डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत रत्न डॉण् गोविंद बल्लभ पंत ने न केवल राजनैतिक तरीकों से, बल्कि लेखन के जरिए भी आजादी की मुहिम में शामिल होने के लिए लोगों को प्रेरित किया। जाने-माने इतिहासकार बताते हैं कि उनकी किताब फॉरेस्ट प्रॉब्लम इन कुमाऊं से अंग्रेज इतने भयभीत हो गए थे कि उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। बाद में इस किताब को 1980 में पुनः प्रकाशित किया गया। कुमाऊं में अंग्रेजों के शासन से पहले गोरखाओं का शासन था, उनका प्रशासन और न्याय करने का तरीका बेहद क्रूर था। जब 1815 में अंग्रेजों का शासन कुमाऊं में शुरू हुआ, तो उन्होंने कई सामाजिक हित से जुड़े कार्य और व्यवस्थित तंत्र विकसित किए।
डॉण् अजय रावत बताते हैं कि इसके चलते देश के अन्य हिस्सों की तुलना में यहां पर अंग्रेजों के प्रति नाराजगी कम थी। ऐसे में लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ तैयार करने के लिए गोविंद बल्लभ पंत ने कमान संभाली। 1916 में कुमाऊं परिषद का गठन किया गया। इसके सांगठनिक सचिव पंत जी ही थे। अंग्रेजों ने फारेस्ट एक्ट बनाने के साथ ही आरक्षित, संरक्षित वन घोषित कर दिया।पहाड़ के लोग वनों पर ही आश्रित थे, ऐसे में उनके हक.हकूक प्रभावित हो रहे थे। 1920 में जनता ने असहयोग आंदोलन के समय जंगलों में आग भी लगा दी थी। वनाधिकार कानून आदि से लोगों को किस तरह की परेशानी हो रही थी, इस पर गोविंद बल्लभ पंत ने 1922 में फॉरेस्ट प्रॉब्लम इन कुमाऊं किताब लिखी। यह किताब नैनीताल के ज्ञानोदय प्रकाशन से छापी गई। यह पुस्तक वन और पानी के अधिकार पर फोकस थी।
डॉण् रावत का दावा है कि इस किताब से जनता में असंतोष बढ़ने का डर था, इसलिए अंग्रेजों ने उस किताब को बैन करने का फैसला किया। बाद में डाण् रावत ने 1980 में फारेस्ट प्रॉब्लम इन कुमाऊंष्का पुनः प्रकाशित कराया। पहाड़ के लोग वनों पर ही आश्रित थे कानून के रास्ते में किसानी हकहकूक के ऐसे कई सवाल हैं, जिनका जवाब नवगठित नीति आयोग के पास भी नहीं है। कहा तो ये जा रहा है कि बिल में देरी का असर विकास योजनाओं पर पड़ रहा है। चालीस फीसदी प्रोजेक्ट इस देरी से प्रभावित हो रहे हैं, लेकिन ऐसे ही प्रोजेक्टों के नाम पर अधिग्रहीत की गई लाखों हेक्टेयर जमीन के खाली और बंजर पड़े रहने का आखिर जवाब क्या है? उन बेकार पड़ी जमीनों के मालिक विस्थापित और बिखरी हुई जिंदगियां लेकर मायूसी में दिन काट रहे हैं, जो सक्षम थे वे अपने लिए शहरों में जगह बना चुके हैं लेकिन निर्बलों के लिए तो ये एक दोहरी मार थी।
साफ है कि हिमालय प्रकृति के नियंत्रण में मुख्य भूमिका निभाता है। आर्थिकी और पारिस्थितिकी के मामले में हमें हिमाचल से सबक लेना चाहिए। ऐसे कार्यों को बढ़ाना होगा, जो स्थानीय संसाधनों पर आधारित हों और रोजगार देने के साथ ही इनका संरक्षण भी हो। ऐसे में पारिस्थितिकीय खेती से जुडऩा होगा। इस कड़ी में फल.पट्टियों को बढ़ावा देना बेहद लाभकारी है। उत्तराखंड के जाखधार समेत अन्य स्थानों पर ऐसे प्रयोग हुए हैं। सरकार को इस दिशा में पहल करनी होगी। इससे प्राकृतिक लाभ भी होगा और आर्थिकी भी सशक्त होगी। जब तक फल पट्टी विकसित होती है, तब तक वहां अन्य फसलें भी उगाई जा सकती हैं। हिमालय के प्रति आमजन का जुड़ाव रहा है और इस तरह के जनजागरण सरकारों पर बड़े दबाव के रूप में आगे का रास्ता तैयार करते हैं। सरकारों ने हिमालय में रुचि ऐसे में दिखाई अलबत्ता, हिमालय के संरक्षण को लेकर और बेहतर समझ विकसित करनी होगी। ये तभी संभव हैए जब पारिस्थितिकी के रास्ते से ही आर्थिकी के रास्ते ढूंढेंगे, तभी इसमें स्थायित्व आएगा। हिमालय बचाने को आगे आएं गैर हिमालयी राज्य आज जिस स्थान पर कुमाऊँ विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर डीएसबी स्थित है, आजादी से पहले वहाँ पर वैलेजली स्कूल था। जहाँ अंग्रेजों के बच्चे पढ़ते थे। उन दिनों गढ़वाल और कुमाऊँ में उच्चशिक्षा प्राप्त करने के लिए ऐसी कोई शिक्षण संस्था नहीं थी, जहाँ इस क्षेत्र के बच्चे पढ़ सकें। ऐसे में क्षेत्र के अधिकतर युवा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने निकटतम स्थान इलाहाबाद, लखनऊ जाते थे। स्वाभाविक है कि इतनी दूर जाने की स्थिति सबकी नहीं हो पाती थी, इसलिए प्रतिभाशाली होने के बावजूद इस क्षेत्र के बच्चे उच्चशिक्षा से वंचित रह जाते थे।
आजादी के बाद इस संकट को लोगों के द्वारा तीव्रता से महसूस किया गया। क्षेत्र के लोगों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे इस दिशा में पहल करते, न उनके पास राजनैतिक नेतृत्व था जिससे कि वे सरकार पर दबाव बना सकते। एक सुखद संयोग के रूप में उन्हीं दिनों उत्तराखंड के जंगलों में ठेकेदारी के जरिये खासा रूपया कमा चुके ठाकुर दान सिंह बिष्ट एक बड़े उद्यमी के रूप में उभर रहे थे। दूसरी ओर इसी इलाके से बड़े राजनीतिज्ञ के रूप में पंडित गोविंदबल्लभ पंत राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुके थे। दोनों ही के मन में यह दंश था कि काश, कोई ऐसी संस्था होती जहाँ उनके इलाके के गरीब मगर प्रतिभाशाली युवा उच्चशिक्षा के माध्यम से नए ज्ञान.विज्ञान का अंग बन सकें। अंततः दोनों ने मिलकर इस सपने को पूरा किया। अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में पंतजी ने प्रदेश में दो ऐसे आदर्श महाविद्यालय स्थापित करने की योजना बनाई जहाँ के प्राध्यापकों को विश्वविद्यालयों से अधिक वेतन दिया जाय। १९५१ में दानसिंह बिष्ट जी ने तीन लाख की धनराशि प्रदान कर अपने पिता ठाकुर देब सिंह बिष्ट के नाम से इस संस्था की नींव रखी और पंतजी ने इसे सरकार से पास कराया। विश्वविद्यालयों से अधिक वेतनमान देने के कारण देश के कोने.कोने से चोटी के विद्वान यहाँ आये और यह कॉलेज देश की प्रतिष्ठित शिक्षण.संस्थाओं में गिना जाने लगा।
कुमाऊँ और गढ़वाल के दूरदराज के इलाकों से विद्यार्थी यहाँ आते थे। उन दिनों हालत यह थी कि विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में यहाँ के पढ़े छात्रों को इलाहाबाद के विद्यार्थी के बराबर महत्व दिया जाने लगा। छठे.सातवे दशक तक उत्तराखंड की अलग.अलग क्षेत्रों की सारी प्रतिभाएं इसी कॉलेज से पढ़ी हैं।