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प्लास्टिक के कचरे से बनीं अनोखी वस्तुएं

05/04/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
कूड़े का बड़ा हिस्सा प्लास्टिक का है, जो अति सूक्ष्म रूम में हमारे समूचे तंत्र की रक्त शिराओं से लेकर सांस तक के लिए संकट बन चुका है. विशाखापत्तनम से बस्तर को जाने वाले रास्ते पर एक छोटा-सा कस्बा है कोरापुट. चारों तरफ पहाड़ और हरियाली है. जैसे ही बसाहट समाप्त होती है, ऊंचाई का घाट आता है और दोनों तरफ दूर-दूर तक प्लास्टिक की पन्नियां, पानी की बोतलें और नमकीन-चिप्स के पैकेट उड़ते दिखते हैं. जाहिर है कि जब वहां बरसात होती है, तब इन सभी से उपजा जहर धीरे-धीरे जमीन, खेत में जज्ब होता है, जो अंत में इंसान की जीवन रेखा घटा देता है. कोरापुट तो बानगी है, हर जगह हरियाली से दमकते मैदान, पहाड़ धीरे-धीरे प्लास्टिक कचरे से भरते जा रहे हैं. दिल्ली में तो शीर्ष अदालत कुछ निदान निकलवा देगी, पर उससे कुछ दूर मोदीनगर या पलवल में ऐसा तंत्र नहीं, जो इसकी परवाह करे.बेशक स्वच्छता अभियान से शौचालय और कचरे के बारे में लोग जागरूक हुए, पर हम पाते हैं कि एक तो घर का कचरा निकाल कर बाहर कर दिया, दूसरा हम कोई ऐसी व्यवस्था विकसित नहीं कर पाये, जिससे कचरा कम हो और इसका निपटान कारगर हो. जनवरी, 2019 में केंद्र ने सिंगल-यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया, फिर भी देश में 41.36 लाख टन प्लास्टिक कचरा सालाना पैदा हो रहा है. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री ने लोकसभा में बताया कि प्लास्टिक कचरे का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है. वर्ष 2018-19 में यह 33.6 लाख टन था, जो 2019-20 में 34.69 लाख टन, 2020-21 में 41.26 लाख टन, 2021-22 में 39.01 लाख टन व 2022-23 में 41.36 लाख टन हो गया.संसद को यह भी बताया गया कि देशभर में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन इकाइयों (पीडब्लूएमयू) की मात्र 978 इकाइयां है. तमिलनाडु में सर्वाधिक 326, आंध्र प्रदेश में 139, बिहार में 102, उत्तर प्रदेश में 68, पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड में 51-51, केरल में 48, जम्मू-कश्मीर में 43 और तेलंगाना व हिमाचल प्रदेश में 29-29 इकाइयां हैं. जबकि स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के दूसरे चरण में प्रावधान है कि प्रत्येक ब्लॉक में पीडब्लूएमयू स्थापित की जाए. प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 के अंतर्गत प्लास्टिक कचरे के संग्रहण व परिवहन के लिए स्थानीय निकायें और ग्राम पंचायतें अधिकृत हैं, पर उनके पास न तो कर्मचारी हैं, न ही बजट. सो छोटे कस्बे की बात छोड़ें, नगर निगम स्तर पर भी कुछ काम हो नहीं पाया.कुछ वर्ष पहले केरल के कन्नूर जिले को प्लास्टिक कचरे से मुक्त बनाया गया था. सिक्किम के पर्यटन ग्राम लाचेन में भी पर्यटकों को ग्रामीण पानी की बोतल या प्लास्टिक कचरा लाने नहीं देते. प्लास्टिक उत्पादन कच्चे तेल, गैस या कोयले से होता है और कुल प्लास्टिक का करीब 40 फीसदी एक बार इस्तेमाल कर फेंक दिया जाता है. पानी की बोतल, खाद्य उत्पादों के रैपर, पॉलिथीन बैग हमारे पास कुछ घंटों के लिए रहते हैं, फिर सैकड़ों वर्षों तक पर्यावरण में डेरा डाल लेते हैं. ये समुद्र, सूर्य की किरण, हवा और लहरों के संपर्क में आकर एक इंच के पांचवें हिस्से से भी छोटे टुकड़ों में टूट जाते हैं, फिर यही माइक्रोप्लास्टिक कण हमारे फेफड़ों से लेकर मछली, फल-सब्जी में घुल-मिल रहे हैं. महीन टुकड़ों में विखंडित होकर यह ‘प्लास्टिक माइक्रोफाइबर’ बनाता है, जो जल और हवा के जरिये हमें कैंसर जैसी बीमारी दे जाता है. सच यह है कि प्लास्टिक कचरे का संपूर्ण निपटान संभव नहीं हैं, लेकिन समाज इसका प्रचलन कम कर सकता है.पहले स्याही वाली कलम होती थी, फिर ऐसे बाल-पेन आये, जिनकी केवल रिफिल बदलती थी. आज यूज एंड थ्रो कलम का चलन है. तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में बमुश्किल एक कलम खरीदता था. आज हर आदमी साल में औसतन एक दर्जन कलम इस्तेमाल करता है. शेविंग-किट में पहले स्टील या पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे. आज ‘यूज एंड थ्रो’ रेजर ही बाजार में मिलते हैं. कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या लोग अपने बर्तन लेकर डेयरी जाते थे. आज पानी भी बोतलों में मिल रहा है. अनुमानत: पूरे देश में रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फेंकी जाती हैं. डिस्पोजेबल बरतनों, पॉलीथिन की थैलियों का प्रचलन, पैकिंग, अनेक तरीकों से हम कूड़ा बढ़ा रहे हैं. कानूनन बड़ी कंपनियों को अपने उत्पादों की पैकेजिंग में इस्तेमाल प्लास्टिक का त्वरित निपटारा करना होता है, खेल सिर्फ पदक जीतने का जरिया नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव का भी माध्यम बन चुके हैं. उत्तराखंड के खेल विभाग ने इस सोच को साकार करते हुए एक बेहद अनोखी और प्रेरणादायक पहल की है. 38वें राष्ट्रीय खेलों के दौरान और उससे पहले इकट्ठा की गई री-सायकल प्लास्टिक बोतलों से अब ऐसी इको-फ्रेंडली बेंच तैयार की गई हैं, जिन्हें देहरादून के महाराणा प्रताप स्पोर्ट्स कॉलेज में लगाया गया है. इस तरह ‘ग्रीन गेम्स’ की थीम को हकीकत में तब्दील किया गया है. दरअसल उत्तराखंड सरकार ने 38वें नेशनल गेम्स को ‘ग्रीन गेम्स’ की थीम पर आयोजित करने का ऐलान किया था. इसी दिशा में यह बेंच परियोजना न केवल अभिनव है बल्कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति राज्य की गंभीरता को भी दर्शाती है.इन बेंचों का उद्घाटन उत्तराखंड की खेल मंत्री द्वारा किया गया. उन्होंने कहा कि हमने खिलाड़ियों और दर्शकों द्वारा इस्तेमाल की गई बोतलों को इकट्ठा कर उन्हें उपयोगी बेंचों में बदला है. यह सिर्फ एक बेंच नहीं बल्कि यह बताता है कि हर कचरे में भी एक संभावना छिपी होती है.इस पहल के तहत कुल 9 लाख प्लास्टिक बोतलें इकट्ठा की गईं, जिनमें से 6 लाख बोतलें गेम्स से पहले और 3 लाख इवेंट के दौरान जुटाई गईं. इनमें से एक लाख बोतलों को 11 स्थानों से अलग किया गया और एक कंपनी ने इन्हें री-सायकल कर बेंचों का रूप दिया. गौरतलब है कि इस साल 28 जनवरी से 14 फरवरी तक उत्तराखंड में नेशनल गेम्स का आयोजन हुआ था, जिसमें देशभर से आए 9545 खिलाड़ियों में प्रतिभाग किया था. वहीं अन्य स्टॉफ की बात करें तो वे तकरीबन 17 हजार से ज्यादा थे. देहरादून में आयोजित 38वें राष्ट्रीय खेलों के दौरान, इस्तेमाल की गई तीन लाख खाली प्लास्टिक पानी की बोतलों को इकट्ठा करके उन्हें रीसायकल किया गया। इस प्रक्रिया से 30 बेंचें बनाई गईं, जो खेल परिसर में स्थापित की गई हैं। यह पहल ‘ग्रीन गेम्स’ की थीम के तहत की गई, जिसका उद्देश्य खेल आयोजनों को पर्यावरण के प्रति अधिक जिम्मेदार बनाना है।पर शायद ही यह हो रहा है. पानी की छोटी बोतलों पर रोक के लिए प्रधानमंत्री के निर्देश का सही तरीके से पालन हुआ. जाहिर है, प्लास्टिक कचरे के निपटान के लिए समाज को जागरूक होना पड़ेगाहमारे भविष्य की योजनाएं अपने प्रभाव क्षेत्र में विस्तार के साथ सस्टेनेबिलिटी को प्रोत्साहित करने की हैं। हमारी योजना अन्य तरह के कचरों की भी रिसाइक्लिंग के क्षेत्र में जाने की है। इसके अलावा हम नएपर्यावरण अनुकूल उत्पादों को शुरू करने की योजना बना रहे हैं, जिससे कि सदाजीवी विकल्पों को अधिक सुलभ और आकर्षक बनाया जा सके। हम एक ऐसा भविष्य बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जहां सदाजीविता सबसे महत्वपूर्ण हो, और जो दूसरों को एक स्वस्थ और अधिक सदाजीवी दुनिया के निर्माण के लिए प्रेरित कर सके। लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। *लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*

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