डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देवभूमि उत्तराखंड जहाँ पर अनोखी रीति रिवाज व परंपराएं देखने को मिलती है, वही चैत्र मास आते ही कई पर्व व त्योहारे शुरु हो जाते हैं। जहाँ फूलदेई पर्व पर घरों के देहलीज पर रंग बिरंगे फूलों को डाला जाता है, वही ब्याही बेटियों को इस महीने का खासा इंतजार रहता हैं कि मेरे माता पिता व भाई भिटौली लेकर आएंगे। विलुप्त होते भिटौली परम्परा पर पर्यावरणविद् वृक्षमित्र कहते हैं समय परिवर्तन ने भिटौली परंपरा को धीरे धीरे समाप्त कर दिया है। पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों में जब आवागमन के संसाधन नही हुआ करते थे। बेटी अपने ससुराल से सालभर में मायके वाले से मिलने नहीं आ पाती थी। उस समय खेती बाड़ी, पशुपालन जैसे कामों से फुरसत भी नहीं मिलती थी। ऐसे में कैसे अपनी लाडली ब्याही बेटी से मिला जाय, तब बसंत आगमन पर फूलदेई संक्रान्त पर बेटी से भेंट करनी की परंपरा बनाई इसी को भिटौली कहते हैं, भिटौली का अर्थ भेंट व मिलने से है। उस समय भिटौली देने के लिए मिलो चलकर ब्याही बेटी को पूड़ी पकोड़े, कलेऊ, दूध से बनी खास पकवान व धोती, साड़ी, पहनने के वस्त्र उपहार में देते थे।
ब्याही बेटी को चैत्र मास का बेसब्री से इंतजार रहता था कब आएंगे मेरे मैत मायके वाले मुझे भिटौली लेकर। भिटौली की परम्परा पूरे चैत्र मास में चलती है। मायके पक्ष के सदस्यों को जब भी चैत के महीने में समय मिले वे उस समय भिटौली लेकर बेटी के ससुराल चले जाते है। बेटी अपने मायके से आये सदस्य को देखकर बहुत खुश होती हैं जो पूड़ी, पकोड़े, कलेऊ पकवान मायके से आये होते है। उन्हें आस पड़ोस में भी बाटती हैं और अपने मायके से आये धोती साड़ी व वस्त्रों को अपने पड़ोसियों को दिखाती हैं। मुझे मेरे मायके वाले ये भिटौली में लाए हैं। यही नहीं बेटी के मायके वालों का इंतजार आस पड़ोस वालो को भी रहता है। हर घर की बेटी मायके से आये पकवानों को अपने पड़ोसियों को बाटती है, लेकिन धीरे धीरे यह परंपरा खत्म होती जा रही है और पैसे भेजने में सिमटकर रह गई है। हमे अपने बुजुर्गों की यह परंपरा जीवित रखनी चाहिए। अपने बेटियों को ससुराल में भिटौली भेजनी चाहिए ताकि हमारे आनेवाली पीढ़ी इस परंपरा को देखकर इसे जीवित रख तभी हमारी यह भिटौली की परम्परा जीवित रहेगी।
भिटौली का सामान्य अर्थ है भेंट यानी मुलाकात करना। उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों, पुराने समय में संसाधनों की कमी, व्यस्त जीवन शैली के कारण विवाहित महिला को सालों तक अपने मायके जाने का मौका नहीं मिल पाता था। ऐसे में चैत्र में मनाई जाने वाली भिटौली के जरिए भाई अपनी विवाहित बहन के ससुराल जाकर उससे भेंट करता था। पहाड़ की महिलाओं को समर्पित यह परंपरा महिला के मायके से जुड़ी भावनाओं और संवेदनाओं को बयां करती है। हालांकि पहाड़ की बदलते स्वरूप, दूरसंचार की उपलब्धता, आवागमन की बढ़ी सुविधाओं के बाद यह परंपरा कम होती जा रही है, लेकिन प्रदेश के दोनों मंडलों के पहाड़ी क्षेत्रों में यह परंपरा पुराने रूप में जीवित है। प्राचीन समय में पहाड़ के लोगों को अपनी पहाड़ जैसी जिदगी में खेती.बाड़ी, पशु पालन जैसे कामों से फुरसत नहीं मिल पाती थी।
दूर गांव में ब्याही बहू.बेटी भी अपने ससुराल के कामों में इतनी व्यस्त रहती कि उन्हें भी मायके जाकर उनसे मुलाकात का समय नहीं मिल पाता था। तब आज की तरह न तो आने जाने की सुविधा थी और न बातचीत के तरीके थे, ऐसे अभावों के कारण यहां पूर्वजों ने इसका हल निकालते हुए वर्ष में एक बार आवश्यक रूप से अपनी बेटी से मिलने उसके घर जाने की प्रथा बनाई गई। इस शुभ कार्य के लिए चैत में ठंड विदा होने व गर्मी की शुरुआत होने और पहाड़ में इन दिनों काम कुछ कम रहने के कारण भिटौली को चुना गया। पर्वतीय जनजीवन में इस भिटौली रिवाज से जुड़े हुए लोकगीत न बास घुघुति चैत कीए याद ए जांछी मैत की तथा लोक कथा भै भूखो मैं सीती भी खूब प्रचलित है। उत्तराखंड बेमिसाल है यहां हर महीने में एक या शायद कभी.कभी महीने में दो या तीन त्यौहार भी मनाए जाते हैं।हर त्यौहार के पीछे कोई ना कोई लोककथा जरूर होती है।या उस त्यौहार का सीधा संबंध प्रकृति से होता है।और यहां पर कई अनोखी और विशिष्ट परंपराएं हैं।उन्हीं में से एक है भिटौली ।