डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
मध्य हिमालय के उत्तराखंड में बसा पौराणिक मानसखंड कुमाऊँ मंडल तथा केदारखंड गढ़वाल मंडल जो अब उत्तराखंड के नाम से जाना जाता है, अपनी प्राकृतिक वन सम्पदा के लिये देश.विदेश में सदियों से प्रसिद्ध रहा है। रमणीक भूभाग में पाई जाने वाली हर वनस्पति का मानव के लिये विशेष महत्व एवं उपयोग है। इतिहास गवाह है कि यहां कि समस्त वनस्पति जड़ी.बूटियां प्राचीन काल से ही मानव तथा जीव.जंतुओं की सेवा करती आ रही है। सिंसुणा, बिच्छू घास को संस्कृत में वृश्चिक, हिन्दी में बिच्छू घास, बिच्छू पान एवं बिच्छू बूटी कहते हैं। सिंसुणा को गढ़वाल में कनाली.झिरकंडाली, अंग्रेजी में नीटिल प्लांट तथा लेटिन में अर्टिका कहते हैं। उत्तराखंड में बटकुल अर्टकिसी के अंतर्गत बिच्छू की कुल तीन प्रजातियां पायी जाती हैं अर्टिका पारविफिलौरा। यह 2000 फीट से 12000 फीट तक के भूभाग में पायी जाती है। इसका पौधा चार से छः फुट तक का होता है। इसमें पुष्प फरवरी से जुलाय तक खिलते हैं।
अर्टिका डायोईका यह 6000 फीट से 10000 फीट तक के भूभाग में बंजर जगह में पाया जाता है। इसकी औसत ऊँचाई तीन से छः फुट तक होती है, इसमें पुष्प जुलाय.अगस्त में खिलते हैं। अर्टिका हायपरशेरिया 15000 से 17000 फीट के भूभाग पर तिब्बत से लगी सीमा में पाया जाता है। इसमें फूल अगस्त में खिलते हैं। इसी कुल की एक प्रजाति फ्रांसीसी वनस्पति शास्त्री के नाम पर गिरारडियाना.हिटरोफायला दूसरी तरह की बिच्छू घास है। यह 4000 फीट से 9000 फीट तक के नमी वाले भूभाग में छायादार जगहों में बहुतायत से पायी जाती है। इसके पौधे चार से छः फीट के होते हैं। इनमें पुष्प जुलाई.अगस्त में खिलते हैं। इसको हिन्दी में अलबिछुआ चीचड़, नेपाली में डाली, मराठी में मांसी खजानी व पंजाबी में अजल.धवल कहते हैं। इसके पत्ते सिर दर्द में और इसका क्वाथ बुखार में दिया जाता है। जब उत्तराखंड में ग्रीष्मकाल में चारे की कमी होती है तो उत्तराखंड की कर्मठ महिला अपने दुधारु पशुओं को बिच्छू घास खिलाती हैं। इससे दुधारु पशु ज्यादा दूध देते हैं। सिसुणा का साग पौष्टिक तो है ही, औषधि भी है। बात वही है, सिसुणा गरीबों का ही भोजन माना जाता रहा। इन जड़ी बूटीयों के बेमिसाल गुणों तथा उनके औषधीय प्रयोगों के कारण देश दुनिया का ध्यान इन पौधों के ऊपर एकाएक आकर्षित हुआ। इन्हीं में से एक है उत्तराखंड के पहाड़ों में अत्यधिक मात्रा में खुद.ब.खुद उगने वाला पौधा बिच्छू घास यानी कि बिच्छू के डंक जैसी पीड़ा देने वाला पौधा। इसको अंग्रेजी में “Stinging Nettle” कहते हैं तथा इसका बॉटनिकल नाम “Urtica Dioica” है। बिच्छू धास को कुमाऊनी भाषा में सिसूण या सिन्न या सिसौण कहा जाता है। वही गढ़वाली भाषा में इसे कंडाली कहा जाता है। यह सिर्फ पहाड़ी इलाकों में ही उगता है। मैदानी क्षेत्रों में यह पौधा नहीं पाया जाता हैं। पौधा किसी को गलती से लग जाए या गलती से इस पौधे को कोई छू भी लेता है। तो इसकी पीड़ा बिच्छू के डंक के काटने जैसी ही होती है तथा इससे असहनीय जलन होने लगती है। शरीर में छोटे.छोटे लाल रंग के दाने होने लगते हैं। तथा शरीर के उस हिस्से में सूजन भी हो जाती है जो कम्बल से रगड़ने तथा तेल की हल्की मालिश के बाद ह़ी खत्म होती हैं। गहरे हरे रंग के इस पौधे में छोटे.छोटे कांटे लगे रहते हैं। इसको छूने से जितनी अधिक पीड़ा होती है उससे अधिक उससे बनने वाली चाय उतनी ही अमृततुल्य है। इसमें Acetylcholine ,Histamine ,5 -HT ,Formic Acid अत्यधिक मात्र में पाया जाता हैं। जो छूने पर जलन का कारण बनते हैं। विटामिन जैसे A,C, आयरन, कैलशियम, मैग्निज व पोटेशियम अत्यधिक मात्रा मात्रा में पाया जाता है। विटामिन, मिनरल के अलावा कार्बोहाइड्रेट व एनर्जी तत्व भी पाये जाते हैं। कोलेस्ट्रॉल सबसे कम होता है तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। इसमें आयरन सबसे अधिक मात्रा में पाया जाता है यह भारत के अलावा यूरोप, एशिया के कुछ और हिस्सों में, उत्तरी अमेरिका, उत्तरी अफ्रीका में पाया जाता है। अमेरिका में इसकी खेती की जाती है और वहां की सरकार किसानों को बिच्छू घास उगाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए धन उपलब्ध कराती है। यहां पर बिच्छू घास हल्के लाल रंग का होता है जिसकी पत्तियां थोड़ी गोलाई ली हुई होती है। यह उत्तराखंड में उगने वाले कंडारी से बिल्कुल अलग होता है इसे यहां पर श्अल्दश् कहते हैं। बिच्छू घास से बनी चाय को यूरोप में विटामिन व खनिजों का एनर्जी ड्रिंक माना जाता है। क्योंकि इसमें कई सारे मिनरल्स, कार्बोहाएड्रेट, आयरन और विटामिन पाये जाते है इसलिए स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक लाभप्रद होता है। पहाड़ से बाहर के लोग इसे बिच्छू बूटी के रूप में जानते हैं और पहाड़ में ही कई जगह यह कंडाली कहलाता है। वनस्पति विज्ञानी अपनी भाषा में इसे अर्टिका पर्विफ्लोरा कहते हें।
पहाड़ में इसे बच्चा.बच्चा जानता है क्योंकि बचपन में इसी डंक मारने वाली बिच्छू बूटी की झपक से डरा कर बच्चों को शैतानी न करने की सीख दी जाती रही है। फेसबुक पर पिछले दिनों किसी मित्र ने इसका क्या खूब नया नामकरण किया है देवभूमि बाल सुधारक बूटी! आज उत्तराखंड के हमारे पहाड़ों में भले ही इसकी कोई कदर न हो, सिक्किम के पर्यटन विभाग की किसी भी पुस्तिका को देख लीजिए। उसमें लिखा मिलेगा. सिक्किम आएं तो यहां का प्रसिद्ध नेटल सूप जरूर चखें। मैंने चखा। पता लगा वह तो सिसुणा का साग है! प्रकृति ने भी क्या जोड़ी मिलाई है. पहाड़ों में जहां मंडुवा होता है वहां सिसुणा भी खूब उगता है। लोग चिमटे से सिसुणा के नरम सिरे तोड़ कर उन्हें धूप में फैला देते हैं। धूप में सूख कर वे मुरझा जाते हैं और उनका थोड़ा पानी भी सूख जाता है। फिर पानी में उबालने के बाद पीस कर साग तैयार कर लेते हैं। इसके तने और पत्तियों पर तीखे, नुकीले रोए या कांटे होते हैं, जो शरीर से छू जाने पर सुई की तरह चुभ जाते हैं। उनमें फार्मिक एसिड होता है।
डंक मारने वाला यह अपनी तरह का अनोखा पौधा आखिर आया कहां से होगा पता लगा, यह एशिया, यूरोप, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका का मूल निवासी पौधा है। यानी, हमारा सिसुणा हो सकता है यहीं पैदा हुआ हो। गाय.भैंसें भी धूप दिखा कर मुरझाया हुआ सिसुणा चाव से खा लेती हैं। मनुष्य और गाय.भैंसों के अलावा कोई और भी है जिसे यह बेहद पसंद है। लप.लप करने वाले लार्वा यानी गीजू! कहते हैं महान तिब्बती धर्मगुरु मिलारेपा ने वर्षों लंबी समाधि लगाई थी जिसमें उन्होंने केवल सिसुणा खाया। मगर हमें पता ही नहीं है कि यह कितना पौष्टिक है। दूसरे देशों की ओर देखें तो मुंह में अंगुली दबा लेंगे। लोग वहां इसका न केवल सूप बना रहे हैं बल्कि इसकी नरम पत्तियों का सलाद खा रहे हैं, पुडिंग बना रहे हैं, पत्तियों के नाना प्रकार के व्यंजन बना रहे हैं, उन्हें सुखा कर नेटल टी पी रहे हैं। वे इसका कार्डियल पेय और हल्की मदिरा यानी नेटल बीयर बना रहे हैं। इतना ही नहीं इससे कई तरह की दवाइयां बना रहे हैं और इसके रेशे से कपड़े तैयार कर रहे हैं। यह माल न्यूट्रिशन यानी कुपोषण, एनीमिया, और सूखा रोग से बचा सकता है क्योंकि इसमें कई जरूरी विटामिन और खनिज पाए जाते हैं। सिसुणा में विटामिन ए और सी तो पर्याप्त मात्रा में पाए ही जाते हैं, विटामिन डी भी पाया जाता है जो पौधों में दुर्लभ है। इसके अलावा इसमें आयरन लौह, पोटैशियम, मैग्नीशियम, कैल्सियम आदि खनिज भी पाए जाते हैं। अब बताइए, घर के आसपास बिना उगाए उगे सिसुणे में इतने पोषक तत्व और लोग तंदुरूस्ती की दवाइयां दुकानों में ढूंढते फिरते हैं। अरे, पालक की तरह उबालिए सिसुणा और सूप या साग बना कर खाते रहिए। कहते हैं, इसकी चाय पेट के लिए बड़ी मुफीद है, पेचिस में भी आराम पहुंचाती है और गुर्दों के लिए भी फायदेमंद है। इसका रस पीने पर एक.एक चम्मच रस शरीर में से यूरिक एसिड को घटाता जाता है। इसे चर्म रोगों, जोड़ों के दर्द, गाउट और गठिया में लाभकारी पाया जाता है। सिसुणा के झपाके मार कर लकवा पड़े अंगों को भी सचेत किया गया है। कहते हैं, इससे दर्द और सूजन भी घटती है। इसकी जड़ प्रोस्टेट ग्रंथि के बढ़ने की शुरुआती अवस्था में लाभकारी पाई गई है। सिसुणा बार.बार छींक आने की समस्या में भी फायदा पहुंचाता है। यह जोड़ों के दर्द, खिंचाव, पेशियों की पीड़ा और कीड़ों के काटने की दवा के रूप में मलहम बनाने के भी काम आता है।
और हां, आपने हेंस एंडरसन की परी कथा द वाइल्ड स्वांस, पढ़ी होगी। उसमें राजकुमारी ने हंस बन गए अपने ग्यारह राजकुमार भाइयों के लिए सिसुणे के रेशों से ही तो कमीजें बुनी! यह कहानी 2 अक्टूबर 1838 को छपी थी। यानीए तब भी लोग सिसुणे के कपड़ों के बारे में जानते थे! उत्तराखंड के पहाड़ी गढवाल व कुमाऊ भू.भाग एक से एक अनोखी व अनमोल जड़ी बूटियों का भंडार है। कुछ जड़ी बूटियों तो यहां पर ऐसी भी पायी जाती है जो दुनिया में शायद ह़ी किसी अन्य जगह में पाई जाती हों। और अगर कहीं पर पाई भी जाती है तो बहुत कम मात्रा में या दूसरे रंग रूप में।लेकिन इन मध्य हिमालयी क्षेत्रों में जड़ी बूटी बड़ी मात्रा में खुद.ब.खुद उग जाती है। और वहां के स्थानीय निवासी उनका प्रयोग रोगों को दूर भगाने में घरेलू उपाय के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं। सरकार भी किसानों को बिच्छू घास की खेती करने के लिए प्रोत्साहित करने की योजना बना रही है। बिच्छू घास के तने के रेशे फाइबर निकाल कर उसका प्रयोग कई वस्तुओं को बनाने के लिए किया जा रहा है। यानी कि इस पूरे पौधे के हर हिस्से का प्रयोग किसी न किसी रूप में किया जा रहा है। कुछ दवाई बनाने में, कुछ चाय पत्ती बनाने में तथा कुछ कपड़े व बैग बनाने में। वर्तमान समय में इससे कई वस्तुओं का निर्माण किया जा रहा है। जैसे चप्पल, शाॅल, जैकेट, स्टाल, कंबल, बैग व चायपत्ती। इससे पत्तीयों से बनने वाली चायपतियों की तो बाजार में बहुत मांग है। और करीबन 2,500 से 3,000 रु. प्रति किलो तक इसकी चायपत्ती आराम से बाजार में बिकती है। इसे अमीरों की चाय माना जा रहा हैं। ये ठण्ड के मौसम में शरीर को गर्म रखने में मदद करता हैं। भारत के कई शहरों जैसे दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद, कोलकाता, मुंबई तथा गुजरात के अन्य हिस्सों व विदेशों में भी इसकी मांग बहुत अत्यधिक है।
बिच्छू घास से बने उत्पादों की विदेशों भारी मांग इससे बनने वाले चप्पल, शाॅल, जैकेट, स्टाल, कंबल, बैग बहुत ही ऊंचे दामों में बिकती हैं। उत्तराखंड में बिच्छू घास से बनने वाली चप्पलों की भारत के कई शहरों के अलावा विदेशों में भी बहुत अधिक मांग है।फ़्रांस, अमेरिका, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड में इनकी जबरदस्त मांग है। भीमल स्लीपर्स को फ्रांस से तकरीबन 10,000 जोड़ी स्लीपर्स के आर्डर मिले हैं। लेकिन लोगों को जानकारी के अभाव के कारण व उत्पादन कम होने से आपूर्ति पूरी नहीं हो पा रही है। इसीलिए फिलहाल 4,000 जोड़ी चप्पल की मांग को ही पूरा किया गया है। हालाँकि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में ऐसी कई संस्थाएं मौजूद हैं जो बिच्छू घास से बनने वाले उत्पादों को तैयार कर रही हैं और देश दुनिया का परिचय बिच्छू घास से बनने वाले उत्पादों से करा रही हैं। जैसे चमोली जिले में मंगरौली गांव में रूलर इंडिया क्राफ्ट संस्था, उत्तरकाशी में भीममल्ला में नंन्दा उत्थान समिति, अल्मोड़ा शहर के आसपास की कई संस्थाएं इसी क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। पंचचूली शाॅल जो बिच्छू घास से ही बनती है, बनाने वाली एक एनजीओ इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं। जो उत्तराखंड की विरासत को समेटे हुए हैं। अब बिच्छू घास से बनी हुई चीजों को ऑनलाइन बेचने की भी तैयारी चल रही है। फिलहाल इसकी बाताचीज अमेजॉन से चल रही है।
एक ओर जहाँ बिच्छू घास से बनी औषधि लोगों को रोगों से बिना कोई नुकसान पहुचाये ठीक होने में मदद कर रही है कांटेदार होने की वजह से इसे जंगली जानवर भी नुकसान नहीं पहुंचाते है। जानवरों को चारे के रूप में दिया जाता है जिससे दुधारू जानवर अत्यधिक मात्रा में दूध देना शुरू कर देते हैं। कभी कभी गांव के ही बड़े बुजुर्ग गठिया, बात, जोड़ों का दर्द, पित्त से संबंधित बीमारियों को दूर करने के लिए इसका प्रयोग करते हैं। हैं। इसको साग सब्जी बनाने के लिए भी प्रयोग किया जाता है।स्थानीय लोग इसकी सब्जी बनाकर खाते हैं।इसका स्वाद लगभग पालक के स्वाद जैसा ही होता है और तासीर गर्म होती है। इसीलिये इसको चावल के साथ खाया जाता है। इसी लिए इसे हर्बल डिश भी कहा जाता हैं। वर्तमान समय में इससे बनी चाय का अत्यधिक प्रयोग किया जाने लगा है। यह अमीरों की पसंदीदा चाय बनती जा रही है इसे हर्बल टी का नाम भी दिया गया है। इसका उपयोग घुटनों के दर्द जोड़ों का दर्द, शरीर में कहीं भी मोज आ जाइएएपित्त से संबंधित बीमारी को दूर करने में किया जाता है। यह मलेरिया के बुखार में पेरासिटामोल से कई गुना अधिक कारगर हैं बिच्छू घास के बीजों के सेवन से पेट साफ होता है। इसका प्रयोग आजकल कई सारी हर्बल दवाइयां बनाने के लिए किया जा रहा है।
बिच्छू घास की खूबियाँ लोगों को पता लगनी शुरू हुई तो इसका प्रयोग औषधि रूप के अलावा अन्य कामों के लिए भी किया जाने लगा हैं। अचानक ह़ी बिच्छू घास का महत्व बहुत अत्यधिक बढ़ गया है। मलेरिया के बुखार में पेरासिटामोल की जगह बिच्छू धास से बनी हुई दवाई का प्रयोग करने हेतु शोध जारी हैं। हो सकता है कि भविष्य में पेरासिटामोल की जगह मलेरिया के बुखार को दूर भगाने के लिए हम बिच्छू घास से बनी दवा का प्रयोग करें वही दूसरी ओर यह कई सारे युवाओं के रोजगार का साधन भी बन रहा हैं। अगर राज्य की सरकार इस तरफ थोडा भी ध्यान दे और बेरोजगार युवाओं को उचित प्रशिक्षण देने की व्यवस्था करे तो कई हाथों को रोजगार तो मिलेगा ह़ी साथ ह़ी साथ राज्य सरकार के राजस्व में भी बढोतरी होगी और राज्य से पलायन भी कुछ हद तक रुक जायेगा।
उत्तराखंड में सिंसूणे.कनाली से अनेक कुटीर उद्योग जगह.जगह पनपाये जा सकते हैं। इस ओर योजनाकार को क्षेत्र में युवकों के पलायन एवं बेरोजगारी भगाने हेतु पहल करनी चाहियेण् उद्योग जो पनपाये जा सकते हैं। आयुर्वेद, युनानी, ऐलोपैथी तथा होम्योपैथी दवा बनाने के छोटे.छोटे कारखाने आसानी से खोले जा सकते हैं। कनाली से रस्सी, थैले, पिट्ठू तथा मोटे वस्त्र के गृह उद्योग भी चलाये जा सकते हैं। विदेशों में इसके रेशम से कई किस्म के कागज बनाये जाते हैं। कागज उद्योग से जुड़ी संस्थाओं को इस ओर पहल करनी होगी। पर सरकार को थोड़ी सी कोशिश तो जरुर करनी पडेगी।