डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और लद्दाख समेत नार्थ.ईस्ट से जुड़े हिमालय क्षेत्र में मौजूद ग्लेशियरों पर वातावरण के कारण खतरा बढ़ता जा रहा है। जिससे हिमालय से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व खतरे में है। आपको बता दें कि हिमालय को एशिया का वाटर हाउस कहा जाता है। हिमालय में 9575 छोटे.बड़े ग्लेशियर हैं, इनमें से करीब 1200 ग्लेशियर उत्तराखंड में मौजूद हैं। आपदा के पीछे जलवायु परिवर्तन प्रभाव और विनाशकारी मौसमी घटनाओं एक्सट्रीम वेदर ईवेंट्स को वजह मान रहे हैं, लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि बर्बादी की कहानी यहां चल रहे बेतरतीब निर्माण और हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स की वजह से है। जिसमें नियमों की लगातार अवहेलना की गई है।
हाशिये पर पड़े इन ग्रामीणों का कहना है कि वे कई सालों से अपने गांवों को तबाह होते देख रहे हैं और लगातार एक डर में जी रहे हैं। जोशीमठ से कोई पंद्रह किलोमीटर दूर बसा चाईं गांव बर्बादी की ऐसी ही कहानी कहता है। हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिए संवेदनशील हिमालयी पहाड़ों के भीतर कई सुरंगें बिछा दी गई हैं, जिनसे बिजली बनाने के लिए नदियों का पानी गुजारा जाता है। लेकिन इन सुरंगों का आकार, संख्या और इन्हें बनाने का तरीका ग्रामीणों की फिक्र और गुस्से की वजह रहा है। खुशहाल सिंह चाईं गांव के पास बने 400 मेगावॉट के हाइड्रो प्रोजेक्ट का जिक्र करते हुए कहते हैं कि सुरंगें बनाने के लिए होने वाली ब्लास्टिंग ने यहां पूरे पहाड़ को हिला कर रख दिया। उनके मुताबिक, जब वो कंपनी के लोग ब्लास्टिंग करते थे, तो इतनी जोर का धमाका होता कि पहाड़ों पर बने हमारे मकान हिलते थे। हम शासन.प्रशासन से लड़े लेकिन हमारी अनुसनी की गई। हमने विरोध किया तो हमारा दमन किया गया। कंपनी पर मुकदमा हम लोगों को करना था लेकिन विरोध करने पर गांव वालों पर ही मुकदमा कर दिया गया।
उधर गांव वालों को बरसात और भूकंप के वक्त अपने घरों पर बड़े.बड़े पत्थरों के गिरने और भूस्खलन का डर भी सताता है। हिमालय दुनिया के सबसे नए पहाड़ों में है और उत्तराखंड का यह इलाका भूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील श्रेणी में है। 62 साल की प्रेमा देवी को डर है कि खोखले हो चुके पहाड़ों में अगर भूकंप आया तो उनका क्या होगा। प्रेमा देवी ने डीडब्लू को बताया, रात को जब बरसात आती है तो हमको नींद नहीं आती। हमें लगता है कि हम अब मरे, तब मरे। पिछले साल 15 अगस्त को कितने बड़े.बड़े बोल्डर गांव में आए और हम मरते.मरते बचे। असल में लंबे समय से उत्तराखंड में हाइड्रो पावर बांधों और अब चारधाम सड़क मार्ग पर सवाल उठे हैं और यह मामला अदालत में भी गया है। साल 2013 में आई केदारनाथ आपदा जिसमें 6,000 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी, के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक्सपर्ट कमेटी ने कहा कि आपदा को बढ़ाने में बड़े.बड़े बांधों का रोल थाण् साल 2015 में भूगर्भ विज्ञानी समेत सात जानकारों के शोध में साफ लिखा गया कि ष्हिमालयी क्षेत्र और खासतौर से उत्तराखंड में मौजूदा विकास नीति और नदियों पर विराट जलविद्युत की क्षमता के दोहन का पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है।
ग्रामीण और सामाजिक कार्यकर्ता कई सालों तक विरोध करते रहे लेकिन इसके बावजूद पहाड़ों पर एक के बाद एक प्रोजेक्ट लगते रहे। इन गांवों से कई परिवारों को विस्थापित होना पड़ा है क्योंकि वो खतरे की जद में हैं पर बहुत से परिवार जाना चाहते हैं और उन्हें विस्थापित नहीं किया गया है। दूसरी ओर, इन गांवों की कृषि और बागवानी पर भी पिछले कुछ सालों में असर पड़ा है क्योंकि जलस्रोत सूख रहे हैं। कभी अपने माल्टों और संतरों के लिए मशहूर चाईं आज बंजर और वीरान गांव दिखता है। चाईं गांव की यशोदा देवी कहती हैं। अब यहां कुछ नहीं बचा है। इस गांव की सारी नमी चली गई। सारे खेत.पात सूख गए। पहले यहां कितने संतरे, नींबू, नारंगी और फल होते थे। जो कहीं नहीं होता था, वह हमारे चाईं गांव में होता था लेकिन अब यहां कुछ नहीं उगता।
जानकार पानी की समस्या के लिए पहाड़ों पर हो रही ब्लास्टिंग को भी जिम्मेदार बताते हैं। भूगर्भविज्ञानी समझाते हैं कि पहाड़ों पर पानी का संचय उनकी सीडेन्ट्री पोरोसिटी से होता है यानी पहाड़ों की चट्टानों के छिद्र या दरारें पानी को एकत्रित करने का काम करते हैं। सती के मुताबिक चट्टानों की दरारों से जो पानी इकट्ठा होता है वही पानी स्रोतों में आता है। अगर हम विस्फोट करते हैं तो इन दरारों का स्वरूप बदल जाता है। पहाड़ों पर रुका पानी नीचे चला जाता है और स्रोत सूख जाते हैं। पहाड़ के कई गांवों में यह हो रहा है। विश्वव्यापी चिंताओं के बीच और पर्यावरण को लेकर छोटी बड़ी बिखरी या संगठित लड़ाइयों के बीच सरकारों का रवैया उदासीन ही रहा है। बेशक हरित प्रौद्योगिकी का जोर बढ़ा है और वैकल्पिक ऊर्जा संसाधनों के प्रति एक रुझान बनने लगा है लेकिन साथ ही मुनाफे और निवेश की आंधी का जोर भी कम नहीं। पहाड़ फोड़े जा रहे हैं, नदियां खोदी जा रही, जंगल काटे जा रहे हैं और प्राकृतिक स्रोत छिन्नभिन्न हो रहे हैं। नीति आयोग प्रकृति और पर्यावरण पर ऐसे तीखे हमलों को रोकने के न सिर्फ तरीके सुझा सकता है बल्कि एक व्यापक दूरगामी रणनीति भी बना सकता है जिनसे विकास परियोजनाओं का पर्यावरण से तालमेल बेहतर बनाया जा सके। अगर जंगल, पानी, पहाड़, जमीन और वन्यजीवन को नुकसान पहुंचाए बिना विकास और अर्थव्यवस्था की गति बनाए रखी जा सकती है तो हमारे अस्तित्व के लिए यही सबसे सेफ विकल्प होगा। सुनियोजित और समावेशी विकास के बिना तो यह सोचना जैसे एक अवश्यंभावी संकट के निपटने के बजाय आंखों पर पट्टी बांध लेने की तरह होगा।