डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाड़ों में आजीविका का मुख्य साधन भेड़ पालन अब सिमट रहा है। इस वजह से ऊन का उत्पादन भी कम हो रहा है और इस ऊन के दम पर पनपने वाले कुटीर उद्योग जमीन पर टिक ही नहीं पा रहे हैं। हाल ये है कि एक समय में सबसे अधिक ऊन का उत्पादन करने वाले उत्तरकाशी में ही आठ गुना ऊन उत्पादन कम हो गया। ऊन का प्रयोग केवल दरियां और कालीन बनाने तक ही रह गया है। कभी पहाड़ों में हर घर में बुजुर्ग के हाथ में तकली घूमा करती थी। इनके हाथों से तकली गायब हो गई है। उत्तराखंड के 6 जिलों में करीब 17 हजार परिवार ही भेड़पालन व्यवसाय से जुड़े हैं। चारे की समस्या और ऊन के सही दाम न मिलने की वजह से नई पीढ़ी पुश्तैनी व्यवसाय अपनाने में रुचि नहीं दिखा रही है।
उत्तरकाशी जिले में अकेले 1200 मीट्रिक टन ऊन का उत्पादन होता था। जो महज 180 मीट्रिक टन पर सिमट कर रह गया है। हर्षिल घाटी में जाड़ जनजातीय समुदाय का बगोरी गांव स्थित है। जो अपने ऊन उद्योग और ऊनी सामानों के लिए देश और विदेश में विख्यात है, लेकिन आज यहां का ऊन उद्योग मात्र बुजुर्गों तक सीमित रह गया है। ग्रामीणों का कहना है कि पहले भेड़ पालन और ऊन उद्योग के लिए उद्योग विभाग और खादी ग्रामोद्योग की तरफ से ऊन खरीदी जाती थी, लेकिन आज किसी प्रकार का प्रोत्साहन इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए नहीं किया जा रहा है। यही कारण है कि इस पारंपरिक उद्योग से युवा पीढ़ी मुंह मोड़ रहा है। वर्ष 2012 में हुई पशु गणना में प्रदेश में भेड़ों की संख्या 3.69 लाख थी, लेकिन 2018 में हुई पशु गणना में भेड़ों की संख्या में कमी आई है। वर्तमान में उत्तराखंड में 538.24 हजार किलोग्राम ऊन का उत्पादन हो रहा है। भेड़ पालक का कहना है कि उत्तराखंड सरकार भेड़पालकों से 46 रुपये प्रति किलो की दर से ऊन खरीद रही है। जबकि हिमाचल के व्यापारी 75 रुपये किलो में मिश्रित ग्रेड की ऊन खरीद रहे हैं। भेड़पालकों को ऊनी वस्त्र तैयार करने का प्रशिक्षण तक नहीं दिया जाता। यदि ढांचागत सुविधाएं और हुनर विकसित किया जाए, तो भेड़ पालक उच्च गुणवत्ता के ऊनी धागे से बाजार में टिकने लायक उत्पाद तैयार कर सकते हैं। इससे घर बैठे रोजगार मिलने के साथ ही पलायन भी काफी हद तक रुक सकता है।
ऊंचाई वाले इलाकों में ग्रामीणों की आजीविका पारंपरिक रूप से भेड़.बकरी पालन पर टिकी थी। पहले उद्योग विभाग उत्तरकाशी, पुरोला और डुंडा में लगे कार्डिंग प्लांट की मदद से ऊन तैयार कर घरों में कताई बुनाई कर ऊनी वस्त्र तैयार करता था। आज स्थिति ये है कि कार्डिंग प्लांट बंद हैं और भेड़ पालक अधिकांश ऊन बाहरी राज्यों के व्यापारियों को औने पौने दामों पर बेचने को मजबूर हैं। थोड़ी बहुत ऊन को लुधियाना भेजकर इससे धागा तैयार कर कुछ ग्रामीण ऊनी वस्त्र तैयार तो कर रहे हैं, लेकिन महंगे और आकर्षक नहीं होने के कारण यह बाजारी प्रतिस्पर्द्धा में नहीं टिक पा रहे हैं। भेड़पालकों को कार्डिंग प्लांट से तैयार ऊन 105 रुपये किलो पड़ती है। जब इसे धागा तैयार करने के लिए लुधियाना स्पिनिंग मिल में भेजा जाता है तो यह धागा 800 रुपये किलो पड़ता है। यहीं स्पिनिंग मिल हो तो यह धागा 400 रुपये किलो में ही मिल सकता है। इसके साथ ही ऊन उत्पादकों को जरूरी हुनर एवं डिजाइन का प्रशिक्षण देना भी जरूरी है। उत्तरकाशी जिला में 1482 क्विंटल, चमोली में 1443, टिहरी में 608, रुद्रप्रयाग में 136, पिथौरागढ़ में 417, बागेश्वर में 289 क्विंटल ऊन का उत्पादन होता है वर्तमान समय में राज्य में 16 राजकीय भेड़.बकरी प्रजनन केंद्र है। लेकिन करीब तीन दशकों से इन केंद्रों में भेड़ों की नस्ल को नहीं बदला गया। मैरीनों भेड़ से 4 से 5 किलो. प्रति भेड़ ऊन प्राप्त होता है। जबकि पहाड़ों में पाई जाने वाले भेड़ों से 1.700 किलोण् ऊन निकलती है। वहीं, मैरीनों भेड़ का ऊन 16 से 19 माइक्रॉन का होता है। जो उच्च कोटि का मानना जाता है। लेकिन प्रदेश में 28 से 30 माइक्रॉन का ऊन उत्पादन हो रहा है। यह ऊन दरियां व कारपेट बनाने का काम आ रहा है। सरकार की यह योजना सफल हुई तो आने वाले समय में भेड़पालन व्यवसाय की तस्वीर बदल सकती है। जिससे पहाड़ों से पलायन भी रुकेगा।
भारतीय संस्कृति अरण्य प्रधान रही है! हमारे ऋषि दृ मुनियों ने पेड़ों के नीचे बैठकर मानव जीवन की गम्भीर समस्याओं पर चिन्तन किया और उपनिषदों तथा वेद पुराणों की रचना की! वे प्रकृति के पास शुद्ध भावना से गये और उसके प्रति आदर और प्रेम रखा! हम सब वनवासियों को विरासत में इन ऋषि मुनियों की सीख का फल मिला है! उनके बचन आज भी पर्वतों के वातावरण में गूंज रहे हैं! मनुष्य और प्राणियों का प्रकृति से जन्मजात सम्बन्ध रहा है और उन सम्बन्धों का निर्वहन आज भी छः माह सुरम्य मखमली बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालकों द्वारा किया जा रहा है! केदार घाटी के त्रियुगीनारायण पवालीकांठा, तोषी वासुकी ताल, केदारनाथ. खाम, चौमासी. खाम, रासी. मनणामाई, मदमहेश्वर. पाण्डवसेरा. नन्दीकुण्ड, बुरूवा. टिगरी.विसुणीतात, गडगू. ताली, तुगनाथ रौणी इलाकों के आंचल में फैले सुरम्य मखमली बुग्यालों में भेड़ पालकों द्वारा छः माह प्रवास कर अपनी पौराणिक परम्परा को जीवित रखने में अहम योगदान दिया जा रहा है!
भेड़पालकों का जीवन खानाबदोश जैसा है। पूरे वर्षभर भेड़ों के साथ रहने के कारण ये लोग अपने गांवों तक नहीं जा पाते हैं। ग्रीष्मकाल में उच्च हिमालयी बुग्यालों में तो शीतकाल में तराईए भावर में इनका जीवन गुजरता है। अलग.अलग स्थानों पर प्रवास करने के कारण इनका सारा जीवन टेंटों में गुजरता है। अधिकांश लोगों के पास टेंट तक नहीं होने के कारण मोटे कपड़े का टेंट बनाकर भेड़ पालक टेंटों में ठिठुरने को मजबूर रहते हैं। भेड़ों के साथ जाने वाले चरवाहों की हालत भी दयनीय ही रहती है।