डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के पारंपरिक खाद्य उत्पादों की अपनी खास पहचान है. इन्हीं में से एक लाल चावल भी है. लाल चावल उत्तराखंड के बागेश्वर समेत कई पर्वतीय जिलों में उगाया जाता है. यह पोषक तत्व से भरपूर होता है. इसे हिमालयन रेड राइस या वीडी राइस भी कहा जाता है. इसमें एंटी-ऑक्सीडेंट गुण भरपूर मात्रा में होते हैं. यह चावल उत्तराखंड के अलावा उत्तरी भारत और हिमालय के सीमावर्ती राज्यों में भी उगाया जाता है. यह ग्लूटेन फ्री होता है. इसमें प्रोटीन की मात्रा सफेद चावल से ज्यादा होती है.बागेश्वर की महिला व्यापारी ने बातचीत में कहा कि जब से हमने लाल चावल बेचना शुरू किया है, तब से लोग सफेद चावल को कम खरीद रहे हैं. बागेश्वर में तो लाल चावल की खूब डिमांड रहती है क्योंकि इसमें सभी जरूरी पोषक तत्व मौजूद होते हैं. उन्होंने कहा कि दुकान के अलावा हम जहां भी स्टॉल लगाते हैं, लोग वहां भी लाल चावल की खूब डिमांड करते हैं. खासतौर पर शुगर के मरीज लाल चावल को अधिक खरीदते हैं. उनके लिए यह काफी फायदेमंद होता है. बागेश्वर के अलावा दिल्ली, देहरादून और हल्द्वानी में भी इसकी काफी मांग रहती है. नगर की सरस मार्केट में लाल चावल 100 रुपये किलो बिकता है और मेले आदि में 120 रुपये किलो तक बिकता है. लाल चावल को पहाड़ के ऊपराऊ वाले स्थानों में उगाया जाता है. यह चावल तलाऊ वाले स्थानों में नहीं होता है. इसे हम दुकान में कुंतल के हिसाब से मंगाते हैं और कुछ ही दिन में यह बिक जाता है.
उन्होंने आगे कहा कि पहाड़ के पुराने लोगों को लाल चावल की महत्ता के बारे में जानकारी है, इसलिए वे इसे अच्छे दामों में भी खरीदकर ले जाते हैं. आयुर्वेद के अनुसार, लाल चावल में आयरन, जिंक, पोटैशियम, मैग्नीज, फाइबर, और मिनरल्स मौजूद होते हैं. इसमें मौजूद एंटी-ऑक्सीडेंट और फ्री रेडिकल शरीर में कोलेस्ट्रॉल और वजन को कम करते हैं. यह चावल मधुमेह को नियंत्रित करने में मदद करता है. लाल चावल दिल के स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है. यह पाचन क्रिया को अच्छा करने में मददगार होता है. यह त्वचा के लिए भी फायदेमंद होता है. इसमें कैल्शियम, आयरन, विटामिन बी1 और बी2 जैसे पोषक तत्व होते हैं. लाल चावल में मौजूद जिंक रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करता है. इसमें मोनाकोलिन K होता है, जो कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करने में मदद करता है. लाल चावल में ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होता है, इसलिए यह मधुमेह रोगियों के लिए अच्छा विकल्प है. लाल चावल को भारतीय खाने में विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है। इसे आमतौर पर दाल, सब्जी या खिचड़ी के साथ खाया जाता है। इसके स्वाद में एक हल्का मिट्टी का स्वाद होता है, जो इसे अन्य चावलों से अलग बनाता है। यह चावल पारंपरिक भारतीय व्यंजनों में इस्तेमाल होता है, खासकर उत्तराखंड के विभिन्न पर्वों और सामाजिक आयोजनों में।इस चावल को विशेष रूप से रात्रि के भोजन में सेवन करने की सलाह दी जाती है, क्योंकि यह शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है और रात भर के लिए आवश्यक पोषण देता है।, इसमें उपस्थित एंटीऑक्सीडेंट्स और फ्री रेडिकल्स शरीर में कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करते हैं और वजन कम करने में मदद करते हैं।उत्तराखंड का लाल चावल स्थानीय किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण कृषि उत्पाद है। इसकी खेती छोटे किसानों द्वारा की जाती है, जो पारंपरिक तरीके से इसका उत्पादन करते हैं। यह चावल न केवल किसानों के लिए आय का एक स्रोत है बल्कि राज्य की आर्थिक स्थिति को भी मजबूती प्रदान करता है। स्थानीय बाजारों के साथ-साथ, अब इस चावल की मांग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बढ़ रही है, विशेषकर स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहने वाले उपभोक्ताओं के बीच। इसके बढ़ते महत्व के कारण, यह चावल अब देश-विदेश में एक ब्रांड के रूप में अपनी पहचान बना रहा है।उत्तराखंड का लाल चावल न केवल स्वाद में लाजवाब है बल्कि इसके पोषण संबंधी लाभ इसे स्वास्थ्य के लिए एक बेहतरीन विकल्प बनाते हैं। यह चावल भारतीय खाद्य संस्कृति का अहम हिस्सा है और इसके बढ़ते महत्व से यह भविष्य में और भी लोकप्रिय हो सकता है। इसके स्वास्थ्य लाभ, प्राकृतिक उत्पादन और सांस्कृतिक महत्त्व के कारण, यह चावल स्थानीय किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण आय स्रोत बन चुका है और इसके साथ-साथ यह उपभोक्ताओं के लिए एक सेहतमंद विकल्प भी प्रदान करता है। उत्तराखंड का लाल चावल भारतीय उपमहाद्वीप की एक अनमोल धरोहर है। इसे हिमालयन रेड राइस कहा जाता है और यह चावल उच्च हिमालयी इलाकों में उगने वाली एक विशेष किस्म है। इसका लाल रंग प्राकृतिक द्रव्य “एंथोसायनिन” के कारण होता है, जो इसे अन्य चावलों से अलग करता है। एंथोसायनिन, एक प्रकार का एंटीऑक्सीडेंट है, जो न केवल चावल को रंग प्रदान करता है बल्कि इसे स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण बनाता है। यह चावल रासायनिक तत्वों से मुक्त होता है, क्योंकि इसे पारंपरिक और ऑर्गेनिक खेती के तरीके से उगाया जाता है। हिमालयी राज्य में औषधीय गुणों वाले मोटे अनाज के उत्पादन की सदियों पुरानी परंपरा अब खतरे में है। वैज्ञानिकों की मानें तो नित नए शोध ने नए बीजों के बूते बंपर पैदावार तो दी पर विकास की बयार में पहाड़ की प्राचीन फसल प्रजातिया संकटग्रस्त हो चली हैं। ऐसे में पुरानी फसल प्रजातियों के बीजों के साथ ही पेटेंट पर अंकुश को वैज्ञानिक किसान अधिकारों के संरक्षण की पुरजोर वकालत करने लगे हैं।मौजूदा दौर पहाड़ की मोटी अनाज प्रजातियों के माकूल नहीं रहा। वैज्ञानिकों के मुताबिक उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में कौंणी, चींड़ा (मडवा की तरह), जखिया की प्रजातिया, काला पहाड़ी भट, गहत, राजमा, सफेद तिल, काला जीरा, जौं, उपराऊ का धान (लाल चावल) आदि प्रजातिया विलुप्ति की कगार पर हैं। पर्वतीय क्षेत्रों की तमाम प्रजातिया अन्य क्षेत्रों में नहीं उगतीं। कोई पेटेंट न कर पाए इसलिए किसानों के अधिकारों का संरक्षण जरूरी है। मौसम परिवर्तन की चुनौतियों के बीच पुराने बीजों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाले मध्य हिमालय क्षेत्र में लगभग 70 प्रकार की फसलों का कृषिकरण किया जाता है। लाल चावल, जिसे आमतौर पर किसान अपने उपभोग के लिए उगाते हैं, सामान्य सफेद चावल की तुलना में चार-पांच गुना (औसतन 200-250 रुपये प्रति किलोग्राम) अधिक कीमत पर बिकता है। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*