डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देवभूमि उत्तराखंड की लोकप्रिय देवियां मां नंदा और सुनंदा का इन दिनों समूचे उत्तराखंड में मोहत्सव चल रहा है। यह मोहत्सव पूरे सप्ताह बड़े ही हर्षों.उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस उत्सव का इतिहास काफी पुराना है। मान्यता अनुसार मां नंदा.सुनंदा दो बहनें थीं। पुराणों में मां नंदा.सुनंदा की पूजा.अर्चना के साक्ष्य मिले हैं। नंदा देवी समूचे गढ़वाल मंडल और कुमाऊं मंडल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं। नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं। रूप मंडन में पार्वती को गौरी के छः रुपों में एक बताया गया है। भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है। नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है। भविष्य पुराण में जिन दुर्गा के स्वरूपों का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं।
शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है। शक्ति के रूप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं। नंदा के इस शक्ति रूप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली, तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है। गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नंदा के सम्मान में होता है। कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पोथिंग, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं।
अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रूप में समारोह आयोजित होते हैं। नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है। शिव के साथ.साथ शक्ति की उपासना भी अति प्राचीन काल से होती आई है बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि उत्तराखंड के जनमानस में शक्ति महत्त्व शिव से भी अधिक हैण् वह भिन्न.भिन्न नामों से भिन्न.भिन्न रूपों में पूजी जाती हैण् तंत्र ग्रंथों में भी शक्ति के अनेक नाम मिलते हैं। उनके अनुसार यह हिमालय में मन्दा, नन्दा, शिवानंदा शुभा.नंदा, सुनंदा तथा नंदिनी कहलाती थी। देवी के रूप में हिमालय में नन्दा के अनेक नाम हैं जैसे देवी, काली, कालिंक्या, नन्दा, शाकम्बरी और चन्द्रवदनी आदि, तदनुसार विभिन्न नामों से शक्ति पीठ बने हैं। इन्हीं नामों की परंपरा में पार्वती नंदा कहलाती है और हर वर्ष भाद्रपद में नन्दाष्टमी राधाष्टमी को नंदाजात, नन्दापाती, नन्दा देवी, आंठूँ इत्यादि नामों से उसके नाम से यात्रा, मेले, खेल, बलि, पूजा इत्यादि अनुष्ठान होते हैं।
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में नन्दा देवी का बड़ा कुमाऊनी और गढ़वाली लोकगीतों में नन्दा द्वारा दैत्यों के संहार के अनेक वर्णन मिलते हैं। ये वर्णन देवी के तंत्रशास्त्रों में वर्णित रूपों के समान ही हैं। इनमें देवासुर संग्राम तथा देवी द्वारा असुरों के विनाश की गाथाएं भी गाई जाती हैं। भैंसे को असुर का प्रतीक मानकर देवी को भैंसों.बकरों की अठवार बलि भी चढ़ाई जाती है। दैत्य.मर्दिनी महाकाली की ही योगमाया है। पुरानों में उसके हिमालय में निवास करने का उल्लेख भी मिलता है। स्कन्द पुराण के मानस खंड के बाईसवें अध्याय में कहा गया है कि विद्वानों ने महा.हिमालय को पश्चिमाभिमुख बतलाया है। उसके दक्षिण की तरफ नन्दगिरि है। वहां नन्दादेवी देवों से पूजित हो विराजमान है। वह देवी नंदगोप के घर जन्म लेकर कंस के द्वारा सौभाग्यशाली शिला पृष्ठ पर पटकी जाती हुई आकाश मार्ग से पुश्यात्मा नन्द पर्वत पर जा पहुँची। तब से हे ऋषिवरो! वे देवों से पूजित हो रही हैं।
नंदा की पूजा कर मनुष्य अपने पापों से रहित हो जाते हैं। सांस्कृतिक महत्व है। खास तौर पर राज्य के चमोली तथा अल्मोड़ा जिले के कुछ गांवों में लोक देवी नन्दा की परिकल्पना और उससे जुड़ी परंपराएं और रीति.रिवाज स्थानीय लोक संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा है। वैदिक देवियों की अपेक्षा नन्दा की परिकल्पना काफी भिन्न है। इसके अनुयायियों के लिए नन्दा एक ऐसी प्रिय बहन या बेटी है जो उच्च हिमालयी श्रृंखलाओं में बसती है। आमतौर पर नन्दा का कोई चेहरा या स्वरूप प्रचलित व सर्वमान्य नहीं है। अर्थात नन्दा एक निराकार लोकदेवी है, ऐसे में नन्दा से जुड़ी हुई वस्तुओं व स्थानों का बड़ा महत्व है और लोग उन्हीं की पूजा करते हैं। नन्दा उत्सव.नन्दा जात के दौरान रिंगाल तथा भोजपत्र से एक छत्र बनाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में छंतौली कहा जाता है। इस छंतौली की पूजा ही नन्दा की पूजा माना जाता है। इसके अलावा अनेक मंदिरों में उपलब्ध प्रचीन हथियार जैसे तलवार तथा कटार और नन्दा के नाम से प्रसिद्ध उच्चहिमालयी सरोवर जैसे नंदीकुण्ड और रूपकुण्ड की पूजा भी नन्दा की पूजा ही माना जाता है।
नन्दा से जुड़े तमाम उत्सव हैं जो समय.समय पर आयोजित किये जाते हैं। नन्दा संबंधी संस्कृति का इतिहास काफी पुराना होने के बावजूद भी इसका कोई लिखित दस्तावेज नहीं हैए ऐसे में नन्दा को जानने के लिए स्थानीय लोकगीत ही एकमात्र साधन हैं।इन लोकगीतो को जागर कहा जाता है। नन्दा सिर्फ एक लोकदेवी नहीं है बल्कि यह लोगों की भावनाओं, विचारों, जीवन, जीविका, ज्ञान एवं दृष्टिकोण का प्रतिबिंब है। उत्तराखंड के लोकगीतों के ध्वंशावशेषों को समय की खिसकती हई बर्फीली चट्टानों के मलवे से निकालकर आपके सामने लाने का असफल प्रयास कर रहा हूँ! मुझे यह भी विदित नहीं है कि हमारी पीढ़ी के बाद लोकगीतों के संकलन संरक्षण और प्रसार के लिए कितने शोधकर्ताए लेखनी.जीवी और रंगकर्मी आगे बढ़कर अतीत की धरोहर को सम्हाल सकेगेण् यह उनकी आस्थाए लगन श्रम तथा कर्तव्य.निष्ठा पर आधारित हैण् मैं और मोहनदा मोहन उप्रेती चाहते हैं कि शैलांचल की लोक संस्कृति में आस्था रखने वाले नई पीढ़ी के लोग, हमारे हाथों से ;अब तक किसी भी प्रकार प्रज्वलित रखी हुई मशाल लेकर आगे बढ़ें और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के महायज्ञ में ईधन स्वरूप समर्पित हो सकें। कोविद.19 की महामारी के पिछले 6 माह से भी अधिक लंबे समय दुनिया भर में व्याप्त भय व असमंजस के बावजूद सोमवार को उत्तराखंड की कुलदेवी एवं राज्य के दोनों अंचलों.कुमाऊं व गढ़वाल को एकसूत्र में पिरोने वाली राज राजेश्वरी माता नंदा.सुनंदा कदली स्वरूप में अपने मायके की तरह माता नयना की नगरी में आ गई हैं। अब वे यहां बेहद सादगी के साथ ष्एक स्थान पर केवल पांच लोगों की मौजूदगीष् के नियम का पालन करते हुए अगले चार दिन यहां रहेंगी एवं बुधवार यानी नंदाष्टमी के दिन से प्राकृत पर्वताकार सुंदर मूर्तियों के रूप में अपने भक्तों.श्रद्धालुओं को दर्शन देंगी। स्थानीय स्तर पर समर्पित हैं। नंदा देवी में नंदा शब्द का अर्थ है ष्भलाई और समृद्धिष् और मेला का मतलब है जहां नृत्य और लोक प्रदर्शन जैसी अलग.अलग सांस्कृतिक गतिविधियां देखी जाती हैं। नंदा देवी मेला वार्षिक रूप से देवी नंदा और सुनंदा के सम्मान में आयोजित किया जाता है। आमतौर पर यह मेला सितंबर के महीने में ही आयोजित किया जाता है। कहा जाता है किए 16 वीं शताब्दी में राजा कल्याण चंद के शासनकाल के दौरान ही कुमाऊं क्षेत्र में यह मेला शुरू हुआ था। मेला सभी नंदा देवी मंदिरों में मनाया जाता है जो पूरे क्षेत्र में फैले हुए हैं। । देवभूमि के नाम से प्रचलित हमारा यह राज्य अपने अंदर संजोये हुए है उन तमाम सांस्कृतिक विरासतों को जिनसे हमारी जड़े जुडी हुई हैं। हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड राज्य, घर है।