शंकर सिंह भाटिया
15 अक्टूबर को मेरे बेटे प्रशांत की शादी शांतिकुंज में संपन्न हुई। उर्विजा बैंक में बेटे की सहकर्मी हैं। 16 अक्टूबर को घर के निकट शिवाय फार्म में रिसेप्शन हुआ। लेकिन शादी की खुमारी से अब जाकर मुक्त हुआ हूं।
इससे पहले मैं अपनी दो बेटियों की शादी कर चुका हूं, किरन का कन्यादान किया और तीन भतीजों की शादी को भी करीब से देख चुका हूं। भाई की शादी करने का भी मुझे अनुभव है। अपनी शादी को तो चार दशक से अधिक हो चुके हैं, तब मैं और पत्नी दोनों नाबालिग थे। उसकी यादें धूमिल सी कुछ मानस पटल में मौजूद हैं।
बेटे की शादी को इसलिए अलग कह रहा हूं, क्योंकि वह शांतिकुंज में संपन्न हुई। दशहरे के दिन तो वहां सैकड़ों शादियां हो रही थी। एक हाल में सामूहिक रूप से 21 शादियां हुई। बेटे की शादी का आयोजन हटकर और अलग था। इस आयोजन की शालीनता के लिए बहू उर्विजा के पिता संतोष कुमार जी उनकी श्रीमती जी का योगदान रहा।
शादी के वही मंत्र ‘मंगलम भगवान विष्णु, मंगलम गरुड़ध्वज….्र’ आदि ही थे, लेकिन आचार्य जी का उनके अर्थ को समझाने का अनुभव अभिनव था। करीब तीन घंटे का यह आयोजन कब संपन्न हो गया पता ही नहीं चला। इन मंत्रों के अर्थ समझकर बहुत अच्छा लगा, अब तक न जाने कितनी शादियों में यही मंत्र सुन चुके थे, लेकिन वे हमेशा बाउंस होते रहते थे। उनके गूढ़ अर्थ पहली बार समझ में आए।
इस शादी के दो अनुभव भी अभिनव रहे। पहला यह कि वर का पिता होने के बावजूद मेरी जेब से पूरे आयोजन में एक रुपया भी खर्च नहीं हुआ। दूसरा यह कि पूरे आयोजन में कहीं किसी तरह का लेनदेन, दहेज आदि का कोई मामला ही नहीं रहा। वर पक्ष को थोड़ी देर के लिए दहेज अच्छा लगता हो, क्योंकि नकदी से लेकर सामाग्री के रूप में घर में कुछ आमद ही होती है, लेकिन यदि इसे अन्य दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करें तो बहुत आसानी से इस संपत्ति के मोहपॉस से बाहर निकला जा सकता है। मेरा अनुभव कहता है कि इसके लिए थोड़ा निरपेक्ष होने की आवश्यकता होती है, बस आप लोभ-लालच से स्वतः मुक्त हो जाते हैं। विश्वास न हो तो खुद आजमाकर देख सकते हैं।
बेटे की शादी के ये अद्वितीय अनुभव हमेशा याद रहेंगे, बस आपके अशीर्वाद की दरकार है।