ब्यूरो रिपोर्ट/देहरादून। दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र की ओर से आज पूर्वाह्न 10:30 बजे केदारनाथ त्रासदी पर एक समीक्षात्मक विमर्श का आयोजन किया गया। इस विमर्श बैठक मेें पर्यावरणविशेषज्ञों,सामाजिक विज्ञानियों व चिंतकों द्वारा आज से 11 साल पूर्व इसी दिन आयी भीषण आपदा के कारणों और भविष्य में ऐसी आपदाओं से किस तरीके से सुरक्षा की जाय, इस पर गहन चिंतन किया गया। प्रमुख समाज विज्ञानी और दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के अध्यक्ष प्रोफे. बी. के. जोशी के अध्यक्षता में चली इस विमर्श बैठक में कई विशेषज्ञ लोगों ने प्रतिभागिता की। प्रोफे. बी. के. जोशी ने अपने बीज वक्तव्य में कहा कि वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा को ग्यारह साल हो गये हैं। प्राकृतिक आपदाओं के प्रति हिमालय की संवेदनशीलता के बारे में सोचने और विमर्श के लिए कदाचित उचित बात होगी कि क्या इस त्रासदी से हमने कोई सबक सीखा है? प्राकृतिक आपदाओं को रोकने या उनसे निपटने के लिए हम क्या कदम उठा रहे हैं। केदारनाथ त्रासदी ने तीर्थयात्रियों को प्रभावित किया था। हिमालय प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है और हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन और बढ़ते मानवीय दबाव के प्रभाव में आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में और वृद्धि हो रही है।प्रोफे. जोशी ने कहा कि महत्वपूर्ण मुद्दा उन नीतियों, उपायों और कदमों की पहचान करने पर विचार करना है जो आपदाओं को रोकने के लिए कारगर हो सकते हैं। यह सुनिश्चित किया जाय कि हिमालय की संवेदनशीलता को न बढ़ाएं बल्कि इसकी संवेदनशील पारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान को कम करने का प्रयास किया जाय। उन्होंने आगे कहा आज उत्तराखंड में दो विरोधाभासी प्रवृत्तियाँ देखने को मिल रही हैं – एक ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक से अधिक लोग या तो राज्य के बाहर या नजदीकी शहरी क्षेत्रों में पलायन कर रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप भूतिया गाँवों की संख्या बढ़ रही है जबकि दूसरी तरफ राज्य के बाहर से लोग यहाँ आकर पहाड़ों में घर,रिजॉर्ट्स आदि बना रहे हैं। बैठक में पर्यावरण विद डाॅ. रवि चोपड़ा ने कहा कि अब यह स्पष्ट होने लगा है कि ग्लाबल वार्मिंग का दौर शुरू हो चुका है हिमालय की भौगोलिक परिस्थिति को देखते हुए यहां के तेजी से बढ़ते नगरीकरण के साथ ही वहां के स्थानीय पर्यावरण पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। पर्यावरण संरक्षण व जागरूकता के लिए लोगों को जोड़ने की पहल होनी चाहिए। वाडिया हिमालय भू-विज्ञान के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डाॅ.वी. के. तिवारी ने स्लाइड शो के माध्यम से केदारनाथ त्रासदी के विविध पक्षों पर गहन प्रकाश डाला। भू-विज्ञानी डाॅ. एस. पी. सती ने कहा कि यह विडम्बना है कि केदारनाथ त्रासदी से सबक न लेकर भी हम लोग आज भी उन संवेदनशील जगहों पर पहले से ज्यादा संख्या में निर्माण करते जा रहे हैं। हमें इस प्रदेश में तीर्थटन व पर्यटन दोनों को स्पष्ट तौर पर अलग अलग परिभाषित करने की आवश्यकता है। समाजिक कार्यकर्ता अनूप नौटियाल ने कहा कि पर्यावरण की अनदेखी कर किये गये विकास से आम लोगों में निराशा, गुस्से व चिन्ता का भाव पैदा हो रहा है। कुल मिलाकर प्रदेश को दोहरे चरित्र वाले विकास से विकास से बचाया जाना चाहिए। ज्ञान विज्ञान समिति के विजय भट्ट ने कहा कि परम्परागत लोक में गांव ढालदार जगहों व नदियों के किनारे की जगहों में नहीं बसा करते थे,पर आज हमने लोक के इस परम्परागत ज्ञान को बिसरा दिया है और हम बिना सोचे समझे कहीं भी अपनी बसावट बना ले रहे हैं,इससे आपदा में नुकसान की और बढोतरी हो रही है, यह बेहद चिन्ताजनक बात है। स्वतन्त्र पत्रकार फिल्मकार जयप्रकाश पंवार ने कहा कि मोरेन वाली संवंदनशील जगहों पर भारी भरकम निमाण कार्य भी आपदा को बढाने में मददगार होते है।आज गुप्तकाशी, जोशीमठ, नैटवाड सहित कई संवेदनशील जगहों पर भारी भवन के निमाण कार्य हो रहे हैं। इस तरह के विनाश को आमंत्रण देने वाले विकास से बचा जाना चाहिए। सामाजिक चिंतक बिजू नेगी ने कहा कि हमें अपनी जिम्मेदरियों को समझते हुए पर्यावरण सम्मत विकास के प्रति सिटीजन कौंसिल जैसी समिति का गठन करके उसके माध्यम से भी अपनी आवाज मुखरित करने के प्रयास करने होंगे। हिमोत्थान की पूर्व प्रमुख मालविका चौहान ने कहा कि हमें इस बात पर गहराई से सोचना होगा कि उत्तराखण्ड में लोग किस वजह से यहां आने के लिए अधिकाधिक लालायित रहते हैं। हमें इनके कारणों की गहन पडताल करके ही सही विकास मूलक रणनीति बनाने की जरूरत है। प्राचार्य व भूविज्ञानी डाॅ. डीसी नैनवाल ने कहा कि उत्तराखण्ड की भूआकृति व भूविज्ञान के आधारभूत बिन्दुओं को पाठ्यक्रम में शामिल कर छात्रों को स्कूल कालेजों में पढाया जाना चाहिए। राज्य आपदा प्रबन्धन के डाॅ. पीयूष रौतेला ने कहा कि देहरादून,हल्द्वानी, रामनगर आदि जैसे कुछ और शहर भूकम्प के लिहाज से अतिसंवेदनशील हैं। केदारनाथ आपदा 2013 के बारे में कई महत्वपूर्ण बातों की जानकारी देते हुए उन्होने कहा कि हमें यहां की धारणक्षमता इसके प्रति सचेत रहकर आपदा के सुरक्षात्मक उपायों पर सोचने की आवश्यकता है।समाजिक कार्यकर्ता व घुमक्कड़ हिमांशु आहूजा ने कहा कि नियोजन में यह ध्यान रखना होगा कि आपदाग्रस्त इलाकों में आर्थिकी के नये स्रोतों को विकसित करने की जरूरत समझनी होगी क्योकिं आर्थिकी ही असल तौर पर आपदा की जड़ है। अतः हमें इस दिशा में सोचने की जरूरत समझी जानी चाहिए । पत्रकार व पूर्व विधायक केदारनाथ मनोज रावत ने कहा कि हमें बदरीनाथ व केदारनाथ को बचाना ही होगा इसकी संवेदनशीलता को देखते हुए इसके परम्परागत यात्रा स्वरूप को बचाये व बनाये रखनेे की महति आवश्यकता है। आज हालत यह है कि स्थानीय सामान्य आदमी तक को केदारनाथ तक जाने में अनेक दिक्कतों का सामना करना पड रहा है। अतः सरकार, प्रशासन व जन सामान्य के उचित समन्वय से इन संवेदनशील तीर्थ स्थलों व यहां आने वाले तीर्थयात्रियों की सुविधा और आपदा से सुरक्षित रखने के दीर्घगामी प्रयास करने चाहिए। इस बैठक में प्रसिद्व पुरातत्वविद प्रो. महेश्वर प्रसाद जोशी, दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के प्रोग्राम एसोसिएट चन्द्रशेखर तिवारी, पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के देवाशीष सेन,पूरन बर्तवाल, सहायक पुस्तकालयध्यक्ष जगदीश सिंह महर सहित अन्य लोग उपस्थित थे।