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कृषि देश की अर्थव्‍यवस्‍था में बजट में गरीबों की अनदेखी

11/02/25
in उत्तराखंड, दुनिया, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
इस साल का बजट पेश करते हुए कृषि को अर्थव्यवस्था का पहला इंजन बताने से किसानों की उम्मीद जगी। इस वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण में अर्थव्यवस्था के बाक़ी क्षेत्रों के मुक़ाबले कृषि क्षेत्र में ज़्यादा तेज वृद्धि की उम्मीद जताई गई है। कोरोना महामारी के बाद से पहले की तुलना में देश में खेती-बाड़ी पर निर्भर आबादी बढ़ गई है। लेकिन बजट के आंकड़े देखने के बाद ऐसा लगा मानो सरकार इस इंजन से उम्मीद करती है कि वो बिना ईंधन के अपने दम पर चलेगा।इस बजट से किसानों की चार मुख्य उम्मीदें नवंबर में पेश संसदीय समिति की रिपोर्ट में दर्ज की गई थीं। पहला, किसान को फसल का वाजिब दाम दिलवाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी दी जाय। दूसरा, किसान पर बढ़ते क़र्ज़ से उसे मुक्ति दिलाने की कोई योजना बनाई जाय। तीसरा, सालाना 6,000 रू की किसान सम्मान निधि में मंहगाई के मुताबिक़ बढ़ोतरी की जाय। चौथा, प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना का विस्तार किया जाय।अफ़सोस कि वित्त मंत्री ने इस बजट में किसानों ने इन चारों उम्मीदों पर पानी फेर दिया। बजट भाषण में कानूनी गारंटी तो छोड़ दीजिए, एमएसपी का ज़िक्र भी नहीं था। वित्त मंत्री ने सिर्फ़ तीन दालों — अरहर, मसूर और उड़द — की सरकारी ख़रीद का वादा किया। और वो भी किसान को सही दाम दिलवाने के लिए नहीं बल्कि इसलिए की इन फसलों को विदेश से आयात करना पड़ता है। फसल ख़रीदी की योजना “आशा” का बजट जस का तस है। बाक़ी फसलों की ख़रीद या किसानों को सही दाम की कोई चिंता ही नहीं दिखाई दी जबकि इस साल अच्छे मानसून के चलते पैदावार ज़्यादा होने की आशा और दाम गिरने की आशंका है।सरकार के अनुसार देश के हर किसान परिवार के सिर पर कोई 92,000 रू से अधिक क़र्ज़ है। कंपनियों के लिए नित नई योजना लाकर पिछले 10 सालों में कोई 14 लाख करोड़ रू की क़र्ज़ माफ़ी करने वाली सरकार ने किसानों को क़र्ज़ मुक्त करने की कोई भी चिंता नहीं दिखाई। हाँ, किसान क्रेडिट कार्ड पर लोन की सीमा को 3 लाख रू से बढ़ा कर 5 लाख रू कर दिया गया। लेकिन इस घोषणा के पीछे भी ईमानदारी नहीं दिखी क्योंकि कृषि ऋण के लिए बजट में तय की गई अनुदान की कुल मद ज्यों की त्यों रही है।तमाम चर्चा के बावजूद छह वर्ष पहले किसान के लिए निर्धारित वार्षिक किसान सम्मान निधि में इस साल भी कोई वृद्धि नहीं की गई। इस बीच खेती की लागत और किसान का घर खर्च कोई डेढ़ गुना बढ़ चुका है और अब उस 6,000 रू की वास्तविक क़ीमत कोई 4,000 रू के बराबर रह गई है। लगता है सरकार इसमें सामान्य वृद्धि के लिए भी किसी चुनाव का इंतज़ार कर रही है। रही बात फसल बीमा की, तो वित्त मंत्री ने इसका विस्तार करने की बजाय प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना पर सरकारी खर्च पिछले साल हुए 15,864 करोड़ रू से घटाकर 12,242 करोड़ रू कर दिया है।खेती किसानी के प्रति इस बेरुखी का कुल नतीजा यह है कि इस इंजन में ईंधन हर साल कम होता जा रहा है। वर्ष 2019 के बजट में किसान सम्मान निधि की घोषणा के बाद पहली बार केंद्र सरकार के कुल खर्च में कृषि का हिस्सा 5% से ज़्यादा हुआ था, उसके बाद से हर बजट में यह अनुपात घटता जा रहा है — 2020 में 4.83%, 2021 में 4.05%, 2022 में 3.68%, 2023 में 3.08%, 2024 में 3.09% और इस वर्ष 3.06% रह गया है। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष केंद्र सरकार का खर्च 2,40,000 करोड़ रू बढ़ा लेकिन इस बढ़ोतरी में कृषि के हिस्से सिर्फ़ 4,000 करोड़ रू आया। कृषि के तहत या उससे जुड़े तमाम खर्चे या तो जस के तस हैं या उनके पहले से कमी आयी है। मसलन खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी घटा दी गई है।हालाँकि सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण मनरेगा योजना को ग्रामीण भारत के लिए ‘जीवन रेखा’ की उपमा देता है, फिर भी इस योजना के लिए बजट की राशि 86,000 करोड़ रू पर जस की तस है। इसलिए नहीं की इस योजना की माँग रुक गई है, बल्कि इसलिए कि हर साल केंद्र सरकार वित्तीय वर्ष के अंतिम महीनों में राज्य सरकारों को इस योजना का पैसा भेजना बंद कर देती है ताकि पैसे के अभाव में थक कर राज्य सरकारें स्थानीय स्तर पर काम रोक दें। मनरेगा योजना का गला घोंटने की यह साजिश इस साल भी जारी रही।हर साल की तरह इस साल भी वित्त मंत्री ने कृषि के लिए नई योजनाओं की घोषणा की। इनमे से प्रमुख थी प्रधान मंत्री धन धान्य कृषि योजना। उद्देश्य है कृषि के लिहाज़ से सबसे पिछड़े 100 जिलों में कृषि को मजबूत करना। दावा है की इससे 1.7 करोड़ किसानों को लाभ पहुंचेगा। लेकिन बजट में इसके लिए फ़िलहाल एक पैसा भी निर्धारित नहीं किया गया है। दलहन, कपास तथा फल-सब्जी की खेती सुधारने के लिए कई राष्ट्रीय मिशन की घोषणा हुई लेकिन इनके लिए निर्धारित राशि इतनी कम है की उससे कुछ भी प्रभावी होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। मखाना बोर्ड के नाम पर सिर्फ 100 करोड़ रू दे दिया गया है।साल-दर-साल का अनुभव यही बताता है कि ऐसी घोषणाओं अक्सर काग़ज़ पर रह जाती हैं। पाँच साल पहले बजट में बड़े गाजे बाजे के साथ यह ऐलान हुआ था की आने वाले पाँच साल में सरकार एग्रीइंफ्रा फण्ड के तहत कृषि में 1 लाख करोड़ रू का निवेश करेगी। अब पाँच साल पूरे होने के बाद अब तक सिर्फ़ 37,000 करोड़ रू का प्रावधान किया गया है, खर्च होना तो बाद की बात है। वित्त मंत्री ने इस बार इसका ज़िक्र नहीं किया, जैसे किसान की आय दोगुनी करने के वादे पर सरकार अब चुप रहती है। पिछले वर्ष बजट में सब्जी उत्पादन और बिक्री की सप्लाई चेन बनाने और सहकारिता की नई राष्ट्रीय नीति बनाने की घोषणा हुई थी, जिनका अभी तक कोई नामोनिशान तक नहीं है। देश के जमें के रिकॉर्ड का कंप्यूटरकरण करने का दावा हुआ था, जिसमे अब तक सिर्फ 9% काम हुआ है। देश में 15,000 ड्रोन दीदी का वादा था, अब तक यह आंकड़ा 1,000 भी नहीं छू पाया है। पिछले अनुभव और इस बजट से हुई निराशा के चलते इसमें कोई हैरानी नहीं कि किसान नेताओं ने इस बजट को “ढाक के तीन पात” करार दिया है। किसानों के देशव्यापी मंच संयुक्त किसान मोर्चा ने इस बजट के विरुद्ध रोष प्रदर्शन का आह्वान किया है।हालांकि, इस बजट में जो सबसे बड़े कमी दिखी वो जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन के लिए उपलब्ध कराई जाने वाली रक़म की पूरी तरह से अनदेखी करने की है. जबकि 2024-25 के आर्थिक सर्वेक्षण ने इस पर काफ़ी ज़ोर दिया था. ये हैरान करने वाली बात है. क्योंकि अक्षय ऊर्जा मंत्रालय को आवंटन काफ़ी बढ़ाया गया है, जिससे हरित ऊर्जा परिवर्तन को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता ज़ाहिर होती है. देश की साठ प्रतिशत जनता खेती पर आश्रित है। भारत गांवों का देश है। भारत के 70 प्रतिशत लोग गांव में निवास करते है। अधिकांश किसान दो एकड़ भूमि पर ही खेती करते हैं। बड़े किसानों की संख्या कम है। भारत की अर्थव्यवस्था खेती पर‌ निर्भर करती है। कोरोना काल में भारत के सभी उद्योग धंधों का जीडीपी निगेटिव में गिर गया था तब सिर्फ कृषि के क्षेत्र में ही वृद्धि दर्ज की गई थी। भारत में पर्याप्त अनाज पैदा होने के कारण देश में भुखमरी की समस्या पैदा नहीं हुई है जिसके कारण लोगों को पेट भरने के लिए पर्याप्त अनाज उपलब्ध हो जाता है। हरित क्रांति के फलस्वरुप कृषि पैदावार में काफी वृद्धि हुई है। पहले भारत अनाज के मामले में आयात पर निर्भर था परन्तु कृषि उपज में वृद्धि के कारण आयात पर निर्भरता काफी कम हो गया है। इस तरह से कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मेरुदंड है। 2 जून की रोटी खाते हैं। यह रोटी कहां से आता है ? जाहिर है किसानों से। हालांकि, हिंदीपट्टी के गांवों में एक कहावत प्रचलित है कि मूस मोटइहैं, लोढ़ा होइहैं। चूहा मोटा भी हुआ तो आखिर कितना! असली चुनौती यह है कि कृषि और किसानों के बीच स्थायी खुशी कैसे लाई जा सकती है? इसके लिए कृषि की उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ उसकी सालाना विकास दर सालों-साल तक चार प्रतिशत से ज्यादा रखनी होगी।आप सोचिए कि घर अनाज आना बंद हो जाय तो कोई फर्क नहीं पड़ा जीडीपी का फर्क पड़ा है लेकिन किसान 2 महीना राशन तो एक हफ्ता आप जिंदा रहेंगे । कबतक जिंदा रहेंगे ?कोई जिंदा रहेंगे ?कर लीजिए जीडीपी बड़ा। जीडीपी से बड़ा किसान है जिस देश का किसान खुशहाल नहीं ,वह देश कभी खुशहाल नहीं हो सकता वहां के लोग कभी खुशहाल नहीं हो सकते।इसका असर राज्य के समग्र विकास पर पड़ सकता है।।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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