डोईवाला, (प्रियांशु सक्सेना)। वर्ष 1863 में कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली कायस्थ परिवार में जन्मे स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धान्तों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया।
12 जनवरी सन् 1863 में कलकत्ता में जन्मे स्वामी विवेकानन्द का वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी, जो आज भी अपना काम कर रहा है। वह रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवों मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व हैं।
इसलिए मानव जाति अथेअथ जो मनुष्य दूसरे जरूरतमन्दो की मदद करता है या सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। उनके गुरु रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की और ब्रिटिश भारत में तत्कालीन स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया।
स्वामी विवेकानंद ने 24 वर्ष की आयु में अपने परिवार को छोड़ दिया और एक साधु बन गए। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं और वह अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत करती थी। नरेन्द्रनाथ के पिता और उनकी माँ के धार्मिक, प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में सहायता की।
नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गए। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी।
उनके प्रारम्भिक विश्वासों को ब्रह्म समाज ने जो एक निराकार ईश्वर में विश्वास और मूर्ति पूजा का प्रतिवाद करता था, ने प्रभावित किया और सुव्यवस्थित, युक्तिसंगत, अद्वैतवादी अवधारणाओं, धर्मशास्त्र, वेदांत और उपनिषदों के एक चयनात्मक और आधुनिक ढंग से अध्यन पर प्रोत्साहित किया।
स्वामी सैद्धान्तिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है, इसलिए शिक्षा में उन तत्वों का होना आवश्यक है, जो उसके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हो। विवेकानन्द को युवकों से बड़ी आशाएँ थीं। आज के युवकों के लिये इस ओजस्वी संन्यासी का जीवन एक आदर्श है। भारत में विवेकानन्द को एक देशभक्त सन्यासी के रूप में माना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
हर वर्ष 12 जनवरी को देशभर में राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है। देश के युवाओं को समर्पित इस दिन को मनाने का एक खास मकसद होता है। देश का भविष्य कहे जाने वाले युवाओं के लिए स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन को युवा दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत साल 1984 में की गई थी।
उस समय की सरकार का ऐसा मानना था कि स्वामी विवेकानंद के विचार, आदर्श और उनके काम करने का तरीका भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा का एक स्रोत हो सकते हैं। ऐसे में इस बात को ध्यान में रखते हुए 12 जनवरी, 1984 से स्वामी विवेकानंद की जयंती को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत की गई थी।
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*युवा दिवस का उद्देश्य*
अपने विचारों और आर्दशों के लिए मशहूर स्वामी विवेकानंद धर्म, दर्शन, इतिहास, कला, सामाजिक विज्ञान, साहित्य सभी के ज्ञाता थे। इतना ही नहीं वह भारतीय संगीत के ज्ञानी होने के साथ ही एक बेहद अच्छे खिलाड़ी भी थे। उनकी इन्हीं खूबियों की वजह से उनका व्यक्तित्व सभी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत रहा है। उन्होंने कई मौकों पर युवाओं के लिए अपने अनमोल विचार भी साझा किए। ऐसे में इस दिवस को इस मसकद से मनाया जाता है कि युवा इस खास मौके पर यह सोच सकें कि वह देश और समाज के लिए क्या कर सकते हैं। साथ ही यह दिन उन्हें यह सोचने का भी अवसर देता है कि वह देश के विकास और प्रगति में कैसे अपना योगदान दे सकते हैं।
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*”भारत की ओर से अमेरिका में किया था सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व”*
सन् 1893 में अमेरिका स्थित शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद ने भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। उन्हें 2 मिनट का समय दिया गया था किन्तु उन्होंने प्रमुख रूप से उनके भाषण का आरम्भ “मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों” के साथ करने के लिए जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। विवेकानन्द बड़े स्वप्नदृष्टा थे, उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्द ने दिया उनसे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके।
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स्वामी विवेकानन्द मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है।स्वामी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए तैयार करना चाहते हैं। लौकिक दृष्टि से शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि ‘हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने।’ पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि ‘शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।’
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उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए”
*~स्वामी विवेकानंद*