शंकर सिंह भाटिया
क्या उत्तराखंड के नेता दिल्ली के हाई कमान के कठपुतली हैं? क्या उत्तराखंड के नेता दिल्ली के शतरंज के खिलाड़ियों की विसात के प्यादे हैं? इन सवालों के उत्तर हां है। यदि कोई इनके उत्तर ना में देता है तो समझ लीजिए वह भी दिल्ली की कठपुतली ही होगा। दिल्ली हाई कमान के इस अंकुश में उत्तराखंड में कोई विजनरी नेता पैदा हो सकता है, जो उत्तराखंड आंदोलनकारियों की भावना का राज्य बनाने की तरफ बढ़ सकता हो?
उत्तराखंड के ताजे घटनाक्रम पर एक नजर डालते हैं। 1 मार्च 2021 से ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में विधानसभा सत्र चल रहा था, अभी बजट पर चर्चा हो ही रही थी, अभी बजट पारित किया जाना था और राज्यपाल के अभिभाषण पर चर्चा कर धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाना था। इस बीच मुख्यमंत्री ने घोषणा कर डाली कि गैरसैंण राज्य की तीसरी कमिश्नरी होगी, जिसमें दो जिले कुमाउूं तथा दो जिले गढ़वाल के शामिल होंगे। अभी इस घोषणा के एक दिन ही बीता था कि भाजपा के हाई कमान का डंडा चल गया। भाजपा प्रदेश प्रभारी दुष्यंत गौतम और पर्यवेक्षक पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह देहरादून पहुंच गए। अभी बजट पारित भी नहीं हुआ था कि भाजपा विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री एक-एक कर देहरादून बुला लिए गए। किसी तरह बजट पारित करने की औपचारिकता पूरी कर आनन-फानन में सभी देहरादून पहुंच गए। एक उबाल के बाद दो दिन सामान्य से दिखते रहे। अचानक जब पर्यवेक्षक रमन सिंह ने अपनी रिपोर्ट हाई कमान को सौंपी, उथल-पुथल फैल गई। मुख्यमंत्री को दिल्ली तलब किया गया और हाई कमान का फैसला सुना दिया गया। अगले दिन देहरादून आकर मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा।
ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ था। यह कठपुतली का नाच सिर्फ भाजपा हाई कमान ने ही नहीं दिखाया था, उत्तराखंड में सत्ता सुख भोगने वाली दूसरी पार्टी कांग्रेस भी कठपुतली नाच दिखाने में भाजपा से पीछे नहीं रही।
एक बार पीछे मुड़कर देखते हैं। राज्य गठन के साथ ही किस तरह भाजपा-कांग्रेस ने उत्तराखंड में सिर्फ कठपुतली नाच दिखाया है या फिर उत्तराखंड के नेताओं को शतरंज की विसात के प्यादे माना है, इसका दो दशक का पूरा इतिहास हमारे सामने है। 9 नवंबर 2000 को राज्य गठन हुआ तो उत्तर प्रदेश विधानसभा तथा विधान परिषद के उत्तराखंड कोटे के 23 सदस्यों को उत्तराखंड अंतरिम विधानसभा के सदस्य माना गया और एक अंतरिम सरकार का गठन किया गया। इस अंतरिम सरकार में भाजपा बहुमत में थी। भाजपा हाई कमान ने सबको दरकिनार कर हरियाणा मूल के नित्यानंद स्वामी को उत्तराखंड का पहला मुख्यमंत्री बना दिया। इस सरकार को चले अभी एक साल भी नहीं हुआ था कि दिल्ली में बैठे कठपुतली के खिलाड़ियों को आभास हुआ कि गलती हो गई है, स्वामी को एक साल का समय भी पूरा नहीं करने दिया गया और भगत सिंह कोश्यारी को गद्दी सौंप दी।
सन् 2002 में उत्तराखंड के पहले चुनाव हुए। भाजपा को गुमान था कि राज्य उन्होंने बनाया है, सरकार उन्हीं की बनेगी। लेकिन जनता ने कांग्रेस को बहुमत दिया। कांग्रेस को उत्तराखंड में एकजुट करने में हरीश रावत की भूमिका से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। लेकिन कांग्रेस के कठपुतलीबाज हाई कमान ने उत्तराखंड के सबसे बड़े विरोधी नारायण दत्त तिवारी को सत्ता की कमान सौंप दी।
सन् 2007 के राज्य के दूसरे चुनाव में भाजपा बहुमत के करीब पहुंच गई। जब नेता चुनने के लिए विधायक दल की बैठक हुई, भाजपा के 35 विधायकों में से 28 का समर्थन भगत सिंह कोश्यारी के साथ था, लेकिन दिल्ली के कठपुतली नाच के शौकीनों ने भुवन चंद्र खंडूड़ी को सत्ता की डोर सौंप दी। 2009 में जब संसदीय चुनाव में भाजपा पांचों संसदीय सीटें हारी विरोधियों को खिलाफत का मौका मिल गया और दिल्ली के खिलाड़ियों को फिर से कठपुतली का खेल खेलने का मौका मिल गया। रमेश पोखरियाल निशंक को सत्ता की डोर सौंप दी गई। 2012 के चुनाव निकट आने वाले थे कि फिर शतरंज की विसात में खड़े एक प्यादे की तरह निशंक को बलि का बकरा बनाकर खंडूड़ी को सत्ता सौंप दी गई। 2012 के चुनाव में सत्ता कांग्रेस को मिल गई। इस बार भी हरीश रावत की इस जीत में सबसे बड़ी भूमिका रही, लेकिन कठपुतली के खिलाड़ियों ने सत्ता विजय बहुगुणा को सौंप दी। 2013 की आपदा विजय बहुगुणा पर भारी पड़ी, फिर शतरंज के खिलाड़ियों की खेल भावना जागृत हो उठी और सत्ता की डोर हरीश रावत को सौंप दी गई।
सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड की जनता ने भाजपा को विशाल बहुमत के साथ सत्ता सौंपी। 70 विधानसभा सीटों वाले सदन में भाजपा को 57 सीटें मिली। इससे पहले के तीन चुनावों में सत्ता पाने वाले दल को बहुत ही मामूली बहुमत से सत्ता मिली थी। पहली बार किसी दल को राज्य में इतना प्रचंड बहुमत हासिल हुआ था। कांटे का बहुमत होने की वजह से अब तक सत्ता के साथ जोर आजमाईश का खेल खेला जाता रहा। इस दौर में विधायकों की ब्लैकमेलिंग भी खूब चलती रही। लेकिन जब सत्ता पाने वाले दल को इतना प्रचंड बहुमत हासिल हुआ तो सरकार की स्थिरता की इसे गारंटी माना जाने लगा। भविष्यवाणियां की जाने लगी कि नारायण दत्त तिवारी के बाद त्रिवेंद्र रावत दूसरे मुख्यमंत्री होंगे, जो पांच साल का कार्यकाल पूरा करेंगे। लेकिन त्रिवेंद्र रावत को चार साल का कार्यकाल भी पूरा नहीं करने दिया गया। अभी उनकी सरकार के कार्यकाल को चार साल पूरे होने में नौ दिन बाकी थे, कि उनसे इस्तीफा ले लिया गया।
मतलब यह कि उत्तराखंड में दिल्ली के खिलाड़ियों का कठपुतली का खेल बदस्तूर जारी है। जब भी उन्हें मौका मिलता है, उन्हें कठपुतली का खेल खेलने का मन करता है, जब भी उन्हें शतरंज की विसात पर खड़े निरीह प्यादे को क्रूर तरीके से उखाड़ फैंकने का मन करता है, वह पार्टी अनुशासन के नाम पर यह करतब कर दिखा डालते हैं। इस पूरे खेल का शिकार बने प्यादे चू भी नहीं करते, बल्कि जाते-जाते इन खिलाड़ियों का धन्यवाद करते जाते हैं। जो इन खिलंदड़ों के करतबों को सिर झुकाकर स्वीकार करते हैं, वह पुरस्कृत किए जाते हैं। जैसे रमेश पोखरियाल निशंक केंद्रीय मंत्री बन जाते हैं, भगत सिंह कोश्यारी राज्यपाल बन जाते हैं। हालांकि भुवन चंद्र खंडूड़ी ने कोई विद्रोह नहीं किया, लेकिन अपने साथ हुए खेल का उन्होंने थोड़ा सा विरोध जरूर किया था, जिस भाजपा के लिए जो खंडूड़ी सबसे जरूरी थे, वह आज सबसे गैरजरूरी हो गए हैं। या वह विजय बहुगुणा बन जाते हैं, जो ‘न गाय में रह जाते हैं और न गधे में’ं, जिन्हें ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’ भी कहा जा सकता है। इसलिए इन दिल्ली के खिलाड़ियों के खेल का हिस्सा बने रहना उनके भविष्य के लिए सुखकर साबित होता है। यदि कोई उनके खेल में बाधक बन गया तो उसका राजनीतिक कैरियर वहीं खत्म हो जाता है।
दिल्ली के खिलंदड़ों और उत्तराखंड जैसे राज्य में उनके प्यादों के कठपुतलियों के इस खेल में सबसे अधिक नुकसान उत्तराखंड जैसे राज्य को उठाना पड़ रहा है। उत्तराखंड का कोई मुख्यमंत्री एक कमिश्नरी नहीं बना सकता है, यदि उसने ऐसा किया परिणाम त्रिवेंद्र सिंह रावत की तरह भुगतना पड़ता है। कब कौन सा निर्णय मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे प्यादे पर भारी पड़ जाए, उसी को पता नहीं होता। इसलिए राज्य के दूरदर्शी विकास की उनसे अपेक्षा की ही नहीं जा सकती है। अपनी कुर्सी बचाने के लिए उन्हें सिर्फ हाई कमान की तरफ देखना होता है। यदि त्रिवेंद्र सिंह रावत को गैरसैंण कमिश्नरी के तरकश के तीर से कांग्रेस को चित करने की सनक सवार नहीं हुई होती, ऐसा करने से पहले उन्होंने अपने हाई कमान को विश्वास में ले लिया होता तो शायद उन्हें अपनी कुर्सी नहीं गंवानी पड़ती। सन् 2000 से लेकर 2021 तक इस तरह के प्यादों और कठपुतलियों के बल पर क्या कोई राज्य मजबूत कदमों के साथ नियोजित विकास की तरफ आगे बढ़ सकता है? यदि उत्तराखंड आज विकास की राह में अपेक्षित नहीं कर पाया है, उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं तो उसके लिए यही कठपुतली और शतरंज के खिलाड़ी और उनके प्यादे जिम्मेदार नहीं हैं? उत्तराखंड जब तक इन खिलंदड़ों और प्यादों से मुक्त नहीं होगा, तब तक उसकी इसी तरह दुर्गति बनी रहेगी। राज्य की जनता जब तक इस सच्चाई को नहीं समझेगी, तब तक ये दिल्ली के खिलंदड़ उत्तराखंड के अरमानों के साथ इसी तरह खेलते रहेंगे, उसके भविष्य को इसी तरह रौंदते रहेंगे।