डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखण्ड में 500 से 2200 मीटर की ऊॅचाई पर बहुतायत से पाये जाने वाले चीड़ के पेड़ों की पत्तियों को पिरूल नाम से जाना जाता हैण् उत्तराखण्ड वन सम्पदा के क्षेत्र में समृद्ध तो है ही, साथ ही चीड़ के वन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। 3.43 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में फैले चीड के वनों से ग्रीष्मकालीन सीजन में पतझड़ के समय लगभग 20.58 लाख टन पिरूल इनसे गिरता है। 20 से 25 सेमी लम्बे नुकीले पत्ते तीन पत्तियों के गुच्छ में सूखे पत्ते अत्यन्त ज्वलनशील होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में वनाग्नि के मुख्य कारणों में पिरूल भी एक कारण है, जिससे प्रतिवर्ष कई जंगल वनाग्नि के भेंट चढ़ते हैं। चीड़ के पेड़ पर लगने वाले ठीटे का थोड़ा बहुत व्यावसायिक उपयोग शो पीस बनाकर किया जाता रहा है, जो मैदानी क्षेत्रों के पर्यटकों को काफी लुभाते है। लेकिन अभी तक पिरूल इस्तेमाल थोड़ी बहुत मात्रा में मवेशियों के बिछावन के रूप में पशुपालकों द्वारा अवश्य किया जाता है।
प्रकृति के गर्भ में आज भी इतना सब कुछ छिपा है कि मनुष्य इसका सिर्फ अंदाजा ही लगा सकता है। जिसे हम अपने फायदे का सौदा समझते हैं कभी.कभी वही हमारी बर्बादी का कारण बन जाता है और जिसे बेकार समझने की भूल कर बैठते हैं वह जीवन के अस्तित्व की एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित होता है। हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाले चीड़ के पेड़ ऐसी ही श्रेणी में रखे जा सकते हैं। गर्मियों में चीड़ के पेड़ों से झरने वाले पिरूल अर्थात इसकी पत्तियां वनाग्नि का मुख्य कारण रहे हैं। इस पेड़ के आसपास दूसरे प्रजाति के पेड़ न उग पाने व जमीन की नमी को सोख लेने के कारण इसे पहाड़ों में पेयजल संकट के लिए भी जिम्मेदार माना जाता है। उत्तराखंड के वनों में चीड़ प्रजाति के वनों की संख्या सबसे अधिक है और यह अन्य प्रजाति के पेड़ पौधों वाले इलाके में अतिक्रमण कर लगातार अपना क्षेत्रफल बढ़ाते रहते हैं। इसकी पत्तियां गर्मियों में सूखकर जमीन पर गिरती हैं और जंगलों में लगने वाली आग का सबसे बड़ा कारण बनती हैं। इसकी वजह से हर साल जंगल का एक बड़ा क्षेत्र आग की भेंट चढ़ जाता है। एक अनुमान के मुताबिक हर वर्ष सैकड़ों हेक्टेयर वन क्षेत्र पिरूल के कारण जल जाते हैं।
लेकिन यही पिरूल अब ग्रामीणों की आजीविका का भरोसेमंद साथी बन गया है। एक ओर देश में जहां कोयला खनन से पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा है, वहीं पिरूल से कोयला बनाने की पद्धति लोगों को आजीविका उपलब्ध करा रही है। वन सम्पदा के संरक्षण व समुदाय की ईंधन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड सरकार द्वारा ग्राम्य परियोजना चलाई जा रही है। यह परियोजना कुमाऊँ क्षेत्र के नैनीताल, पिथौरागढ़, चंपावत व बागेश्वर जनपद के विभिन्न विकासखंडों में हिमालय अध्ययन केन्द्र द्वारा संचालित की जा रही है। इसमें चीड़ की पत्तियों पिरूल से कोयला यानि पाइन ब्रिकेट बनवाने की गतिविधि शुरू की गई है। यह गतिविधि ईंधन की आवश्यकता पूरी करने तथा वनाग्नि का खतरा कम करने के साथ.साथ आय का अच्छा स्रोत भी सिद्ध हो रही है। पिरूल से कोयले का निर्माण कर न सिर्फ उसे ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा रहा है, अपितु यह आय अर्जन का स्रोत भी सिद्ध हो रहा है। इसके निर्माण की विधि भी आसान है। पहले पिरूल को एक विशेष रूप से बनाये गये ड्रम में जलाते हैं। ड्रम के भीतर कम ऑक्सीजन की स्थिति में पिरूल पूरी तरह जल कर राख नहीं हो पाता और यह चारकोल में परिवर्तित हो जाता है, फिर लगभग 10 प्रतिशत गोबर का घोल बनाकर चारकोल को आटे की तरह गूंथा जाता है। इस मिश्रण को पाइन क्रिक्वेट मोल्डिंग मशीन में डालकर आसानी से कोयला बनाया जाता है।
पिरूल से बनने वाले इस कोयले की विशेषता है कि यह धुंआ रहित होता है। इसमें राख अत्यंत कम मात्रा में पैदा होती है। विशेष चूल्हे में लगभग 600 ग्राम पिरूल कोयले को डेढ़ घंटे तक उपयोग में लाया जा सकता है। धुंआ रहित होने के कारण इससे महिलाओं का स्वास्थ्य ठीक रहता है साथ ही जंगलों में लगने वाली आग पर भी काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। इसके अलावा जलावन के लिए लकड़ियों की कम कटाई से पर्यावरण संतुलन भी बना रहता है। आज राज्य के दो दर्जन से अधिक स्वयं सहायता समूह इस काम में लगे हैं। अकेले जनपद पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट विकास खंड में परियोजना के तहत 32 मशीनें व 100 चूल्हे लोगों को प्रदान किए जा चुके हैं। इससे करीब 800 परिवार लाभान्वित हो रहे हैं। राज्य के 11 जनपदों के 18 विकासखंडों के 76 चयनित सूक्ष्म जलागम क्षेत्रों के बीच यह परियोजना सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है। इनमे अधिकांशतः महिलाएं जुड़ी हुई हैं। स्वयं सहायता समूह से जुड़ी कुछ महिलाएं कहती हैं कि इससे जहां हमारी आंखों को नुकसान होने से बच रहा है वहीं रोज जंगल से लकड़ी लाने का झंझट भी समाप्त हो रहा है। गढ़वाल मंडल के चमोली गांव की हेमा डोबरियाल के अनुसार क्षेत्र के कई गांवों में ग्रामीणों ने पिरूल से कोयला निर्माण हेतु समूह का गठन किया है। प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद परियोजना के तहत मशीन व ड्रम प्राप्त किए हैं। मशीन के रखरखाव, बिजली का बिल इत्यादि की व्यवस्था के लिए समूह 25 रुपया मासिक जमा भी कर रहा है। इस परियोजना के शुरू होने के बाद से गांव में स्वच्छ व धुंआ रहित वातावरण तो बना ही है वहीं महिलाएं प्राकृतिक सम्पदा संरक्षण में भी अहम भूमिका निभा रही हैं। पिरूल से बने इस कोयले का उपयोग घरेलू कार्यों, होटलों में खाना पकाने व कपड़ों में प्रेस करने में किया जा रहा है। इसके व्यावसायिक प्रयोग पर न तो आज तक कोई अनुसंधान हुआ और यदि सीमित मात्रा में हुआ भी है तो उसको धरातल पर नहीं उतारा जा सका।
सन् 1970 के दशक में नैनीताल जिले के कैंची नामक स्थान में नवीन पाइनैक्स नाम से नवीन नाम के एक उद्यमी ने पिरूल से रेशा तैयार कर वस्त्र उद्योग में इसका इस्तेमाल किये जाने हेतु पहल की। कुछ महीनों तक नवीन पाइनैक्स ने स्थानीय लोगों से पिरूल एकत्र करवाकर इस दिशा में काम भी किया लेकिन इस पाइलट प्रोजैक्ट को उत्पादन शुरू करने से पूर्व ही बन्द करना पड़ा। इसके पीछे शासन स्तर की उदासीनता रही या उद्यमी की अपनी कोई परेशानी, लेकिन इस दिशा में भविष्य में कोई प्रोजैक्ट शुरू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। पिछले दिनों ल्वेशाल की स्कूली छात्रा का एक जिक्र जरूर काफल ट्री पर देखने को मिला, जिसमें स्कूली छात्रा ने पिरूल की हरी पत्तियों से टोकरी, बैग आदि बनाकर प्रेरक कार्य किया है यदि इस दिशा में लोगों में जागरूकता आये तो ये पहाड़ में प्लास्टिक के विकल्प के रूप में कैरी बैग का स्थान ले सकते हैं, जो पूर्णतः इको फ्रेंडली भी होगा और ग्रामीणों को रोजगार भी देगा। इधर अब उत्तराखण्ड सरकार पुनः इस दिशा में सक्रिय होती दिख रही है। गैर पारम्परिक ऊर्जा के क्षेत्र में इसके उपयोग पर काम शुरू भी हो चुका है। श्यामखेत भवाली तथा ग्राम चोपड़ा ज्योलीकोट में पिरूल संग्रह का कार्य किया जा रहा है, जिस के तहत 3 रूपये प्रति किग्रा की दर से ग्रामीणों से पिरूल क्रय करने की योजना है, जिसके लिए पिरूल इकट्ठा करने हेतु आवश्यक उपकरण आदि भी ग्रामीण महिलाओं बेरोजगारों को उपलब्ध कराये जा रहे हैं। उपलब्ध पिरूल से ब्रिकेट बनाने की योजना हैए जिसका इस्तेमाल ईंधन के रूप में किया जायेगा। अक्सर वनाग्नि का कारण बनता है, जिसके व्यापक हानिकारक परिणाम सर्वविदित हैं। अब तक पिरूल का उपयोग जानवरों के नीचे बिछाने तथा मक्खी, मच्छरों से उनकी सुरक्षा के लिए धुंआ करने के लिए किया जाता हैए लेकिन अब यही अपशिष्ट और जंगल का विनाशक मनुष्य और पर्यावरण के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है। प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री पिरूल से विद्युत उत्पादन की ओर भी ईशारा कर चुके हैं। यदि इस दिशा में सरकार द्वारा सकारात्मक पहल की जाती है तो उत्तराखण्ड के लिए सुखद ही होगा।