जमाने के दर्शकों और कोई अचरज नहीं कि आज की पीढ़ी के दर्शकों के दिलों में भी खूबसूरत घाटी की तरह एक खास जगह बना रखी है लेकिन नब्बे के खूनी दशक के बाद के दौर में उसी कश्मीर के खौफनाक मंजर वाले बैकग्राउंड में हमारा सिनेमा मजबूरन बदलने लगा. साल 1992 में आई मणिरत्म की बहुचर्चित फिल्म रोजा से कश्मीर की कहानी बदलने लगी. नेशनल अवॉर्ड प्राप्त इस फिल्म में भी आतंकवादी तमिलनाडु की एक महिला के पति का अपहरण कर लेते हैं. इसके बाद फिल्म में आतंकवादियों के साथ नये सिरे से संघर्ष शुरू हो जाता है. रोजा को राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ाने वाली फिल्म के तौर पर देश और विदेश में भी प्रशंसा मिली. इसके बाद कश्मीर बैकग्राउंड पर मिशन कश्मीर, शिकारा, फिजां, यहां, तहान, हैदर, फितूर, अय्यारी और राजी जैसी कई फिल्में आईं जिनमें आतंकवादियों के मंसूबों और आतंकवाद के जलते कश्मीर को दर्शाया गया. ये सभी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कामयाब हुईं. कश्मीर पर बनी फिल्में राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बन गईं. आतंकवादी वारदातों के बावजूद फिल्मी पर्दे पर कश्मीर की तस्वीर नये जमाने की कई फिल्मों में बदस्तूर आती रही और वहां की आबोहवा से दुनिया को वाकिफ कराती रही. ये जवानी है दीवानी, जब तक है जान, 3 इडियट्स, हाइवे, बजरंगी भाईजान जैसी अनेक फिल्मों में कश्मीर और लद्दाख का लोकेशन बखूबी दिखाया गया. लेकिन कश्मीर में आबोहवा में सबसे बड़ा बदलाव आया अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद. कश्मीर में विकास और वहां के पर्यटन उद्योग को नये सिरे से पटरी पर लाने का अभियान काफी हद तक सफल होता दिखा. स्थानीय निवासियों ने भी कश्मीर में बदलाव को स्वीकार किया और इसका स्वागत भी किया. अनुच्छेद 370 के खत्म होने के बाद कश्मीर में पर्यटन उद्योग के साथ-साथ फिल्मी गतिविधियों को भी गति मिली. घाटी में चरम पर आतंकवाद होने के दौर में एक एक कर सिनेमा हॉल बंद होते गये थे, फिल्मों की शूटिंग खत्म हो गई थी, वह सब कुछ अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद फिर से धीरे-धीरे बहाल होने लगा था. विवेक अग्निहोत्री ने जब द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म बनाई तो घाटी में कश्मीरी पंडितों पर ढाये गये जुल्द की दास्तां से हर कोई विस्तार से रू-ब-रू हो सका. इस फिल्म को राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने वाली फिल्म के तौर पर आंका गया और देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में इस फिल्म को भारी संख्या में दर्शक मिले. इसी कड़ी में एक और फिल्म मसलन आर्टिकल 370 का जिक्र जरूरी है, इसमें यामी गौतम ने प्रमुख भूमिका निभाई थी. हालांकि यह फिल्म दी कश्मीर फाइल्स की तरह दर्शकों को नहीं खींच सकी लेकिन घाटी के बदले हालात को जरूर दर्शाती है. लेकिन बीते मंगलवार को पहलगाम में पर्यटकों को निशाना बनाकर आतंकवादियों ने एक बार फिर दहशत फैलाने की नापाक कोशिश की है और पर्यटन उद्योग के साथ-साथ फिल्म उद्योग को भी नुकसान पहुंचाकर आतंकवादियों ने कश्मीरियों के लिए ही नई मुश्किलें खड़ी कर दी.तमाम फिल्ममेकर्स ने पहलगाम आतंकी हमले की कड़े शब्दों मे निंदा की है और इसे देश के अमन और विकास के लिए खतरनाक बताया है. जावेद अख्तर, आलिया भट्ट, अक्षय कुमार, संजय दत्त, अनुपम खेर, अजय देवगन, रवीना टंडन आदि ने मारे गये लोगों के प्रति दुख प्रकट किया और देश में सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की कामना की है. साल 2001 की ऑलटाइम ब्लॉकबस्टर फिल्म थी- गदर एक प्रेम कथा. इस मूवी की लहर को न कभी हिंदुस्तान भूल सकता है और ना पाकिस्तान. तारा सिंह बने सनी देओल की दहाड़ ने सीमा पार की दुनिया को जिस भांति दहलाया था कि उसकी धमक आज तक बरकरार है. यही वजह थी कि जब इस फिल्म का दूसरा भाग आया तो पाकिस्तानी हुकूमत को उस कलाकार से परेशानी होने लगी जिसने पाकिस्तान की धरती पर मुट्ठी तानकर नारा बुलंद किया था- पाकिस्तान मुर्दाबाद. इसी के बरअक्स तारा सिंह ने चिंघाड़ लगाई थी- हिंदुस्तान जिंदाबाद था, जिंदाबाद है और जिंदाबाद रहेगा. *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*

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