डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
निकाय चुनाव के नाम वापसी के आखिरी दिन नगर निगम मेयर के लिए 25 , सभासद नगर निगम के 217 , अध्यक्ष नगर पालिका परिषद के 51 , सदस्य नगर पालिका परिषद के 218 , अध्यक्ष नगर पंचायत के 57 , सदस्य नगर पंचायत के 214 नाम वापस लिए गए. निकाय चुनाव में बीजेपी से बगावत कर 25 लोगों ने नॉमिनेशन किया था. नाम वापसी के बाद अभी भी 15 से ज्यादा बागी भाजपा कैंडिडेट के खिलाफ चुनावी मैदान में हैं. इस प्रदेश को स्थायी तौर पर अपनी राजनीति बदलने की ज़रूरत है और राजनैतिक दलों को अपनी प्राथमिकताएँ। दिलचस्प है कि औपनिवेशिक दौर में इस विशेष भौगोलिक राज्य के लिए आज़ाद भारत के नीति-निर्धारकों से कहीं प्रगतिशील दृष्टि थी।बहरहाल, पार्टी में पनपने वाले इस विरोध को सियासी पंडित तो अपने ही नजरिये से देख रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक की माने तो सत्ताधारी पार्टी के नाराज कार्यकर्ताओं को काफी हद तक मना लिया जाता है. लेकिन विपक्ष के नेतृत्व के लिए यह एक बड़ी चुनौती है. राजनीतिक विश्लेषक ने पार्टी के प्रति समर्पण भाव से कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं की मनोदशा की वास्तविकता को बयां करते हुए डैमेज कंट्रोल के मामले पर कहा, कई चुनाव में विरोधियों के पक्ष में भी चुनावी नतीजे सामने आ जाते हैं. साथ ही उन्होंने बताया कि सत्याधारी पार्टी नाराज पार्टी कार्यकर्ताओं को सरकार और संगठन में अहम पद देने के आधार पर मनाने में सफल हो जाती है, जबकि विपक्षी पार्टी के पास यह विकल्प उपलब्ध नहीं है.:वहीं, सत्याधारी पार्टी के वरिष्ठ नेता और विधायक ने विरोधियों से बातचीत करने का हवाला देते हुए पार्टी के कार्यकर्ताओं के विरोध के मामले पर कहा कि कुछ लोगों को मना लिया गया है. कुछ लोगों को मनाए जाने के प्रयास कर रहे हैं और जो लोग नहीं मानेंगे उनके साथ पार्टी की रीति-नीति के तहत ही चुनावी मैदान में मजबूती के साथ दमदार तरीके से चुनाव लड़ा जाएगा.वहीं, मुख्य विपक्षी पार्टी के विरोधियों के डैमेज को कंट्रोल करना एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है. जो अलग-अलग पदों के प्रत्याशी पार्टी के विरोध में निर्दलीय चुनावी मैदान में उतर चुके हैं, ऐसे विरोधियों का डैमेज कंट्रोल करना अब पार्टी के लिए एक बड़ा चैलेंज हो गया है. विपक्षी पार्टी के पार्टी की प्रदेश प्रवक्ता ने इस बात को स्वीकार किया है कि पार्टी के सिंबल पर जिन लोगों का टिकट नहीं मिल पाया है, ऐसे पार्टी कार्यकर्ता दुखी होंगे. ऐसे कार्यकर्ताओं का मनोबल भी टूटा होगा. उन्होंने इसको एक नेचुरल प्रक्रिया करार देते हुए कहा कि जिन लोगों का टिकट नहीं हो पाया है, ऐसे पार्टी कार्यकर्ताओं से समन्वय स्थापित किया जाएगा. उनका मान-मनोव्वल किया जाएगा और उनको मनाने के हर संभव प्रयास किए जाएंगे. देहरादून में मौजूद में पूरे प्रदेश भर में अपने ही प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे सत्ताधारी के इन वाक्यों को लेकर के गहन मंत्रणा चल रही है. नाम वापसी तक कई लोगों से बातचीत की गई. वहीं, कुछ ऐसे भी जिनसे बात करने की लाख कोशिशों के बाद नतीजा सिफर ही निकला. नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं। जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं। आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी। मतदाताओं के सामने खड़ी समस्याओं के समाधान से अधिक उनकी भावनाओं के दोहन की फिक्र रही है। राजनीति पर उनकी राय अच्छी नहीं है। यहां ‘यूज एंड थ्रो’ चलता है। उन लोगों पर सवाल खड़ा किया जो सत्ता में आने वाली पार्टी में शामिल हो जाते हैं।उन्होंने कहा- कई लोग सत्ता में आने वाली पार्टी की ओर दौड़ पड़ते हैं। ऐसे में विचार और वफादारी आखिर कहां जाती है? हमारे देश में विचारधारा कोई समस्या नहीं है, विचारों का खालीपन समस्या है। विचारधारा और सिद्धांतों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को और मजबूत करने की है।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।