डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत का आयुर्वेद के साथ सदियों पुराना नाता है और इसमें हर परेशानी का हल मौजूद है। सतावर अथवा शतावर, ऐस्पेरेगस रेसीमोसस लिलिएसी कुल का एक औषधीय गुणों वाला पादप है। इसे शतावर, शतावरी, सतावरी, सतमूल और सतमूली के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत, श्रीलंका तथा पूरे हिमालयी क्षेत्र में उगता है। इसका पौधा अनेक शाखाओं से युक्त काँटेदार लता के रूप में एक मीटर से दो मीटर तक लम्बा होता है। इसकी जड़ें गुच्छों के रूप में होतीं हैं। वर्तमान समय में इस पौधे पर लुप्त होने का खतरा है। एक और काँटे रहित जाति हिमलाय में 4 से 9 हजार फीट की ऊँचाई तक मिलती है, जिसे एस्पेरेगस फिलिसिनस नाम से जाना जाता है। इसमें न तो आपको ज्यादा दवाइयां लेनी होती हैं और न ही आपको इंजेक्शन लगवाने पडते हैं। आयुर्वेद के पिटारे में एक शानदार औषधि है, जिसका नाम शतावरी है।
ये एक पौधा है जिसकी जड़ों को आयुर्वेद में अमृत कहा जाता है। शतावरी पुरुषों के काफी काम आती है लेकिन महिलाओं के लिए ये किसी वरदान से कम नहीं है। इसका स्वाद कड़वा होता है लेकिन इसके अंदर कई बीमारियों का हल मौजूद रहता है। इसे जादुई औषधी के नाम से भी पुकारा जाता है और ये आपके शरीर को रोगमुक्त बनाने में माहिर है। इसे कई नामों से मांगा जा सकता है जैसे कि शतावरी, सतावरी, सतावर, सतमुली, शटमुली, सरनाई इत्यादि। अमृत कही जाने वाली इस औषधि को विटामिन की खान भी आप कह सकते हैं। इसमें कई ऐसे विटामिन मौजूद है जो काफी कम चीजों में पाया जाता है। इसके साथ साथ विटामिन बी.1, विटामिन.ई भी भारी मात्रा में मौजूद है। इनके साथ साथ फॉलिक एसिड का भी शतावरी चूर्ण को काफी बेहतरीन स्त्रोत माना जाता है।
इसके इस्तेमाल से शरीर में कहीं भी सूजन नहीं आती और इसमें एंटीआक्सीडेंट पाए जाते हैं। इसको खाने से यूरिन की परेशानी भी दूर हो जाती है और फूड पाइप भी बेहतर काम करती है। इसका उपयोग सिद्धा तथा होम्योपैथिक दवाइयों में होता है। यह आकलन किया गया है कि भारत में विभिन्न औषधियों को बनाने के लिए प्रति वर्ष 500 टन सतावर की जड़ों की जरूरत पड़ती है। यह यूरोप एवं पश्चिमी एशिया का देशज है। इसकी खेती २००० वर्ष से भी पहले से की जाती रही है। भारत के ठण्डे प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है। इसकी कंदिल जडें मधुर तथा रसयुक्त होती हैं। यह पादप बहुवर्षी होता है। इसकी जो शाखाएँ निकलतीं हैं वे बाद में पत्तियों का रूप धारण कर लेतीं हैं, इन्हें क्लैडोड कहते हैं। रोपण के 12-14 माह बाद जड़ परिपक्व होने लगती है जो मृदा और मौसम स्थितियों पर निर्भर करती है। एकल पौधे एकल पौधे से ताजी जड़ की लगभग 500 से 600 ग्राण् पैदावार पैदावार पैदावार प्राप्त की जा सकती है। औसतन प्रति हैक्टेयर क्षेत्र से 12,000 से 14,000 किग्रा ताजी जड प्राप्त की जा सकती है जिसे सुखाने के बाद लगभग 1000 से 1200ग्रा शुष्क जड प्राप्त की जा सकती है। ऊधमसिंहनगर की जमीन औषधीय पौध पीली शतावर की खेती के लिए मुफीद साबित हो रही है। तीन सौ रुपये प्रति किलो का अच्छा खासा दाम मिलने के कारण जिले के किसानों की रुचि भी शतावर की पौध तैयार करने को जाग रही है। मगर अफसोस विभाग इच्छुक किसानों को पौध नहीं दे पा रहा है। बजट के अभाव ने सभी इच्छुक किसानों को पौध पाने की राह में दखल डाल दी है। इस बार जिले से 65 किसानों ने विभाग से पौध मांगे थेए लेकिन विभाग केवल 34 किसानों को ही पौध उपलब्ध करा पाया।
गौरतलब है कि पीली शतावर औषधीय गुणों से भरपूर पौधा है। शक्तिवर्धक होने के साथ ही दुधारू पशुओं में दूध की मात्रा बढ़ाने में यह काफी सहायक है। इसका उपयोग च्यवनप्राश सहित तमाम अन्य दवाओं को बनाने में किया जाता है। भेषज विभाग के अनुसार पिछले साल 38 किसानों ने पौध लगाने की डिमांड की थी। जिन्हें भेषज विभाग ने ज्योलीकोट की गिरजा हर्बल नर्सरी से प्रति किसान 2750 पौध निशुल्क उपलब्ध कराए थे। लेकिन इस बार 65 किसानों ने शतावर लगाने की मांग की है। परंतु जिले में विभाग को इस बार साढ़े तीन लाख के बजट की मांग के बावजूद दो लाख का ही बजट मिला। इससे 34 किसानों को ही पौध मिल पाए। विभाग जड़ी बूटी पर्यवेक्षक एसके बाजपेई ने बताया कि 3.50 लाख की मांग संबंधी कार्ययोजना बनाकर शासन को अप्रैल में भेजी गयी थी। लेकिन बजट अगस्त अंतिम सप्ताह तक मिल पाया, वह भी महज दो लाख। इस कारण सभी को पौध नहीं बांटे जा सके। जिला प्रभारी पीएन बरनवाल ने बताया कि चयनित किसानों को अगले वर्ष प्राथमिकता के आधार पर पौध दिए जाएंगे। इसकी खेती करने वाले किसानों को राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड की ओर से 30 प्रतिशत अनुदान दिया जा रहा है। इसमें विटामिन ए, बी6, सी, ई, के, फोलेट, लोहा, कैलशियम, तांबा, प्रोटीन और फाइबर जैसे विटामिन पाए जाते हैं।
शतावरी के उपयोग से बांझपन और हारमोंस इन बैलेंस बन ठीक रखता है। महत्वपूर्ण रासायनिक घटक पाए जाते हैं वे हैं ऐस्मेरेगेमीन ए नामक पॉलिसाइक्लिक एल्कालॉइड, स्टेराइडल सैपोनिन, शैटेवैरोसाइड ए, शैटेवैरोसाइड बी, फिलियास्पैरोसाइड सी और आइसोफ्लेवोंस। सतावर का इस्तेमाल दर्द कम करने, महिलाओं में स्तन्य दूध की मात्रा बढ़ाने, मूत्र विसर्जनं के समय होने वाली जलन को कम करने और कामोत्तेजक के रूप में किया जाता है। इसकी जड़ तंत्रिका प्रणाली और पाचन तंत्र की बीमारियों के इलाज, ट्यूमर, गले के संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और कमजोरी में फायदेमंद होती है। यह पौधा कम भूख लगने व अनिद्रा की बीमारी में भी फायदेमंद है। अतिसक्रिय बच्चों और ऐसे लोगों को जिनका वजन कम है, उन्हें भी ऐस्पैरेगस से फायदा होता है। इसे महिलाओं के लिए एक बढ़िया टॉनिक माना जाता है। इसका इस्तेमाल कामोत्तेजना की कमी और पुरुषों व महिलाओं में बांझपन को दूर करने और रजोनिवृत्ति के लक्षणों के इलाज में भी होता है। नाजिम सतावर की खेती का खर्च बताते हुए कहते हैं, एक एकड़ में फसल तैयार होने में करीब 80 हजार से 1 लाख रुपए का खर्च आता है। यह फसल 18 महीने में तैयार हो जाती है। इसको निकालने का समय फरवरी से अप्रैल का है। अगर इन महीनों में नहीं निकाल पाते तो अगले साल तक का इंतजार करना होगा। नाजिम बताते हैं, अगर मार्केट में रेट सही है तो एक एकड़ में दो लाख से तीन लाख तक का मुनाफा हो जाता है। अगर 20 हजार से 30 हजार रुपए कुंतल का रेट है। सतावर की खेती इसलिए भी फायदे की खेती है कि इसमें कीट पतंग नहीं लगते। वहीं, कांटेदार पौधे होने की वजह से जानवर भी इसे नहीं खाते हैं। नाजिम बताते हैं, एक खास बात है कि इस फसल में कोई बीमारी नहीं लगती। हां अगर क्षेत्र में नीलगाय या छुट्टा पशु हैं तो शुरुआत के दो तीन महीने इसे बचाना होता है, क्योंकि इसमें कांटे नहीं होते। बाद में इसमें कांटे आ जाते हैं तो जानवर भी इसे नहीं खाते। एक आकलन के मुताबिक, देश में हर्बल उत्पादों का बाजार करीब 50,000 करोड़ रुपये का है, जिसमें सालाना 15 फीसदी की दर से वृद्धि हो रही है। जड़ी.बूटी और सुगंधित पौधों के लिए प्रति एकड़ बुआई का रकबा अभी भी इसके मुकाबले काफी कम है। हालांकि यह सालाना 10 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में कुल 1,058.1 लाख हेक्टेयर में फसलों की खेती होती है। इनमें सिर्फ 6.34 लाख हेक्टेयर में जड़ी.बूटी और सुगंधित पौधे लगाए जाते हैं। पतंजलि के सीईओ आचार्य बालकृष्ण का कहना है कि कंपनी किसानों को 40,000 एकड़ जमीन पर जड़ी.बूटियों की खेती करने में मदद कर रही है। कुट्टी, शतावरी, और चिरायत कमाई में सबसे ऊपर हैं। उनका कहना है कि भारत में इस व्यवसाय को बढ़ाने की काफी संभावना है, क्योंकि चीन के बाद भारत ही सबसे ज्यादा इन फसलों का उत्पादन करता है। इनकी घरेलू और वैश्विक मांग काफी ज्यादा है। नैचुरल रेमेडीज के निदेशक अमित अग्रवाल कहते हैं, अतीश कुठ, कुट्टी जैसी जड़ी बूटी की सप्लाई कम होने से काफी अच्चे दामों पर बिक जाती है वह कहते हैं कि एक किसान जड़ी बूटी बेचकर औसतन 60ए000 रुपये प्रति एकड़ कमा सकता है। बशर्ते वहां उन उत्पादों की मांग हो। नैचुरल रेमेडीज करीब 1,043 एकड़ भूमि पर जड़ी बूटियों से जुड़ी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कर रही है। नई टिहरी। जंगली लता के रूप में पहचानी जाने वाली शतावर औषधीय गुणों से भरपूर है। शतावर के इन मूल्यवर्धक गुणों का पता लगने पर पहाड़ों में ग्रामीणों ने इसकी खेती करना शुरू कर दिया। विभिन्न रोगों में असरदार यह लता अब मजबूत आर्थिकी के रूप में सहायक सिद्ध हो रही है। इस कारण ग्रामीणों का रुझान शतावर की खेती की ओर बढ़ा है। साथ ही उद्यान विभाग की ओर से शतावर की खेती का प्रशिक्षण भी ग्रामीणों को दिया जाने लगा है। पांच हजार फुट की ऊंचाई पर पाया जाने वाला शतावर कृषिकरण के रूप में अपनी पहचान बना रहा है। अब तक स्थानीय निवासी इसे जंगली लता के रूप में ही पहचानते थे। पहाड़ों में झींकणी नाम से चर्चित शतावर की खेती करना भी आसान है। कृषिकरण होने से शतावर का आर्थिक महत्व भी बढ़ गया है। पहले लोगों को इसके महत्व का पता नहीं था। अब जब काश्तकार जान गये हैं, तो वे इसकी खेती करने का मन बना रहे हैं और जिला भेषज संघ के माध्यम से उनको प्रशिक्षण आदि सुविधाएं दी जा रही है। औषधीय पौधों की दहलीज को अब पार कर सतावर ने औषधीय फसल का दर्जा प्राप्त कर लिया है। औषधीय फसलों में सतावर अद्भुत गुणों वाली एक फसल है जिसे बिना सिंचाई के उगाया जाता है क्योंकि इसकी जल की आवश्यकता प्रकृति प्रदत्त जल से हो जाती है। प्रकृति ने इस फसल की पत्तियों को सुईनुमा बनाया है तथा पौधों के ऊपर बड़े.बड़े कांटें बनाए हैं जिससे जल कम उड़ता है तथा भूमि से प्राप्त जल से ही पौधों का काम चल जाता है। अतः सतावर की कृषि जल संरक्षण का ग्रामीण अभियान है