डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के जंगलों की खूबसूरती सिर्फ़ उसकी हरियाली में नहीं बल्कि यहां के जीव-जंतुओं, पेड़ों और वनस्पतियों के बीच उपस्थित अद्भुत संतुलन में है। यहां की पारिस्थितिकी प्रणाली में हर चीज, चाहे वह एक बाघ हो या छोटी सी दूब घास, अहम किरदार निभाती है। इसी संतुलन का एक अनदेखा लेकिन बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा हैं जंगलों के घास के मैदान (ग्रासलैंड)। दरअसल बीते कुछ सालों में राज्य के संरक्षित क्षेत्रों, खासतौर पर राजाजी टाइगर रिजर्व में घास के मैदानों का तेजी से ह्रास हुआ है। इसका सीधा असर शाकाहारी वन्यजीवों जैसे हिरण, चीतल और सांभर पर पड़ रहा है, जिन्हें भोजन के लिए घास की आवश्यकता होती है। यही नहीं, शिकारी वन्यजीवों जैसे- बाघ और तेंदुए को भी शिकार करने के लिए घनी घास की आड़ चाहिए होती है। जब ये मैदान समाप्त होते हैं, तो ये जीव न केवल भोजन से वंचित होते हैं बल्कि उनका प्राकृतिक व्यवहार भी प्रभावित होता है। उत्तराखंड के वन क्षेत्र में हर चीज का अपना एक खास महत्व है. यहां वन्यजीवों से लेकर वृक्ष और वनस्पतियों तक की एक फूड चेन बनी हुई है. खास बात ये है कि फूड चेन का कोई भी हिस्सा प्रभावित होता है तो इसका असर जंगल के पूरे एनवायरनमेंट पर होता है. दरअसल, जंगलों में घास के मैदान काफी तेजी से प्रभावित हो रहे हैं. यहां ग्रासलैंड का अपना एक खास महत्व है, जिसके कारण बाकी चीजें भी इससे प्रभावित हो रही हैं. यह बात वन विभाग भी समझ रहा है और इसलिए वन विभाग ने कुछ ऐसे नए प्रयास करने शुरू किए हैं, जिससे जंगलों में घास के मैदान की कमी वन्य जीवों को महसूस ना हो.राजाजी टाइगर रिजर्व में घास के कम होते मैदान एक बड़ी चिंता बनते दिखाई दे रहे हैं और शायद इसलिए वन विभाग ने कुछ ऐसे प्रयास किए हैं जो भविष्य में इस संकट से निजात दिला सकते हैं. इसके लिए जंगल के भीतर ही घास की नर्सरी तैयार की जा रही है. चारा घास के रूप में पौधशाला का निर्माण किया गया है, करीब 0.42 हेक्टर क्षेत्र में इस नर्सरी को तैयार किया जा रहा है. हालांकि यह प्रयास नए नहीं हैं, पिछले करीब 4 सालों से घास के मैदान को बढ़ाने के लिए इस नर्सरी पर काम हो रहा है. वन विभाग द्वारा तैयार की गई ये नर्सरी कैंपर परियोजना के माध्यम से बनाई गई है, जिसमें दूब घास, पन्नी घास, गोल्डा घास, छोटी भूंज, बंसी घास और कुमारिया घास रोपित की गई है. यह ऐसी घास है, जिनको जंगल में अलग-अलग वन्यजीव खाना पसंद करते हैं. इस नर्सरी में तैयार की जा रही विभिन्न प्रजाति की घास को बाद में जंगल के अलग-अलग हिस्से में रोपित कर घास के मैदानों को बढ़ाने की योजना है. वन क्षेत्र में तेज बारिश और नदियों में पानी के तेज बहाव से मिट्टी के कटाव होने के चलते घास के मैदानों को नुकसान हो रहा है. यह माना जा रहा है कि संरक्षित क्षेत्र में कई हेक्टर घास के मैदान इस स्थिति के कारण कम हुए हैं. इसके अलावा आग की घटनाओं के कारण भी घास के मैदान इसकी चपेट में आते हैं और इन्हें भारी नुकसान होता है. उधर दूसरी तरफ कुछ ऐसी झाड़ियां भी वन क्षेत्र में पनप रही हैं, जो घास के मैदान को खत्म कर अपना वर्चस्व बढ़ा रही हैं. इस कारण भी घास के मैदान कम हो रहे हैं. घास के मैदान कम होने के कारण ना केवल शाकाहारी वन्यजीव जिनकी निर्भरता इन घास के मैदानों पर रहती है वो प्रभावित हो रही है, बल्कि शिकारी वन्यजीवों को भी इससे काफी असहजता हो रही है. दरअसल घास के मैदान कम होने से हिरण, चीतल, सांभर जैसे वन्यजीव को पर्याप्त घास नहीं मिल पा रही है. संरक्षित क्षेत्र में घास के मैदान काफी दूरी तक फैले होते हैं और इसमें लंबी-लंबी घास शिकारी वन्यजीवों को छिपने का मौका देती है. जिससे यह शिकारी आसानी से अपने शिकार तक छिपकर पहुंच जाते हैं. लेकिन घास के मैदान ना होने के कारण खुले में शिकार करने के लिए इन शिकारी वन्यजीवों को काफी मुश्किल का सामना करना पड़ता है. यह सब वजह है जिसके कारण वन विभाग भी इन स्थितियों को चुनौती के रूप में देख रहा है और घास के कम होते मैदान के लिए कई तरीके निकाले जा रहे हैं. इनमें से एक घास की नर्सरी को तैयार करना भी है. घास के मैदानों के समाप्त होने के पीछे केवल मानव गतिविधियां ही नहीं बल्कि प्राकृतिक आपदाएं भी एक बड़ी वजह हैं। बारिश के मौसम में नदियों के तेज बहाव से मिट्टी का कटाव होता है, जिससे घास समाप्त हो जाती है। वहीं जंगलों में लगने वाली आग से भी घास के मैदान नष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त लेन्टाना जैसी झाड़ीदार प्रजातियां, जो विदेशी पौधों की श्रेणी में आती हैं, तेजी से फैलकर घास के मैदानों की स्थान ले रही हैं। ये झाड़ियां घास को पनपने नहीं देतीं और वन क्षेत्र के पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करती हैं। वन विभाग का यह कोशिश न सिर्फ़ जंगलों की हरियाली लौटाने की दिशा में है बल्कि आने वाले समय में यह पूरे क्षेत्र में प्राकृतिक संतुलन बहाल करने का आधार बन सकता है। करना चाहिए, संसाधनों का संचयन करना चाहिए और अंतिम तौर पर जैव विविधता का संरक्षण करना चाहिए। रानीखेत के कालिका वन अनुसंधान केंद्र ने देश का पहला घास संरक्षण केंद्र स्थापित किया है. इसमें लगभग घास की 90 प्रजातियां उगाई गई हैं. इन प्रजातियों के वैज्ञानिक, पारिस्थितिक, औषधीय और सांस्कृतिक महत्व हैं. कैंपा योजना के तहत तीन साल में छह लाख रुपये की लागत से देश का पहला घास संरक्षण केंद्र तैयार किया. इसमें उत्तराखंड के साथ ही अन्य प्रदेशों की घास को भी संरक्षित किया गया है. खास बात कि ये सभी किस्में पेड़ों से ज्यादा कार्बन अवशोषित करने में मददगार हैं. सीसीएफ ने कहा कि पूरा मानव और वन्य जीवन घास पर निर्भर है. हालिया एक ताजा शोध का हवाला देते हुए संजीव ने बताया कि पेड़ों की तुलना में घास प्रजातियों के मैदान सर्वाधिक कार्बन अवशोषित करने की ताकत रखते हैं. पर्यावरण के साथ ही यह भूमि और जल संरक्षण में भी मील का पत्थर साबित होते है. उन्होंने कहा कि कालिका का घास संरक्षण क्षेत्र अन्य राज्यों में भी जनचेतना लाने का काम करेगा. *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*