डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उतराखंड सौंदर्य का जीवन्त प्रतीक है, सरलता एवं गरिमा का अभिषेक है और सभ्यता एवं संस्कृति इसकी विशिष्ट पहचान है। यहाँ प्रकृति और जीवन के बीच ऐसा सामंजस्य हैं जो सभी पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को मंत्रमुग्ध कर देता है। यहाँ की शीतल हवा शान्ति की प्रतीक हैं, तो फलदार वृक्ष दान की महिमा का गुणगान करते हैं। यहाँ के लोक जीवन में परंपराएँ, खेल.तमाशे, मेले, उत्सव, पर्व.त्यौहार, चौफुला-झुमैलो, दैरी-चांचरी, छपेली, झौड़ो के झमाके, खुदेड़ गीत, ॠतुरैण, पाण्डव.नृत्य, संस्कार सभी कुछ अपने निराले अन्दाज में जीवन को सजाते हैं। ब्रह्मावर्त, ब्रह्मदेश, ब्रह्मर्षिदेश और आर्यावर्त आदि नामों से विख्यात उतराखंड प्रदेश वेद भूमि है। पुराणों में केदारखण्ड नाम से और संस्कृत साहित्य में हिमवान् हिमवन्त और इसी प्रकार पालि साहित्य में भी उसी आदर और प्रेम से उन्हीं नामों से अभिहित हुआ है। हिमालय इस वसुन्धरा का प्रिय वत्स है। वत्सरुप हिमालय को प्राप्त कर ही धरती.धेनु ने रस, औषधियाँ और रत्न रुपी दूध प्रदान किया। यह यज्ञ साधन है। विष्णु पुराण में स्वयं भगवा विष्णु कहते हैं कि मैंने पर्वत राज हिमालय की सृष्टि यज्ञ साधन के लिए की है।
पहाड़ में रहते हुए पिनालु के तने या डंठल जिनको पिनाऊ गाप कहते थे की सब्जी बहुत टेस्टी लगती थी, अरबी एक उष्णकटिबन्धीय पेड़ है, जिसे इसकी जड़ में लगी अरबी नामक सब्जी के लिए मुख्यतः उगाया जाता है। इसके साथ ही इसके बड़े.बड़े पत्ते भी खाद्य हैं। यह बहुत प्राचीन काल से उगाया जाने वाला पेड़ है। कच्चे रूप में पेड़ जहरीला हो सकता है। ऐसा इसमें मौजूद कैल्शियम ऑक्ज़ेलेट के कारण होता है। अक्सर अम्मा दिन में तोड़ कर शाम की सब्जी का जुगाड़ कर लेती थी। वैसे सयुंक्त परिवार का ये अपना ही मजा है, मिलजुल कर सारी चीजे साथ होने वाली ठहरीबाखली में किसी के यहां कोई भी सब्जी लगी हो जो भी घर आया ही उसके लिए आ जाने वाली हुई, वही बात धिनाई के साथ हुई किसी का भी भैस दूध देने वाला हो बाखली में तो सबका आनंद होने वाला ठहरा। घी त्यार हर साल के भाद्रो मास 1 गते को मनाया जाता है। ये त्यौहार भी हरेले की ही तरह ऋतु आधारित त्यौहार है। हरेला जहां बीजों को बोने और वर्षा ऋतु के आगमन का त्यौहार है। तो वहीं घी.त्यार अंकुरित हो चुकी फसलों में बालियों के लग जाने पर मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस दिन बेडू की रोटि और पिनालु के पत्ते और पहाड़ी तोरी की सब्जी खाते हैं। हर घर में पारम्परिक पकवान बनाये जाते हैं। किसी न किसी रुप में घी खाना अनिवार्य माना जाता है।
उत्तराखण्ड एक कृषि प्रधान राज्य है, कई पुस्तो से ये प्रथा चली आ रही है, यहां की सभ्यता जल और जमीन से प्राप्त संसाधनों पर आधारित रही है, जिसकी पुष्टि यहां के लोक त्यौहार करते हैं, प्रकृति और कृषि का यहां के लोक जीवन में बहुत महत्व है, जिसे यहां की सभ्यता अपने लोक त्यौहारों के माध्यम से प्रदर्शित करती है। सोमश्वर अल्मोड़ा सोमेश्वर घाटी क्षेत्र के गांवों में बंदरों और जंगली सुअरों ने खेतों में बोई गई फसल चौपट कर दी है। रात्रि में सुअरों के झुंड फसल खोद दे रहे हैं। ग्रामीणों ने सरकार से जंगली सुअरों के आतंक से निजात दिलाने की मांग की है। सोमेश्वर घाटी क्षेत्र में काश्तकारों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती है।
काश्तकारों ने इन दिनों खेतों में धान, मडुवा, गहत, मास, भट, मक्का, गडेरी, पिनालु समेत अन्य फसलें बोई हैं। दिन में जहां बंदर फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, वहीं रात को सुअरों के झुंड क्षेत्र में काश्तकारों के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। सुअर खेतों में बोई गई फसल को खोद दे रहे हैं। घाटी के नारंगतोली, रौतेलागांव, अर्जुनराठ, मल्लाखोली, भानाराठ, रतुराठ, दलमोड़ी, भंडारीगांव, टाना, पल्यूड़ा, हट्यूड़ा, रैत, सर्प, खाड़ीसुनार, जालदौलाड़, अधूरिया, चनौदा, बैगनियां, झुपुलचौरा आदि गांवों में बंदरों और सुअरों ने काश्तकारों की फसल चौपट कर दी है।
ग्राम पंचायत मल्लाखोली की प्रधान शांति देवी का कहना है कि ग्रामीण खेती में काफी मेहनत करते हैं, लेकिन जंगली जानवर फसल को चौपट कर दे रहे हैं। अर्जुनराठ गांव के शिवेंद्र बोरा का कहना है कि सरकारें घोषणा करती हैं पर समस्या का समाधान नहीं कर पाती हैं। बंदरों से खेती के साथ ही बच्चों को भी खतरा बना हुआ है। सरकार को इसका समाधान निकालना चाहिए। भारत के अलग.अलग हिस्से में अरबी को अलग.अलग नामों से जाना जाता है। कुछ लोग इसके पत्तों की पकौड़ी बनाकर खाना पसंद करते हैं तो कुछ इसकी सब्जी। कई जगहों पर तो इसे व्रत में फलाहार के रूप में भी खाया जाता है। आसानी से मिल जाने के बावजूद पिनालु बहुत अधिक लोकप्रिय सब्जी नहीं है पर इसके फायदे चौंकाने वाले हैं। ये फाइबर, प्रोटीन, पोटैशियम, विटामिन ए, विटामिन सी, कैल्शियम और आयरन से भरपूर होती है। इसके अलावा इसमें भरपूर मात्रा में एंटी.ऑक्सीडेंट भी पाए जाते हैं। यह एक सदाबाहर जड़ी.बूटी वाला पौधा है जो उष्ण और उप.उष्ण क्षेत्रों में उगाया जाता है। इस किस्म के विकास के लिए गर्मी के मौसम की आवश्यकता होती है। इसकी पैदावार का मुख्य कारण खानेयोग्य मीठे और स्टार्ची फल है। अरबी को तारों भी बोला जाता है और तारो की जड़ों को ईडो, दाशीन और कालो के नाम से भी जाना जाता है। इसका पौधा 1.2 मीटर का होता है। इसके पत्तों का रंग हल्का हरा और लम्बे और दिल के आकार के होते है। यह सेहत के लिए लाभदायक होती है, क्योंकि इससे कैंसर, ब्लड प्रेशर, दिल की बीमारियां, शुगर, पाचन क्रिया, त्वचा और तेज़ नज़र करने के लिए दवाईयां तैयार की जाती है। यह भारत में पंजाब, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश, आसाम, गुजरात, महाराष्ट्र, केरला, आंध्रा प्रदेश, उत्तराखंड, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, कर्नाटक और तेलंगाना आदि उगाने वाले मुख्य क्षेत्र है अरबी कि फसल को गर्म और आर्द्र जलवायु कि आवश्यकता होती है। यह ग्रीष्म और वर्षा दोनों मौसमों में उगाई जाती है इसे उष्ण और उप उष्ण देशों में उगाया जा सकता है।
उत्तरी भारत कि जलवायु अरबी कि खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। उपज उन्नत तकनीक का खेती में समावेश करने पर 300-400 क्विंटल हैक्टेयर तक उपज प्राप्त कर सकते हैं। बंदरों के आतंक से तंग आकर मंडी जिले के बिंगा गांव के किसानों ने पारंपरिक खेती छोड़ सौ फीसदी जैविक खेती करना शुरू कर दिया। इससे किसानों की आमदन में 10 गुना बढ़ोतरी हुई है। किसानों ने रासायनिक खाद और हाईब्रिड बीज का उपयोग भी बंद कर दिया। अब वे बड़े पैमाने पर अरबी, अदरक, हल्दी जैसी हर्बल सब्जियों को गोबर और चीड़ के पत्तों से बनी खाद से उगा रहे हैं। किसान पुश्तों से चले आ रहे देसी बीज का इस्तेमाल कर रहे हैं। इन हर्बल सब्जियों की एडवांस में बुकिंग हो रही है। पंचायत प्रधान अनिल कुमार का कहना है कि यहां के सभी 50 परिवार पिछले तीन.चार साल से जैविक खेती कर रहे हैं। पहले जिस खेत में एक क्विंटल धान या मक्की का उत्पादन होता था, अब वहां सात क्विंटल तक अरबी या हल्दी पैदा हो रही है। जो स्थानीय स्तर पर उत्पादन किया जा रहा हैए उसमें सहकारिता संस्था उन्हें बाज़ार उपलब्ध कराने में सहयोग करेगी। जिससे उत्पादन का उन्हें उचित दाम मिलेगा। वास्तव में आज रासायनिक खेती की अपेक्षा जैविक उत्पादन की पहचान राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी है। जिससे किसानों को लाभ हो रहा है। वहीं आने वाले समय में उन्हें और अधिक पहचान मिलेगी। जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में जहां सुधार होगा वहीं लोगों के स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यही कारण है कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए इसे सतत विकास लक्ष्य में भी प्रमुखता से वास्तव में लक्ष्य का गया है।