डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हरेला का शाब्दिक अर्थ हर धन एला अर्थात हर भगवान शंकर और एला स्त्री सूचक होने से माता पार्वती का आभास कराता है। लोक परंपरा में हरेला त्योार पर्व बन गया। ऋग्वेद में कृषि कृणत्व अर्थात खेती करो के तहत इसका उल्लेख है। सावन मास की शुरुआत शुभ दिन से की जाती है। हरेला का अर्थ हरियाली से है। हरेला के दिन इसे काटने के बाद तिलक, चंदन, अक्षत लगाया जाता है। घर के सभी बुजुर्ग, महिलाएं, बच्चे इसे शिरोधारण करते हैं। इस मौके पर सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य की कामना की जाती है। यह प्रकृति पूजन का प्रतीक भी है। यहां लोग पीपल, वट, आम, हरड़, आंवला आदि के पौधों का किसी न किसी रूप में पूजन करते हैं जो पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हैं इस त्योहार को मनाने से समाज कल्याण की भावना विकसित होती है।
हरेला पर्व पर नौ दिन पूर्व घर के मंदिर में बोया गया हरेला मंत्रोच्चार के बीच विधिविधान से काटकर सभी परिजनों, पड़ोसियों, ईष्टमित्रों को शिरोधारण कराया जाता है। हरेला पर्व के साथ ही सावन मास शुरू हो जाता है। पर्व से नौ दिन पूर्व घर में स्थापित मंदिर में पांच या सात प्रकार के अनाज को मिलाकर एक टोकरी में बोया जाता है। हरेले के तिनके अगर टोकरी में भरभराकर उगें तो माना जाता है कि इस बार फसल अच्छी होगी। हरेला काटने से पूर्व कई तरह के पकवान बनाकर देवी देवताओं को भोग लगाने के बाद पूजन किया जाता है। हरेला पूजन के बाद घर परिवार के सभी लोगों को हरेला शिरोधारण कराया जाता है। इस मौके पर लाग हर्याव, लाग बग्वाल, जी रयै, जागि रयै, यो दिन बार भेटने रयै, शब्दों के साथ आशीर्वाद दिया जाता है।
कुमाऊं में हरेले की समृद्ध परंपरा रही है। पूर्व में परिजन अपने संबंधियों, घर से दूर प्रदेश में नौकरी करने वालों को हरेले के तिनके और देव मंदिर की अशीका फूल डाक से भेजते थे। आज भी कई परिवारों में यह परंपरा जारी है। हरेला पर्व पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक है। इस पर्व से मौसम को पौधरोपण के लिए उपयुक्त माना जाता है। हरेला बोने के लिए उसी खेत की मिट्टी लाई जाती है जिसमें उचित पौधों के रोपण और अच्छी फसल का परीक्षण हो सके। सात या पांच प्रकार का अनाज बोया जाता है जो अनुकूल मृदा और मौसम चक्र का आभास कराता है। हरेला पर्व पौधरोपण, मृदा परीक्षण और मौसम चक्र का भी द्योतक है, लेकिन आज के दौर में वनों का जिस तरह दोहन हो रहा है, यह हमारी इस परंपरा पर कुठाराघात भी है। खेत की मिट्टी को जांचने का वैज्ञानिक तरीका है हरेला। पांच या सात प्रकार के अनाज को बोकर उसके अंकुरण से पता चलता था कि यह मिट्टी कैसी है और इस बार फसल कैसी होगी। इस परंपरा को त्योहार से जोड़कर युवा पीढ़ी जो आज खतड़ुवा, फूलदेई, हरेला जैसे पर्वों से दूर हो रही है, उसे इसके महत्व से रूबरू कराना है।
युवा पीढ़ी भविष्य में इसके महत्व को समझे। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों विशेषकर कुमाऊँ अंचल में हरेला मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। उमंग और उत्साह के साथ मनाए जाने वाले इस पर्व को ऋतु उत्सवों में सर्वाेच्च स्थान प्राप्त है। हरेला पर्व सौरमास श्रावण के प्रथम दिन यानि कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है। परम्परानुसार पर्व से नौ अथवा दस दिन पूर्व पत्तों से बने दोने या रिंगाल की टोकरियों में हरेला बोया जाता है। जिसमें उपलब्धतानुसार पाँच, सात अथवा नौ प्रकार के धान्य यथा. धान, मक्का, तिल, उड़द, गहत, भट्ट, जौं व सरसों के बीजों को बोया जाता है। देवस्थान में इन टोकरियों को रखने के उपरान्त रोजाना इन्हें जल के छींटों से सींचा जाता है। दो.तीन दिनों में ये बीज अंकुरित होकर हरेले तक सात.आठ इंच लम्बे तृण का आकार पा लेते हैं। हरेला पर्व की पूर्व सन्ध्या पर इन तृणों की लकड़ी की पतली टहनी से गुड़ाई करने के बाद इनका विधिवत पूजन किया जाता है। कुछ स्थानों में इस दिन चिकनी मिट्टी से शिव.पार्वती और गणेश.कार्तिकेय के डिकारे मूर्त्तियाँ बनाने का भी रिवाज है। इन अलंकृत डिकारों को भी हरेले की टोकरियों के साथ रखकर पूजा जाता है। हरेला पर्व के दिन देवस्थान में विधि.विधान के साथ टोकरियों में उगे हरेले के तृणों को काटा जाता है। इसके बाद घर.परिवार की महिलाएँ अपने दोनों हाथों से हरेले के तृणों को दोनों पाँव, घुटनों व कन्धों से स्पर्श कराते हुए और आशीर्वाद युक्त शब्दों के साथ बारी.बारी से घर के सदस्यों के सिर पर रखती हैं।
इस दिन लोग विविध पहाड़ी पकवान बनाकर एक दूसरे के यहाँ बाँटा जाता है। गाँव में इस दिन अनिवार्य रूप से लोग फलदार या अन्य कृषिपयोगी पेड़ों का रोपण करने की परम्परा है। लोक.मान्यता है कि इस दिन पेड़ की टहनी मात्र के रोपण से ही उसमें जीवन पनप जाता है। यदि हम गहराई से देखें तो हरेला पर्व सीधे तौर पर प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की भूमिका में नजर आता है। मानव के तन.मन में हरियाली हमेशा से ही प्रफुल्लता का भाव संचारित करती आई है। यह पर्व लोक विज्ञान और जैव विविधता से भी जुड़ा हुआ है। हरेला बोने और नौ.दस दिनों में उसके उगने की प्रक्रिया को एक तरह से बीजांकुरण परीक्षण के तौर पर देखा जा सकता है। इससे यह सहज पूर्वानुमान लग जाता है आगामी फसल कैसी होगी। हरेले में मिश्रित बीजों के बोने की जो परम्परा है वह बारहनाजा अथवा मिश्रित खेती की पद्धति के महत्त्व को भी दर्शाता है।परिवार व समाज में सामूहिक और एक दूसरे की भागीदारी से मनाया जाने वाला यह लोक पर्व सामाजिक समरसता और एकता का भी प्रतीक है क्योंकि संयुक्त परिवार चाहे कितना भी बड़ा हो पर हरेला एक ही जगह पर बोया जाता है और.तो.और कहीं.कहीं पूरे गाँव का हरेला सामूहिक रूप से एक ही जगह विशेषकर गाँव के मन्दिर में भी बोया जाता है।
पहले हरेले पर कई स्थानों में मेले भी लगते थे परन्तु आज वर्तमान में छखाता पट्टी के भीमताल व काली कुमाऊँ के बालेश्वर व सुई.बिसुंग में ही मेले आयोजित होते हैं। हरेला पर्व में लोक कल्याण की एक अवधारणा निहित है। समूचे वैश्विक स्तर पर आज पूँजीवादी और बाजारवादी संस्कृति जिस तरह प्रकृति और समाज से दूर होती जा रही है यह बहुत चिन्ताजनक बात है। ऐसे में निश्चित तौर पर लोक के बीच मनाया जाने वाला यह पर्व हमें प्रकृति के करीब आने का सार्थक सन्देश देता है। हरेला के इस पर्व को सरकार ने अब पर्यावरण संरक्षण और वृक्षारोपण से जोड़ दिया है। यह एक अच्छी पहल है। इससे संस्कृति के साथ लोगों का जुड़ाव होगा। इस जुड़ाव के साथ यह पर्व धीरे.धीरे पहाड़ों से बाहर भी मनाया जाने लगा है। आज जब पर्यावरण पर गहरा संकट है। मनुष्य का लालच दिनों.दिन प्रकृति का दोहन कर रहा है तो ऐसे में एक पर्व प्रकृति को बचाने और उसकी तरफ लौटने का संदेश देता है तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है। अच्छा ही है, यदि हम अपनी परंपरा से कुछ ग्रहण करके समाज के लिए उसका सार्थक प्रयोग करते हैं। बाकी आज जिस आधुनिक समाज में हम रह रहे हैं वहां तो पर्यावरण को नष्ट करने के हजारों तरीके और उत्सव ईजाद कर लिए गए हैं और हम उन्हीं के उत्सव में खोए रहते हैं। पर्यावरण दोहन के इस दौर में हरेला जैसा पर्व अँधेरे समय में विचार सरीखे है। जहाँ एक रौशनी की किरण नजर आती है। इस रौशनी में पर्यवारण के साथ .साथ वह सामूहिक चेतना भी नजर आती है जो अब बहुत कम ही बची हैण्समाज और प्रकृति में हरेले की महत्ता को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार भी पिछले साल से सरकारी स्तर पर हरेला मनाने की कवायद कर रही है जिसके तहत राज्य में पर्यावरण और सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिए जन चेतना और जागरुकता पैदा करने के प्रयास हो रहे हैं।