डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
कबूतरी का जन्म 1945 में उत्तराखंड के चम्पावत जिले में हुआ। संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा उन्होंने अपने पिता रामकाली से अपने गांव में ही लीए उनके पिता उस समय के एक प्रख्यात लोक गायक थे। पहाड़ी गीतों में प्रयुक्त होने वाले रागों का निरन्तर अभ्यास करने के कारण कबूतरी देवी की शैली अन्य गायिकाओं से अलग थी।
विवाह के बाद इनके पति ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और आकाशवाणी और स्थानीय मेलों में गाने के लिये प्रेरित किया। आज पनि जौं. जौंए भोल पनि जौं गीत से राष्ट्रीय.अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान पाने वालीं उत्तराखंड की मशहूर लोकगायिका कबूतरी देवी के इस गीत को दुनिया भर में फैले उत्तराखंड के प्रवासियों के अलावा नेपाल में भी खूब प्यार मिला।
इस गीत में कुछ शब्द नेपाल से भी आए हैं और इस लिह कबूतरी ने अपने लोकगीतों में उत्तराखंड की प्राकृतिक दृश्यावलियों को तो बखूबी पेश किया। कबूतरी देवी संस्कृतिकर्मी आकाशवाणी के लिये गाने वाली पहली महिला थीं। उन्होंने पर्वतीय लोक संगीत को अंतरराष्ट्रीय मंच दिलाया।
2016 में 17वें राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर उत्तराखण्ड सरकार ने उन्हें लोकगायन के क्षेत्र में लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया उत्तराखंड की प्रसिद्ध लोक गायिका कबूतरी देवी को उनकी तीसरी पुण्यतिथि पर मंगलवार को अनेक रचनाधर्मियों व लोक कलाकारों ने याद किया।
कबूतरी देवी की दिल.दिमाग को गहरे छूने वाली गायकी और उसके पीछे छुपे दर्द को महसूस कर अनेक लोग आज भी भाव विह्वल हो जाते हैं। लोक गायिका कबूतरी देवी का जन्म गांव लेटी काली कुमाऊँ जिला चंपावत के प्रसिद्ध लोक गायक. वादक देवराम और लोक गायिका देवकी देवी के घर 18 जनवरी 1945 को हुआ था।
गीत.संगीत के माहौल में पली बढ़ी कबूतरी की रुचि पारम्परिक लोकगीत गायन व संगीत के प्रति बचपन से ही हो गई थी। इसकी प्रारंभिक शिक्षा उन्हें पिता और माता से ही मिली। पहाड़ी गीतों में प्रयुक्त होने वाले रागों का निरंतर अभ्यास करने के कारण इनकी गायन शैली अन्य गायिकाओं से भिन्न रही।
सन् 1959 में 14 वर्ष की आयु में कबूतरी देवी का विवाह क्वीतड़ गांवए जिला पिथौरागढ़ के लोक गायक.वादक दीवानी राम के साथ हुआ। विवाह के बाद दीवानी राम ;जिन्हें ये नेता जी के नाम से पुकारती थीं ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और लोक गायकी के क्षेत्र में पहचान बनाने के लिए निरंतर प्रोत्साहित करते रहे।
पति के प्रोत्साहन और प्रयासों से कबूतरी देवी सुदूर पहाड़ी गांव से आकाशवाणी व दूरदर्शन के स्टूडियो तक पहुंची। उन्होंने रेडियो के माध्यम से देश.प्रदेश में अपनी मधुर खनकती आवाज से गुंथे गीतों की धूम मचा दी। आल इंडिया रेडियो लखनऊए रामपुर नजीबाबादए अल्मोड़ा और मुंबई केंद्रों से इनके गीतों का प्रसारण हुआ।
आकाशवाणी के लिए कबूतरी देवी ने लगभग 100 से ज्यादा गाने रिकार्ड कराये। इस बीच 30 दिसम्बर 1984 को उनके पति दीवानी राम का हृदयगति रुकने से निधन हो गया। तब कबूतरी देवी की उम्र मात्र 40 साल थी। पति की मृत्यु के बाद परिवार आर्थिक रूप से कमजोर हो गया और ऐसे में एक बेटा भूपेन्द्र और दो बेटिया मंजू व हेमन्ती के लालन-पालन के कारण लगभग 18.20 साल तक गीत. संगीत को छोड़ना पड़ा।
चिराग बुझ गया था लेकिन आग बची थी। तब जनकवि गिरीश तिवाड़ी उर्फ गिर्दा ने उन्हें गुमनामी के अन्धेरे से निकाला। कबूतरी देवी के प्रसिद्ध गीतों में पहाड़ै ठंडो पाणी सुआ कैसी मीठी वाणी आज पनि झौं.झौं भोले पनि झौं झौं, यो पापी कलेजी काटि खानि लागैं छी, ओ चड़ी धौपर में मा, बरस दिन को पैलाे म्हैना, मैंसौं दुःख क्वे जाणिव ना, ओ दुर्गा भवानी, जै जै जै देवी कनारा आदि शामिल हैं।
इसके साथ ही कबूतरी देवी ने मंगल गीत ऋतु रैणा भगनौल न्यौली जागर गनेली झोड़ा चांचरी इत्यादि प्रमुख विधाओं में अपनी मधुर आवाज दी। आखिरकार पहाड़ै ठंडो पाणीए सुआ कैसी मीठी वाणी, छोड़नि नि लागैनीण्का संदेश देने वाली आवाज को भी सबकुछ छोड़कर जाना पड़ा।
ऐसे में कबूतरी देवी ने इस परंपरा को तोड़ते हुए उत्तराखंड की पहली महिला लोक गायिका होने का गौरव हासिल किया। बाद में उन्होंने आकाशवाणी के नजीबाबाद, रामपुर समेत अन्य कई केन्द्रों के लिए भी गीतो की रिकार्डिंग की और उनके गाये कई गाने तो बहुत मशहूर हुए। लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति हमेशा खराब ही रही क्योंकि कबूतरी देवी को एक गीत की रिकॉर्डिंग के बदले केवल 50 रुपया ही मेहताना मिलता था।
जो उनके लिए पर्याप्त नहीं होता था। कबूतरी देवी जी भले ही अब हमारे बीच ना हो लेकिन वह अपने पीछे एक सुरीला व गरिमामई कुमाऊनी लोकगीतों का संसार हमारे और हमारे आने वाली नई पीढ़ी के लिए छोड़ गई हैंजिला अस्पताल पिथौरागढ़ में 7 जुलाई 2018 को जन.जन के मन में बसी लोक गायिका कबूतरी देवी ने अंतिम सांस ली।
राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित कबूतरी देवी ने पर्वतीय लोक शैली को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया था। उत्तराखंड की तीजनबाई कही जाने वाली कबूतरी देवी ने पहली बार दादी.नानी के लोकगीतों को आकाशवाणी और प्रतिष्ठित मंचों के माध्यम से प्रचारित और प्रसारित किया था।
जब इन्होंने आकाशवाणी पर गाना शुरू कियाए जब तक कोई महिला संस्कृतिकर्मी आकाशवाणी केलिए नहीं गाती थीं।70 के दशक में इन्होंने पहली बार पहाड़ के गांव से स्टूडियो पहुंचकर रेडियो जगत में अपने गीतों से धूम मचा दी थी। कबूतरी देवी ने आकाशवाणी के लिए करीब 100 से अधिक गीत गाए।
जीवन के लगभग 20 साल अभावों में बिताने के बाद 2002 से उनकी प्रतिभा को उचित सम्मान मिलना शुरू हुआ जिनको बाद में समय.समय पर कई सम्मानों ने नवाजा गया कबूतरी देवी इसी जाति की उस आखिरी पीढ़ी की लोकगायिका थीए जो बदहाली में भी परंपरा के उस अनमोल खजाने को ढोती रहीण्सं गीत ने उन्हें सम्मानजनक जीवन तक नहीं दिया वे क्या उनका पूरा कुनबा ही उत्तराखण्ड की पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने वाली विलक्षण संगीत परंपरा का वाहक था।
उनकी आने वाली पीढ़ी ने इस सबसे किनारा कर शहर में मजदूरी करना ज्यादा बेहतर समझा शहर में मेहनत.मजदूरी करना हमारे इन लोकगायकों को ज्यादा अच्छी जिंदगी दे देता है। यह कहानी कबूतरी ही नहीं उन जैसे सभी कलाकारों शिल्पियों की है। कुछ दुर्गति झेलते हुए मर.खप गए हैं कुछ इस रास्ते पर हैं।
कबूतरी देवी के साथ ही संगीत की दुर्लभ धरोहर भी लोक छोड़ गयी। कबूतरी देवी के पास खुद के गाये गाने भी नहीं थे, वे उनसे मिलने जाने वाले सभी लोगों से अनुरोध किया करतीं कि उनके गाये गाने तस्वीरें आदि कहीं मिल सके तो उन्हें ला दे, लेकिन यह उनके जीत.जी यह न हो सका। उनके गीतों, तस्वीरों वीडियो फुटेज और उनसे जुड़ी हर जानकारी को संस्कृति के ठेकेदारों ने उनकी मृत्यु के बाद भुनाने के लिए दबाकर रखे रखाए भुनाया भी।
यह देखकर हैरानी होती है कि आज भी उनकी हस्ती को भुनाने का सिलसिला जारी है कबूतरी देवी कहना था कि एक कलाकार के लिए इससे बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है कि उसको मंच न मिले। वह चाहती थी कि राज्य की सरकार पहाड़ व पहाड़ के इन लोक कलाकारों की सुध ले। उनको सम्मान से जीने का मौका दें। ताकि कुमाऊनी लोक संगीत की यह सुरीली महक आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचती रहे। और आने वाली पीढ़ियों को भी अपने इस महान लोक परंपरागत गीतों की जानकारी हो पहाड़ के जीवन में रची.बसीं लोक गायिका कबूतरी देवी की मखमली आवाज लोगों के दिलों में उतरती है। लेकिन उन्हें सभी सरकारों ने उपेक्षित रखा। किसी सरकार ने उनके हुनर की कद्र नहीं की।