शंकर सिंह भाटिया
2 अक्टूबर देश के लिए एक महत्वपूर्ण दिवस है। यह महात्मा गांधी का जन्म दिन है तो देश के प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्म दिन है। इस मायने में 2 अक्टूबर उत्तराखंड के लिए ही नहीं पूरे देश के लिए महत्व रखता है। लेकिन 2 अक्टूबर 1994 के बाद उत्तराखंड के लिए यह काला दिन हो गया। इस दिन मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली सपा-बसपा की उत्तर प्रदेश सरकार ने जिस तरह मुजफ्फरनगर कांड को अंजाम दिया, युवकों के सीने गोलियों से छलनी किए गए और महिलाओं को गन्ने के खेतों में घसीटकर बलात्कार किया गया, देश के इतिहास में ऐसा काला दिन अंग्रेजों के शासनकाल में भी नहीं देखा। बाकायदा सरकारी आदेशों का अनुपालन करते हुए उत्तर प्रदेश की पुलिस ने यह कुकृत्य किया।
सीबीआई जांच में इन सारी क्रूरताओं का खुलासा भी हुआ। इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय इसका गवाह है, हालांकि केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने सुप्रीम कोर्ट से बड़ी ही धूर्तता से अपने मुंह पर लगी कालिख की गहरी परत का बाहरी हिस्सा धुलवाने की कोशिश की हो, लेकिन यह बात कोई भी मानने को तैयार नहीं है कि मुलायम सिंह का पाप किसी न्यायालय के निर्णय से धुल गया हो। मुलायम सिंह यादव चाहे देश के सर्वोच्च न्यायालय से अपने को मुजफ्फरनगर कांड समेत, खटीमा, मसूरी कांड से मुक्त करवा लें, उत्तराखंड की जनता की नजर में वह हमेशा अपराधी रहेंगे।
अब सवाल यह उठता है कि 1994 में हुए सरकार प्रायोजित इन अपराधों की सीबीआई जांच में पुष्टि होने के बाद एक भी अपराधी को सजा क्यों नहीं मिली? सबसे बड़ा अपराधी मुलायम सिंह यादव सुप्रीम कोर्ट से मुक्त कैसे हो गया? हत्याएं हुई, बलात्कार हुए, इस सब की पुष्टि के बाद भी अपराधियों को एक-एक कर मुक्त होने का मौका क्यों दिया जा रहा है?
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद माना जा रहा था कि अब अपनी सरकार होगी, 1994 की घटनाओं को लेकर जो सन् 2000 तक न्याय नहीं मिल पाया, अब उत्तराखंड की जनता को न्याय मिलेगा, अपराधी सींखचों के पीछे होंगे। लेकिन उत्तराखंड की सरकारों ने ऐसा कोई चरित्र नहीं दिखाया। 9 नवंबर 2000 को बनी अंतरिम सरकार ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि वह केयरटेकर हैं, इसलिए कोई काम नहीं करेंगे, नई चुनी हुई सरकार पर ही उन्होंने सारी जिम्मेदारी थोप दी। इसलिए अन्य कार्यों की तरह अंतरिम सरकार ने इस मामले में भी कुछ नहीं किया। पहली चुनी हुई सरकार 2002 के चुनाव के बाद आई, जिसके मुखिया नारायण दत्त तिवारी बने। वह घोषित तौर पर उत्तराखंड आंदोलन के विरोधी थे, वही चरित्र उन्होंने खुलकर दिखाया। वह मुलायम सिंह यादव से दोस्ती निभाते रहे, पुलिस में डीआईजी रहते हुए मुजफ्फरनगर कांड में अहम भूमिका निभाने वाले बुआ सिंह का तिवारी रिजीम में खुलकर खैरमकदम होता रहा। बुआ सिंह का उत्तराखंड में सरकारी मेहमान की हैसियत से स्वागत किया गया। इतना ही नहीं नारायण दत्त तिवारी के शासनकाल में उनकी सरकार के अपर महाधिवक्ता ने बाकायदा देहरादून में चल रहे इन सभी घटनाक्रमों के मुकदमों को मुजफ्फरनगर स्थानांतरित करने की गुजारिश सीबीआई कोर्ट से की। ऐसा पूरी सोची समझी साजिश के साथ किया गया। मुकदमे मुजफ्फरनगर स्थानांतरित होने के बाद उत्तराखंड से जाने वाले गवाहों को वहां धमकियां मिलने लगी। गवाहों ने सुनवाई में जाना बंद कर दिया और उन संगीन मुकदमों का जो हस्र हुआ हम सबने देखा।
इन मामलों की सरकार पैरवी करेगी यह बात भुवन चंद्र खंडूड़ी ने पहली बार कही, जब 2007 के चुनाव में भाजपा की उनके नेतृत्व में सरकार बनी। लेकिन पता नहीं उन पर किस अदृश्य शक्ति का ऐसा दबाव था कि वह चाहकर भी इन मुकदमों की कभी सरकारी पैरवी नहीं करा पाए। उसके बाद धीरे-धीरे उत्तराखंड की सरकारों के लिए ऐसे गंभीर मामले अगंभीर बनते चले गए। अब तो उत्तराखंड की कोई सरकार या मुख्यमंत्री इसकी बात भी नहीं करना चाहता है।
अभी दो दिन पहले जब कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत यह कहते हैं कि उत्तराखंड की सत्ता नालायकों और बेवकूफों के हाथों में रही तो क्या गलत कहते हैं। यदि वह शहीदों की आत्मा के रोने की बात करते हैं तो सही कहते हैं। लेकिन यह भी समझना होगा कि उनकी यह पीड़ा ऐसे ही नहीं झलकी। उत्तराखंड आंदोलन में उनका कहीं कोई योगदान नहीं रहा। राज्य बनने के बाद उत्तराखंड की चार चुनी हुई सरकारों में से तीन सरकारों में उन्हें कैबिनेट मंत्री बनने का सौभाग्य मिला। इस हद तक सत्ता सुख भोगने के बाद भी जब मुख्यमंत्री बनने की कतार में उन्हें खड़ा तक नहीं किया गया तो उनके मन की पीड़ा छलक पड़ी और उन्होंनें सच्ची बात कह दी। इन नालायकों को सच्चाई का ज्ञान भी तब आता है, जब इन्हें सत्ता के परम खुख अर्थात मुख्यमंत्री की कुर्सी से वंचित किया जाता है। जनता बार-बार ऐसे लोगों को सत्ता सौंपेगी तो शहीदों को न्याय कहां से मिलेगा?