डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के ग्रामीण जीवन चक्र से जंगलों को अलग कर उनके कटान के विरोध से ही 27 मार्च 1973 को चिपको आंदोलन की शुरुवात हुई थी। जिसमें वनों के साथ स्थानीय समुदाय का एक स्थायी जीवन शैली .प्राप्ति भाव छुपा था। जंगलों से लोगों के अटूट रिश्तों को देखते हुए 7.7.1880 के शासन आदेश संख्या 702 की याद भी 1980 के दशक तक वनादेशों में बनी रही। जब यह दोहराया गया कि ऐसा प्रतीत होता है कि परंपरागत तथा रूढ़ियों के द्वारा एक सर बोझ के रूप में ईंधन हेतु लकड़ियों का उपयोग काफी समय से होता आया है तथा इस समय यह संभव नहीं लगता कि पुराने चले आ रहे ग्रामवासियों के परंपरागत अधिकार को समाप्त किया जा सके।
छियालीस साल पूरे कर चुके चिपको से पहले भी जैव विविधता बनाये रखने के लिए जनता ने मुखर विरोध किया था। 1859-863 के बीच बंगाल में नील की खेती का विरोध हुआ था। आजादी की लड़ाई में ग्राम स्वराज की भावना देश के सात लाख गावों को आत्मनिर्भर बनाने की संकल्पना रखती थी। पर नियोजित विकास के क्रम मेंअंतर्संरचना को बनाने के लिए जिस रणनीति को अपनाया गया उसने धीरे धीरे नयी तकनीक और नयी आदाओं पर निर्भरता बनानी शुरू की। दूसरी योजना के महालनोबिस मॉडल से गति पकडे औद्योगिकीकरण का प्रभाव सीधे सीधे जल .जंगल .जमीन पर पड़ा। और शुरुवात हुई नर्मदा बचाओ आंदोलन की जो आज भी अपनी बात कह रहा है। अप्पिको तथा साइलेंट वैली जैसे मुखर विरोध, उड़ीसा का नियमगिरि तथा वेदांता के खिलाफ तमिलनाडु का तुतुकोडी आंदोलन चलते ही रहे हैं। बावजूद इसके पर्यावरण के मानकों की उपेक्षा कर भारी व आधारभूत निर्माण बेहिचक होते रहे हैं। सड़कें बनने में विस्फोटकों का बेहिचक इस्तेमाल हुआ है। सडक के नीचे के हज़ारों खेत बोल्डर और मलवे चौपट हुए हैं। नेपाल और भारत की गहन जैवविविधता वाले इलाके में पंचेश्वर बांध की प्रस्तावना साकार करने की कोशिशें परवान चढ़ती रहीं हैं। जनसुनवाइयों से विरोधी बाहर धकेल दिये गये हैं। पर्यावरणविद मौन रहे हैं। तन्द्रा में हैं। बुद्धिजीवी बहसों की नाप जोख कर रहे, अपने पूर्वाग्रहों के उनके भी कुलाबे हैं। और मीडिया भी तब जगता है जब बेहतर टीआरपी की उम्मीद बनीं दिखे। अख़बारों में वनवासियों और आदिवासियों द्वारा धरती और जंगल पर किये संघर्षों की ख़बरें बहुत सतही तरीके से सामने आ पाती हैं तो प्रगतिशील व प्रतिक्रियावादी उसी वैचारिक चेतना को जगाने में अपनी ऊर्जा लगाती रही हैं जहां से उन्हें कोई अपना सीधा फायदा होता नज़र आये। बावजूद इस उपेक्षा के पारिस्थितिकी वितरण संघर्ष चलते रहे हैं। इनके मूल में संसाधनों और आय के मध्य की असमानता से पैदा होने वाली पर्यावरण की लागत और कुछ ही हाथों या संस्थाओं, प्रतिष्ठानों की ओर जाने वाला मुनाफा है। जाहिर है की ऐसे लागत .लाभ ढांचे के पीछे जाति .वर्ग .नस्ल और लैंगिक असमानताएं भी विद्यमान होती हैं। जब जब प्रकृति दत्त संसाधनों का सीमा से अधिक प्रयोग किया जाता है तथा कारखानों की वजह से प्रदूषण बढ़ता है तब तब धरती की धारक क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सीधे सीधे पारिस्थितिकी वितरण से उपजने वाला संघर्ष गांवों कस्बों शहरों में फैलता ही रहा है।
इन पारिस्थितिकी वितरण संघर्षों की संख्या देश में 300 से अधिक हो गई हैण् जिनमें 57 प्रतिशत से अधिक आंदोलनों में वनवासी व आदिवासी समूह सक्रिय रहे हैं। विकास के ढांचे ने जल जमीन और जंगल पर अतिक्रमण किया है। धरती की धारक क्षमता के साथ अवलम्बन क्षेत्र के सिकुड़ने के साथ ही दूसरा चिंताजनक पक्ष वनवासियों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया जाना भी रहा है। हालांकि वनाधिकार क़ानून 2006 में वन भूमि तथा सामुदायिक वन अधिकारों को सुरक्षित करने पर जोर दिया गया था पर फरवरी 2019 में हुई सुनवाई में वनवासियों की अपनी भूमि से बेदखली जारी रही क्योंकि अनेकों नियम उपनियमों की जटिलता से वनाधिकार के उनके दावे ख़ारिज हो गए। 12 सितम्बर 2019 को हुई सुनवायी में सुप्रीम कोर्ट में सिक्किम को छोड़ कर शेष समस्त राज्यों द्वारा अपना पक्ष प्रस्तुत भी कर दिया गया। अब अंतिम सुनवाई 26 नवंबर को होनी है। वस्तुतः वनाधिकार क़ानून में पहचान और सत्यापन के द्वारा ही जमीन पर वनवासियों के हक़ और वनों पर उनका अधिकार तय होना है। जैविक संस्कृति में पर्यावरण के सजीव तत्वों में समस्त वनस्पति व प्राणी जगत यानि फ़्लोरा.फोना के साथ मुख्यतः वही वनवासी हैं जो अपनी आचरणपद्धतियों, रीति रिवाज, तीज त्यौहार, धर्मदर्शन, कलाकौशल से जमीन जल तथा वायु के एक विशिष्ट सांस्कृतिक रूप को निर्धारित ही नहीं करते रहे बल्कि उसका विकास भी करते हैण् क्रमिक रूप से नियमित रूप से। जैविक जगत व उसके पर्यावरण को ले कर मुख्यतः तीन विचारधाराएं सामने हैं। विकास आचार नीति, संरक्षण आचार नीति और संवर्धन आचारनीति। हिमालय की संस्कृति संरक्षण और संवर्धन आचार नीति का अद्भुत संयोग रही है जहां जैविक जगत से जुड़ निवासी अपने को पर्यावरण का एक घटक मानते रहे। पर जब विकास की नीतियों को स्थानीय समुदायों पर जबरन थोपा गया तब उसमें पर्यावरण मात्र उपभोग की वस्तु बना कर रह गया। परंपरागत जिंस, बीज, खाद और पूरी लोक वनस्पति पिछड़ेपन की प्रतीक मान ली गयी। बड़े पैमाने पर किये जा रहे उत्पादन से छोटे पैमाने पर किये काम टिक नहीं पाए।
भूमंडलीकरण व उदारीकरण से भले ही सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि दिखाई दी हो पर विषमताओं की खाई बहुत गहरी हो गयीण् आत्मनिर्भर होने की पूरी गुंजाइश वाला देश खेती के लिए विदेशी आदाओं और विदेशी तकनीक पर निर्भर हो गया। अरण्य संस्कृति के साथ जैविक खेती की परम्पराएं भी लगातार अवमूल्यित हुईं। पर्यावरण से मैत्री दुर्बल पड़ गयी, लम्बे समय से चली आ रहीं परम्पराएं, मान्यताएं, रीतिरिवाज विकास और नियोजन के अति सामान्यीकरण लक्ष्यों में कहीं ठहर गए, लुप्तप्राय हुए। विकास ने जैव विविधता पर संकट खड़े कर दिये। स्थानीय उत्पाद तेजी से विनिष्ट हो गए। पर्वत प्रदेश अपनी अनाज, दाल, मसाले, सब्जी व फल, दूध की जरूरतों के लिए मैदानी भागों और बड़ी मंडियों के मोहताज हो गए। अभी परंपरागत कृषि में दो लाख एकड़ भूमि में उत्तराखंड में जैविक कृषि की जा रही है अब उत्तराखंड में जैविक खेती के लिए अलग से एक्ट पारित हो चुका है। इससे किसानों को उनके जैविक उत्पादों वाजिब कीमत भी मिलेगी तो साथ ही उत्तराखंड के जैविक उत्पादों को ब्रांड नाम भी मिलेगा। अभी उत्तराखंड में करीब 500 क्लस्टर हैं जिनमें पचास हज़ार किसान जैविक खेती से जुड़े हैं जो एक लाख अस्सी हज़ार क्विंटल जैविक कृषि उत्पादों का उत्पादनकर्ता है। इनमें गहत, मंडुआ, मक्का, सरसों, भट्ट, राजमा, गेहूं, चावल, मसाले व सब्जी मुख्य हैं।
जैविक उत्पादन परिषद के समूहों के साथ अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चम्पावत, नैनीताल, पौड़ी, चमोली टेहरी, उत्तरकाशी व देहरादून में जैविक खेती की जा रही है। ऐसे प्रावधान भी संभव हैं की बंजर व अनुपयुक्त पड़ी कृषि भूमि को भूमि.स्वामी लीज पर दे सके। इस विधेयक के द्वारा उत्तराखंड में जैविक खेती के न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी तय किया जाना है। दूसरी ओर मंडी परिषद जैविक उत्पादों को खरीदने के लिए रिवाल विंग फण्ड भी स्थापित करेंगी। इस विधेयक से जैविक पदार्थो का क्रय.विक्रय तो होगा ही साथ में प्रोसेसिंग करने वाली एजेंसी पर भी निगरानी रखी जानी संभव होगी। इनमें एनजीओ भी शामिल किये जायेंगे। यह संकेत भी दिये गए हैं कि जैविक उत्पाद के उत्पादक किसानों व संग्रहकर्ताओं से लागत व कीमत के पक्षों में की जा रही किसी भी प्रकार की बेईमानी व धोखाधड़ी पर कार्यवाही कर सजा और जुर्माने का भी प्रावधान होगाण् जैविक खेती को सबल आधार देने के लिए उत्तराखंड में अधिसूचित क्षेत्र के दस विकास खण्डों में रासायनिक उर्वरकोंए कीटनाशकोंको प्रतिबंधित व पशु चिकित्सा में प्रयुक्त दवाओं के साथ पशु चारे की बिक्री को विनियमित किया जाएगाण् पशु आधारित खेती से ही जैविक कृषि संभव है।
पहाड़ के किसान दूध.दन्याली के लिए पशुपालन करते रहे हैं। जैविक कृषि विधेयक के पहले क्रम में चिन्हित ब्लॉकों में रासायनिक खाद व खेती में प्रयोग होने वाले अन्य रासायनिक पदार्थ भी प्रयोग में नहीं लाये जायेंगे। अगर अधिसूचित क्षेत्र में प्रतिबंधित पदार्थों की बिक्री होती है तो कानूनी कार्यवाही होगी। जिसमें एक लाख का जुर्माना व साल भर की कैद भी हो सकती है। जैविक खेती खेतिहरों को बीज, प्रशिक्षण, बिक्री की साथ प्रमापीकरण की सुविधा भी प्रदान करेंगी। अभी जो भी किसान जैविक खेती कर रहे हैं, उन्हें इन पदार्थों की वाजिब कीमत नहीं मिलती। बाजार में मार्केटिंग का मायाजाल है जो शुद्ध व जैविक के नाम पर मोटा मुनाफा वसूल करते रहे हैं। साथ ही नकली व मिलावट वाले पदार्थ बेच उपभोक्ता के साथ भी ठगी करते हैं। बागवानी को सुरक्षित रखने के लिए भी प्राविधान हैं। अब सरकारी नर्सरी को नर्सरी एक्ट में रख दिया गया है। यदि यह गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरती तब पचास हज़ार रुपये का जुर्माना नर्सरी को देना होगा। अभी अधिकांश पौंध राज्य से बाहर से आती है अब इनकी गुणवत्ता की बिक्री के लिए कड़े नियम बनेंगे। नयी पौध नरसरी खोलने के प्राविधान भी होंगे। पौध गुणवत्ता के लिए संचालक जिम्मेदार होगा। नये फलदार पौंधों को पेटेंट भी कराया जाएगाण् ऐसे में उत्तराखंड के दस विकास खण्डों से की जा रही यह पहल उन वनवासियों व अनुसूचित जनजातियों के समग्र लोकज्ञान व लोक वनस्पति पर गहरी समझ को पुनर्जीवित करने में उत्प्रेरक का काम करेंगी जो मध्यवर्ती तकनीक से बेहतर और कारगर उत्पादन का हुनर जानते थेण् यह सचाई भुला दी गयी की किसान ही अपने खेत खलिहान का वैज्ञानिक है। वह जानता है कि उसे अपने खेत में क्या इस्तेमाल करना है और अपने अनुभवों से वह यह भी सीख गया है कि कुछ अधिक उगा लेने के फेर में उसकी कैसी दुर्गति हुई है। किसान को वाजिब कीमत मिलने वाला बाजार मिल जाये तो जैविक उत्पाद व जंगलों में पायी जाने वाली वनौषधियों, भेषजों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सबल आधार मिल सकता है। जैविक खेती तो ऐसी ही सदाबहार कृषि पद्धति रही जो पर्यावरण के संतुलन, जल और वायु की शुद्धताए भूमि के प्राकृतिक रूप को बनाये रखनेमें सहयोगीए जलधारण क्षमता बनाये रखने में सक्षम थीं इसी लिए यह सदियों से कम लागत से लम्बे समय तक बेहतर उत्पादन देने में समर्थ बनीं रही। इन पर परम्परगत ज्ञान का ठप्पा लगा तो इसे पिछड़ेपन का संकेत माना गया।