डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
मूलरूप से कुमाऊँ का टम्टा समुदाय राजस्थान के खेत्री व अलवर आदि स्थानों से कुमाऊँ में स्थापित हुए हालांकि इनकी कुछ शाखाएं नेपाल से भी यहां स्थानांतरित हुई हैं। मुझे पुराने बुज़ुर्ग टम्टा लोगों से बातचीत के आधार पर ब्यौरा मिला कि राजस्थान से आये टम्टा लोग अपने नाम के पश्चात सिंह प्रयुक्त करते हैं, क्योंकि उनका मानना था कि वो लोग राजस्थान के ठाकुर समुदाय से ताल्लुख रखते हैं, हालाकि संदर्भ के लिए इसकी कोई लिखित पाण्डुलिपि कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इन सिंह टम्टाओं की ताम्रकृतियाँ चौकी घानी संग्रहालय, जोकि जयपुर से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर है, में रखी गयी हैं। यहाँ के ताम्रशिल्पी टम्टा जाति से जाने जाते है जो की हिंदी शब्द तामता, ताम्रकार का ही अंग्रेजी में अपभ्रंष है, क्योंकि अंग्रेजी में हिंदी के त शब्द के लिए केवल टी शब्द ही आता है, अतः इन्हें टम्टा जाति से उच्चारित किया जाने लगा।
टम्टा समुदाय सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से संपन्न और कुलीन होते हैं। आज भी टम्टा समुदाय शिल्पकारों में कुलीन समझे जाते हैं और वो अपने मैट्रिमोनियल या तो सिर्फ टम्टाओं स्वगोत्री न होने पर या फिर आर्यों में ही करते हैं, बाकी शिल्पकारों की अन्य जातियों जैसे राम, लाल अदि से इनका वैवाहिक सम्बन्ध आदि नहीं होता है। आज कुमाऊँ में टम्टा समुदाय की जनसंख्या अनुमानतः एक प्रतिशत के आसपास है। इस समुदाय की साक्षरता दर बहुत अच्छी है और तकरीबन अस्सी प्रतिशत के आसपास आँकी गयी है। उत्तराखंड का प्राचीन ऐतिहासिक नगर अल्मोड़ा कला व संस्कृति के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान रखता है। इस नगर की पहचान बुद्धिजीवियों के नगर के रूप में की जाती है। बुद्धिजीवियों के अतिरिक्त यहाँ की पहचान बाल. मिठाई व ताम्र शिल्प से भी की जाती है, जिन्हें अल्मोड़े की सौगात बोलकर भी अक्सर नवाज़ा जाता है।
अल्मोड़ा की स्थापना के पश्चात सोलहवीं शताब्दी में चंद राजाओं ने यहाँ अपना मुख्यालय चम्पावत से स्थानांतरित किया। इस प्रकार अल्मोड़ा में चन्दों का शासन आरम्भ हुआ। इस तरह आज से तक़रीबन 500 वर्ष पूर्व टम्टा समुदाय के सदस्य कुमाऊं के चन्द राज.वंश के टकसालों में शाही ख़ज़ाने के लिए सिक्के गड़ने का काम करते थे। सन् 1744 में चन्द राज.वंश के ढलान और फिर 1814 में राज.वंश के लुप्त होने के बाद कुमाऊं के इन ठठेरों ने अपना ध्यान ताम्बे के घर.गृहस्थी व पूजा के बर्तनों तथा सजावटी वस्तुओं के शिल्प की ओर मोड़ा। एक ज़माने में टम्टा कारीगरों द्वारा बनाए गए परंपरागत तौला, गागर, परात, पूजा के बर्तन के अलावा वाद्य यंत्र रणसिंघा, तुतरी आदि बहुत प्रसिद्ध थे। ये ताम्रशिल्पी ताम्रधातु की खोज में इतने दक्ष थे कि ज़मीन के गर्भ में ताँबा कहाँ पर उपलब्ध होगा, उसकी खोज स्वयं कर लेते थे जबकि उस समय इनके पास न ही कोई वैज्ञानिक ज्ञान था और न ही सर्वेक्षण व खोज के यंत्र, उपकरण आदि। उन दिनों टम्टा लोग भूगर्भ से धातु का पत्थर निकालकर उसे परिष्कृत व शोधित कर ताँबे का ठोस गोला बना लेते थे। इस कार्य में वे मैग्नेसाइट के चूर्ण को लाल मिट्टी में मिलाकर ताम्र धातु के पत्थर को पिघलाने का पात्र बना लेते थे। तत्पश्चात भट्टी में ईंधन के रूप में लकड़ियों को दहन कर उसमें ज़मीन से निकला हुवा ताम्र धातु के पत्थर को पिघलाकर शुद्ध ताँबे का ठोस गोला बनाया करते थे। इस प्रक्रिया में उनके जो सहयोगी होते थे उन्हें आगरी कहाँ जाता था। आगरी कुमाऊँ के शिल्पकारों के ही अंतर्गत एक अन्य जाति होती है। इस प्रकार ताम्र पत्थर पिघलाने से प्राप्त शुद्ध ताँबे के इन ठोस गोलों से चंद राजाओं के कोषागार के प्रबंधक टम्टा तांबे के सिक्के ढाल कर बनाते थे। आज़ादी के बाद अल्मोड़ा में ताम्र शिल्पकला उद्योग ने फिर से उभरकर अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली और लगभग सौ से अधिक परिवार इस उद्योग से परम्परागत बर्तन बनाने का कार्य करते है। हालांकि वर्तमान में सिर्फ कुछ चुनिंदा परिवार ही इस लघु कुटीर उद्योग को जीवित रखे हुए है।
आज भी मल्ली बाजार अल्मोड़ा के टम्ट्यूरा मोहल्ले में इनके हथौङौं की ध्वनि गुंजायमान होती है पर अब ये हथौङौं की ध्वनि दिन.प्रतिदिन निस्तेज होती ही जा रही है। कभी 100 से अधिक परिवार तांबे के बर्तन बनाने का काम करते थे। आज कच्चा माल और कम मजदूरी के कारण सिर्फ 5 परिवार ही इस कार्य को कर रहे हैं। दीपावली नजदीक आते ही अल्मोड़ा के ताबें के बर्तन बनाने वाले लोगों को फुर्सत नहीं होती थीण् देर रात तक बर्तन बनाने के लिए टन.टन की आवाजें सुनाई पड़ती थी। चीन ने बाजार में इस कदर कब्जा किया कि आज लोग धन तेरस पर भी तांबे के बर्तन नहीं खरीद रहे हैंण् इस तांबे के कार्य को बचाने के लिए सराकर ने प्रोत्साहन शुरू किया है। अब गुरुणाबांज में हरी प्रसाद टम्टा हस्त शिल्प उन्यन संस्थान बनाने की तैयारी चल रही है। टम्टा मोहल्ले में ताबें का काम करने वाले परिवार अब धीरे.धीरे दूसरे पेशे की तरफ बढ़ रहे हैं। महंगाई की मार के कारण आजकल टम्टा मोहल्ले से लोग तांबे का सामान नहीं खरीद रहें हैं। उत्तराखंड बनने के बाद तेजी के हस्तशिल्प तांबे के कारोबार में कमी आई है। समय रहते सरकार ने ताम्र नगरी को बचाने का काम नहीं किया तो वह दिन भी दूर नहीं, जब ताम्र नगरी में तांबे के बर्तन बनाने वाला एक भी परिवार नहीं मिलेगा।
यहां दुगालखोला में 14 नाली सरकारी भूमि में ताम्रनगरी सहकारी समिति के नाम से 20 कार्यशालाएं बनीं। कुछ समय इसमें काम तो चला, मगर फिर उपेक्षा पीछे पड़ गई और धीरे.धीरे यह काम सुसुप्तावस्था में चला गया और अब कार्यशालाओं में रौनक नहीं। गिने.चुने कारीगर ही विपरीत परिस्थितियों में भी पैतृक व्यवसाय को जीवित रखे हुए हैं। कार्यशालाओं में आधुनिक मशीनें लगने का सपना अधूरा रह गया। काम कर रहे चंद कारीगर भी नक्काशी, सजावट व उचित आकार देने के काम तक सीमित हो गए। अब 60 फीसद लोगों ने यह काम छोड़ दिया है। दीपावली पर गुलजार रहने वाला टम्टा मोहल्ला आज तांबे के बर्तन बनाने के बाद ग्राहकों का इंतजार कर रहा है। अगर इस उद्योग को बचाया जाए, तो युवाओं को रोजगार के लिए मैदानी क्षेत्रों का रुख कर के इसके बाद सरकारी उपेक्षा ने इस परंपरागत प्राचीन उद्योग की कमर तोड़ दी है।