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खतरे में बच्‍चों की जान, स्कूल क्यों हैं बेजान?

20/08/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

किसी भी समाज और राष्ट्र का भविष्य उसके बच्चों पर निर्भर
करता है और बच्चों का भविष्य उनकी स्कूली शिक्षा पर टिका
होता है। स्कूल केवल किताबी ज्ञान प्राप्त करने के केंद्र नहीं हैं,
बल्कि वे चरित्र-निर्माण, सामाजिक कौशल, अनुशासन और
आत्मविश्वास की पहली पाठशाला होते हैं। यह वह पवित्र स्थान
है जहां एक बच्चा कल का जिम्मेदार नागरिक बनने की तैयारी
करता है। एक मजबूत स्कूली शिक्षा प्रणाली एक व्यक्ति को
अकादमिक रूप से सक्षम बनाने के साथ-साथ उसे जीवन की
चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करती है। संक्षेप में,
स्कूल एक उज्ज्वल भविष्य की आधारशिला है, लेकिन जब यह
आधारशिला ही जर्जर और असुरक्षित हो, तो उस पर एक
मजबूत भविष्य की इमारत कैसे खड़ी हो सकती है? राजस्थान
में एक हृदय-विदारक घटना हुई , जहां एक सरकारी स्कूल की
छत गिरने से सात बच्चों की अकाल मृत्यु हो गई। यह घटना कोई
अकेली या अप्रत्याशित दुर्घटना नहीं है, बल्कि यह देशभर में
सरकारी स्कूलों की प्रणालीगत उपेक्षा और जर्जर हालत का एक
क्रूर प्रतीक है। यह उजागर करता है कि हमारे बच्चे हर दिन
अपनी जान जोखिम में डालकर शिक्षा का अधिकार प्राप्त करने
की कोशिश कर रहे हैं। यह समस्या किसी एक राज्य तक सीमित
नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रव्यापी संकट बन चुकी है।

राजस्थान में अनुमानित करीब 8,000 स्कूल जर्जर हालत में हैं।
ओडिशा में करीब 12 हजार, पश्चिम बंगाल में करीब 4000,
गुजरात में करीब 3000 तथा आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश व
उत्तराखंड में प्रत्येक में करीब 2500 सरकारी स्कूल जीर्ण-शीर्ण
भवनों में चल रहे हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि लाखों बच्चे ऐसे
स्कूलों में पढऩे को विवश हैं, जहां न तो पर्याप्त बेंच हैं, न पीने
का साफ पानी, न ही शौचालय और चारदीवारी जैसी बुनियादी
सुविधाएं। बारिश के मौसम में छतों का टपकना और दीवारों में
सीलन आना एक आम बात है, जो कभी भी राजस्थान जैसी बड़ी
दुर्घटना का रूप ले सकती है। सरकारी स्कूलों के इस दयनीय
स्थिति में पहुंचने के पीछे कोई एक कारण नहीं, बल्कि कई
जटिल और आपस में जुड़े हुए कारक जिम्मेदार हैं- स्कूलों के
रखरखाव और मरम्मत के लिए बजट का आवंटन अक्सर
अपर्याप्त होता है। शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का
एक निश्चित हिस्सा खर्च करने की सिफारिशों के बावजूद,
वास्तविक आवंटन कम रहता है। जो बजट आवंटित होता भी है,
वह नौकरशाही की लालफीताशाही और देरी के कारण समय पर
स्कूलों तक नहीं पहुंच पाता। सरकारों का ध्यान अक्सर नए स्कूल
खोलने जैसी राजनीतिक रूप से आकर्षक योजनाओं पर अधिक
होता है, जबकि मौजूदा हजारों स्कूलों के रखरखाव को
नजरअंदाज कर दिया जाता है। मरम्मत और निर्माण के लिए
आवंटित धन में भ्रष्टाचार एक दीमक की तरह है, जो पूरे तंत्र को
खोखला कर रहा है। घटिया सामग्री का उपयोग और अधूरे काम
के कारण समस्या जस की तस बनी रहती है।स्कूल भवनों की
सुरक्षा और रखरखाव के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और
ठेकेदारों की कोई स्पष्ट जवाबदेही तय नहीं होती। हादसे होने के

बाद जांच समितियां बनती हैं, लेकिन निवारक उपायों, यानी
नियमित निरीक्षण और निगरानी पर कोई ध्यान नहीं दिया
जाता। विशेषकर दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में निगरानी तंत्र
लगभग न के बराबर है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020
स्कूलों के बेहतर बुनियादी ढांचे पर जोर तो देती है, लेकिन यह
एक नीतिगत ढांचा है, न कि बजटीय प्रावधान। जब तक केंद्र
और राज्य सरकारें वार्षिक बजट में इन नीतियों को लागू करने
के लिए ठोस वित्तीय आवंटन और एक मजबूत कार्यान्वयन
योजना नहीं बनातीं, तब तक ये नीतियां कागजों तक ही सीमित
रहेंगी। इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए 2015 में
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक और दूरदर्शी
फैसला सुनाया था। न्यायालय ने आदेश दिया कि उत्तर प्रदेश के
सभी सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों और
न्यायपालिका से जुड़े लोगों के लिए अपने बच्चों को सरकारी
प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाए। इस आदेश का
तर्क सीधा और शक्तिशाली था- जब प्रभावशाली और निर्णय लेने
वाले लोगों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ेंगे, तो वे स्कूलों की स्थिति
सुधारने के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रेरित होंगे और व्यवस्था पर
दबाव डालेंगे। हालांकि, मजबूत इच्छाशक्ति की कमी के कारण
यह आदेश धरातल पर नहीं उतर पाया। यह इस बात का
उदाहरण है कि केवल न्यायिक आदेश ही पर्याप्त नहीं होता,
प्रभावी कार्यान्वयन के लिए प्रशासनिक सहयोग और अटूट
राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।देश में सरकारी
स्कूलों का संकट केवल कुछ इमारतों के गिरने का नहीं, बल्कि
यह व्यवस्थागत उदासीनता, भ्रष्टाचार और जवाबदेही की कमी
का संकट है। यह हमारे देश के भविष्य, यानी हमारे बच्चों की

सुरक्षा और उनके शिक्षा के अधिकार से सीधे तौर पर जुड़ा है।
इस गंभीर स्थिति से निपटने के लिए इन ठोस कदमों की तत्काल
आवश्यकता है- स्कूलों के रखरखाव के लिए एक अलग, पर्याप्त
और गैर-व्यपगत (नॉन लैप्सेबल) बजट का प्रावधान किया जाना
चाहिए, जिसके खर्च का पूरा हिसाब ऑनलाइन उपलब्ध हो। हर
स्कूल भवन का एक स्वतंत्र एजेंसी द्वारा हर दो साल में अनिवार्य
सुरक्षा ऑडिट कराया जाना चाहिए और उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक
की जानी चाहिए। स्कूल के बुनियादी ढांचे के लिए जिम्मेदार अधिकारियों
(जैसे खंड शिक्षा अधिकारी, जिला शिक्षा अधिकारी) और ठेकेदारों की
जवाबदेही तय की जाए। लापरवाही के मामलों में सख्त दंडात्मक कार्रवाई हो।
स्कूल प्रबंधन समितियों को अधिक वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार दिए
जाएं ताकि वे स्थानीय स्तर पर छोटी-मोटी मरम्मत का काम तुरंत करा सकें।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय जैसे प्रगतिशील आदेशों को लागू करने के लिए
राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा। जब तक नीति-निर्माताओं के
बच्चे इन स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक वास्तविक सुधार की उम्मीद करना
कठिन है। अंतत:, जब तक हम स्कूलों को केवल ईंट-गारे की इमारत न
समझकर, उन्हें राष्ट्र-निर्माण की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई नहीं मानेंगे, तब तक
ऐसी दुखद घटनाओं की आशंका बनी रहेगी और हम अपने बच्चों के भविष्य के
साथ खिलवाड़ करते रहेंगे। राज्य शिक्षा विभाग के आँकड़ों के अनुसार,
उत्तराखंड में 942 स्कूल भवन जर्जर अवस्था में हैं, जिनकी मरम्मत और
जीर्णोद्धार की तत्काल आवश्यकता है।  राजधानी में सरकारी स्कूल की बात
हो तो दिलो-दिमाग में एक छवि बनती है। अच्छे भवन, साफ-सुथरे कक्षा कक्ष,
खेल मैदान, शौचालय, रसोई घर, बिजली-पानी आदि सभी सुविधाओं और
संसाधनों से परिपूर्ण होना। साथ में पढ़ाई का बेहतरीन माहौल। लेकिन शिक्षा
का हब कहे जाने वाले शहर के प्राथमिक विद्यालयों को हाल जानेंगे तो दंग रह
जाएंगे।कई सरकारी प्राथमिक स्कूलों की स्थिति बदतर है। भवन जवाब दे रहे
हैं। सरकारी का तमगा लगा है इसलिए जैसे-तैसे व्यवस्था चलाई जा रही है।
यह हाल तब है जब खुद मुख्यमंत्री जर्जर स्कूलों में बच्चों को न भेजने के निर्देश
दे चुके हैं। शिक्षा मंत्रालय ने भी स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा और सुविधाओं का
आडिट अनिवार्य कर दिया है। खंडहर बन चुके स्कूल भवनों में पढ़ने और

पढ़ाने की मजबूरी बच्चों और शिक्षकों से ज्यादा कौन जान सकता है।
लेकिन सच यह है कि शहर के कई ऐसे स्कूल हैं जहां छात्र इन्हीं हालात
में पढ़ने को मजबूर हैं। जर्जर छत, कक्षा कक्ष में जलभराव, पेयजल के
इंतजाम नहीं आदि दिक्कतें व्यवस्था को आईना दिखा रहा है।
अभिभावक भी बच्चों को इन स्कूलों में भेजने में घबरा रहे हैं।शिक्षक
परेशान हैं। उनका कहना है कि उन्होंने अधिकारियों को इस बारे में पत्र
भेज दिया है लेकिन काम जल्द शुरू करने के आश्वासन के सिवाय कुछ
नहीं होता। पड़ताल के दौरान जब शिक्षकों से स्कूल की स्थिति को लेकर
बात करनी चाही तो अधिकतर शिक्षक खुलकर कहने में हिचकते रहे।
कई का कहना था कि वह इस बारे में कुछ ज्यादा नहीं कह सकते। बड़े
अधिकारी आते हैं और डांट सुननी पड़ती है। समस्या तो है लेकिन कुछ
नहीं बोल सकते। वैसे, उत्तराखंड के इस स्कूल के रिजल्ट की चर्चा
दिल्ली में भी विचार-विमर्श से जुड़े कार्यक्रमों में हो रही है. बीते हफ्ते
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे पर दिल्ली के प्रेस क्लब में जब राजधानी के जाने-
माने पत्रकार जुटे तब वहां भी इस खबर का जिक्र हुआ. उत्तराखंड से
आए एक वक्ता का कहना था कि शिक्षा का अधिकार सरकार ने दे तो
दिया लेकिन स्कूलों की दशा और गुणवत्ता दोनों खराब है. बुनियादी
ढांचा नहीं होगा तो शिक्षा का अधिकार बेमानी हो जाएगा. स्कूलों में
या तो शिक्षकों की बहुत कमी है या हैं तो उनकी वास्तविक काबिलियत
संदेह के घेरे में है.  *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून*
*विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*

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