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उत्तराखंड आंदोलन में गिर्दा के गीतों ने दी थी धार: डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

10/09/24
in उत्तराखंड
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ब्यूरो रिपोर्ट। जनकवि, संस्कृति कर्मी और स्वभाव से ही आंदोलनकारी गिरीशचंद्र तिवारी गिर्दा का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के हवालबाग विकासखंड में10सितम्बर, 1945 को ज्योली (अलमोड़ा) में जन्मे गिरीश तिवारी अपनी युवा अवस्था से ही प्रगतिशील विचारधारा के साथ जुड़ गये थे। ज़ाहिर है कि वे सामाजिक स्तर पर सामुदायिकता के प्रबल पक्षधर थे। समाज में व्याप्त तमाम-तमाम विसंगतियों तथा सरकारी-ग़ैरसरकारी स्तर पर किसी किस्म के शोषण तथा दमन के मुखर विरोधी थे, किन्तु एकल विरोध से कुछ सम्भव नहीं, इसलिए वे संगठन-संस्थाओं का महत्त्व समझते थे। अपनी रचनात्मक भूमिका के लिए इसीलिए वे सदैव समूहबद्ध होकर संस्थागत तरीके से जहाँ जनान्दोलनों में शिरकत करते थे, वहीं जनमन की अभिव्यक्ति के लिए जनगीत भी रचते चलते थे। जनता के बीच सीधे संवाद स्थापित करने के लिए उन्होंने नाट्य मण्डली के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसी जनअभिरुचि व संस्कृतिकर्म के चलते उन्होंने गीत एवं नाट्य प्रभाग में नौकरी करने का निर्णय भी लिया और बृजेन्द्र लाल शाह, मोहन उप्रेती, लेनिनपन्त, चारुचन्द्र पाण्डेय के साथ मिलकर पहाड़ के लोक जीवन में नयी स्वस्थ समाज व्यवस्था लाने के लिए जनसामान्य के बीच उन्हीं के मुद्दों को लेकर साहित्य-कला-संस्कृति की अलख जगाने में जुट गये। इतना ही नहीं, वे समझते थे कि बिना क्रान्तिकारी राजनीति के यह पूँजीवादी शैतान व्यवस्था का अन्त नहीं है, वे राजनीति की क्रान्तिकारी धारा से जुड़ गये। इसी क्रम में वे उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के भूमिगत, क्रान्तिकारियों के साथ भी जुड़ गये। लोक गीतों की परम्परा में गुमानी पन्त, रीठागाड़ी, हरदा सूरदास, झूसिया दमाई, गौर्दा के जनोन्मुख रचनाकर्म को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने रंगमंच का महत्त्वपूर्ण उपयोग करते हुए उसे सामाजिक परिवर्तन का सकर्मक औज़ार बना लिया। इसी आधारभूमि पर गहरी संवेदना और स्पष्ट जनपक्षधरता के लोकगीत रचते और उन्हें संगीतबद्ध कर सांस्कृतिक मोर्चे को व्यापक स्वरूप और गति प्रदान करने में लगे रहे। इतना ही नहीं, लोकसाहित्य के साथ-साथ वे हिन्दी साहित्य को भी अपने जनरचनाकर्म से समृद्ध करते रहे। वे सच्चे अर्थों में त्रिलोचन-बाबा नागार्जुन की परम्परा के जनधर्मी रचनाकार थे। नाटक के स्तर पर भी 1975 में देश में लगी इमरजेंसी के मुखर खि़लाफत में मद्देनज़र उन्होंने ‘अन्धायुग’ एवं ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’ जैसे स्वातन्त्रय-भावबोध वाले तीखे नाटकों का अनेक बार सफल मंचन किया। ‘धनुष यज्ञ’ तथा लोकवीर गाथा केन्द्रित ‘अजुवा-वफौल’ को नाट्य रूपान्तरित (नगाड़े खामोश हैं) कि जैसी पूरी सीरीज ही लगा दी। अपने रचनाकर्म व रंगमंच को व्यापक जनसरोकारों से जोड़ते हुए वे पहाड़ में ‘शराब विरोधी आन्दोलन’, ’चिपको आन्दोलन’ जैसे अनेक जनविद्रोहों में सक्रिय रहे। इसी जनक्रान्ति धारा के प्रवाह और पुष्ट विचार के साथ वे पृथक उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के अग्रणी सेनानियों के बीच खड़े हो गये और समूचे पहाड़ को दिल्ली सरकार से अपने स्वाभिमान और हक-हकूक के लिए आर-पार खड़ा कर दिया। पूरे महत्त्वपूर्ण राज्य आन्दोलन के दौरान गिर्दा जनान्दोलन को प्रखर से प्रखरतम धार देने के लिए कुमाऊँनी भाषा में प्रतिदिन सुबह-सुबह एव नये जनगीत (छन्द) लेकर प्रस्तुत रहते। आज इन छन्द गीतों का संकलन ‘उत्तराखण्ड काव्य’ के रूप में हमारे समक्ष है – हमेशा-हमेशा को जगाते रहने के लिए। जन संस्कृति और जन प्रतिरोध के इस चौबीसों घण्टे सक्रिय रहने वाले सेनानी-रचनाकार ने ‘शिखरों के स्वर’ (1969), हमारी कविता के आखर (1978), रंग डारि दियो हो अलबेलिन में (सम्पादन), उत्तराखण्ड काव्य (2002) जैसे महत्त्वपूर्ण जनपक्षधर काव्य-संकलन दिये। ‘धनुष यज्ञ’ नाटक भी लिखा – जो आपातकाल के विरोध में तत्कालीन व्यवस्था के खि़लाफ खुला विरोध था। उन्होंने गीत एवं नाट्य विभाग की नौकरी के अन्धायुग, अँधेरनगरी, थैंक्यू मिस्टर ग्लाड, भारत दुर्दशा, नगाड़े खामोश हैं इत्यादि नाटकों का सपफ़ल मंचन-निर्देशन किया। सामाजिक स्तर पर ‘चिपको आन्दोलन’, ‘नशा नहीं, रोजगार दो आन्दोलन’, ‘उत्तराखण्ड आन्दोलन’ के सकर्मक रचनाधर्मिता का निर्वाह करते हुए एक सिपाही की तरह हरदम मैदान में भी जुटे-डटे रहे। फिल्म क्षेत्र में गिर्दा ने फिल्म ‘वसीयत’ में मुख्य किरदार की सफल धारदार भूमिका निभायी। ड्राइविंग लाइसेंस, बीबीसी हिन्दी-अंग्रेज़ी के समाचार पत्रों चैनलों में पहाड़ की पीड़ा और संघर्ष को अभिव्यक्ति दी। युगमंच, पहाड़, जागर, हिमालय संस्कृति और विकास संस्थान के संस्थापक मण्डल के सक्रिय सदस्य रहे। नैनीताल समाचार जंगल के दावेदार, उत्तराखण्ड नवनीत तथा उत्तरा प्रकाशनों से भी सम्बद्ध रहे उन्हें उमेश डोभाल, विरासत, गुणानन्द पथिक, कुमाऊँ गौरव, गढ़ रौरव, संस्कृति विभाग, इफ्टा, मोहन उप्रेती, आचार्य चन्द्रशेखर, जयदीप, दिल्ली सिटीजंस फोरम तथा न्यूजर्सी अमेरिका से ब्रेख्त सम्मान से सम्मानित किया गया। ताउम्र समाज के शोषित-उत्पीड़ित जनसमुदाय में सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना की अलख जगाकर एक सच्चे इन्सान की भूमिका में सक्रिय जीवन जीते गिर्दा ने जब गत 22 अगस्त को अन्तिम साँस ली तो जैसे समूचा उत्तराखण्ड पलभर को ठहर-सा गया। किन्तु इस शरीर के साथ छोड़ देने के बावजूद गिर्दा के गीत गिर्दा की संस्कृति और जनसमर राजनीति पहाड़वासियों के लिए सदैव रूढ़ियों को तोड़ने और नवीन जीवन मूल्यों के नये जनसंघर्ष की अलख जगाने की प्ररेणा देती रहेगी। इस सच्चे सेनानी को हमारा सुर्ख सलाम।

गिर्दा की एक कविता

कैसा हो स्कूल हमारा

कैसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न बस्ता कन्धा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न अक्षर कान उखाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न भाषा जख़्म उघाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा

कैसा हो स्कूल हमारा

जहाँ अंक सच-सच बतलायें, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ प्रश्न हल तक पहुँचायें, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न हो झूठ का दिखव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न सूट-बूट का हव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा

कैसा हो स्कूल हमारा

जहाँ किताबें निर्भय बोलें, ऐसा हो स्कूल हमारा

मन के पन्ने-पन्ने खोलें, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न कोई बात छुपाये, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न कोई दर्द दुखाये, ऐसा हो स्कूल हमारा

कैसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न मन में मन-मुटाव हो, जहाँ न चेहरों में तनाव हो

जहाँ न आँखों में दुराव हो, जहाँ न कोई भेद-भाव हो

जहाँ फूल स्वाभाविक महके, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ बालपन जी भर चहके, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न अक्षर कान उखाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न भाषा ज़ख़्म उघाड़ें, ऐसा हो स्कूल हमारा

ऐसा हो स्कूल हमारा

गिर्दा को उत्तराखंड ने ही नहीं, बल्कि दुनिया ने कवि बनाया. क्योंकि गिर्दा की कविताओं में संघर्ष की बात थी, लोगों की पीड़ा की बात थी. लोग उन्हें जनकवि के रूप में मानते और उनकी कविताएं इसलिए भी पढ़ते थे क्योंकि लोगों को लगता था गिर्दा तो हमारे पहाड़ की बात कर रहे हैं. इंद्रेश मैखुरी कहते हैं कि आज कुमाऊं और गढ़वाल के बीच एकता का पुल गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ भी हैं. उनकी पिरोई कविताएं आज भी गढ़वाल और कुमाऊं को जोड़ती हैं.खैर, गिर्दा के जाने से जो शून्य उत्तराखंड में बना है उसकी भरपाई करना मुश्किल है, हालांकि, गिर्दा का ये गीत ‘जैता एक दिन तो आलु, ऊ दिन ए दुनि में’ हमेशा पहाड़ी जनमानस को सतत संघर्ष के लिए प्रेरित करता रहेगा जीवन भर हिमालय के जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्षरत गिर्दा के गीतों ने सारे विश्व को दिखा दिया कि मानवता के अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाला कवि किसी जाति, सम्प्रदाय, प्रान्त या देश तक सीमित नहीं होता. उनकी अन्तिम यात्रा में ‘गिर्दा’ को जिस प्रकार अपार जन-समूह ने अपनी भावभीनी अन्तिम विदाई दी उससे भी पता चलता है कि यह जनकवि किसी एक वर्ग विशेष का नही बल्कि वह सबका हित चिंतक होता है.गिर्दा के के बाद जिस तरह नैनीताल के मन्दिरों की प्रार्थनाओं,गुरुद्वारों के सबद कीर्तन और मस्जिदों में नमाज के बाद उनका प्रसिद्ध गीत “आज हिमालय तुमन कँ धत्यूँछ, जागो, जागो हो मेरा लाल”  के स्वर बुलन्द हुए, उन्हें सुन कर एक बार फिर यह अहसास होने लगता है कि धार्मिक कर्मकांड की विविधता के बावजूद हम मनुष्यों की जल,जंगल और जमीन से जुड़ी समस्याएं तो समान हैं. उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाला कोई ‘गिर्दा’ जैसा फक्कड़  जनकवि जब विदा लेता है तो पीड़ा होती ही है. बस केवल रह जाती हैं तो उसके गीतों की ऊर्जा प्रदान करने वाली भावभीनी यादें“ततुक नी लगा उदेख‚ घुनन मुनई न टेक। उनकी जन्म जयंती के अवसर पर कोटि कोटि नमन !!

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