डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड राज्य को बने हुए 24 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन राज्य के गांवों से पलायन एक बड़ी समस्या बना
हुआ है. विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस राज्य में आज भी सैकड़ों गांव वीरान होते जा रहे हैं.
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और बेहतर जीवन-स्तर की तलाश में लोग लगातार पहाड़ों से मैदान की ओर जा
रहे हैं. हालांकि, राज्य सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से ले रही है और ग्रामीण विकास के कई कार्यक्रम भी
चला रही है, लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है. उत्तराखंड
सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है. पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग के
निवासी व फिल्म निर्देशक विनोद कापड़ी को उनके द्वारा निर्देशित फिल्म पायर को लेकर सर्वश्रेष्ठ ऑडियंस
अवार्ड मिला है।उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद के बेरीनाग के पहाड़ से पलायन पर बनी पायर फ़िल्म को
लेकर निर्देशक विनोद कापड़ी ने कहा कि इस फिल्म में उत्तराखंड से हो रहे लगातार पलायन के दर्द को
बखूबी से दर्शाया गया है। यह फिल्म पहाड़ के उन लोगों के लिए है, जो आज अपने मां-बाप को अकेले गांव
में छोड़ देते है। उन्होंने कहा कि यह आज के समय में हर घर की कहानी बन चुकी है। फिल्म ‘पायर’ को
ब्लैक नाईट इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल की बेस्ट फिल्म का ऑडिएंस अवार्ड हासिल हुआ है। उन्होंने कहा की
आज उनकी इस फ़िल्म को राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर बहुत प्यार मिल रहा है। साथ ही कहा कि अगली
फिल्म भी पहाड़ से ही करने का इरादा है।बता दें कि पायर फिल्म उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन के
बाद के ताजा हालात पर आधारित है। जिसमें एक बुजुर्ग दंपति की प्रेम कहानी और जीवन की वास्तविकता
को भी उचित ढंग से दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त पायर फिल्म एक संवेदनशील और गहन विषय पर
आधारित है। जो उत्तराखंड की सांस्कृतिक और सामाजिक जड़ों से प्रेरित है। उत्तराखंड में लगातार हो रहे
पलायन से खाली हो चुके गांव और उनमें रह रहे बुजुर्गों की व्यथा को दर्शाती फिल्म 'पायर' इन दिनों खूब
चर्चाओं में है. क्योंकि, यह फिल्म जहां पलायन के बाद खाली हो चुके गांवों की स्थिति को दर्शाती है तो
वहीं इसी पृष्ठभूमि में एक बुजुर्ग दंपत्ति की सच्ची कहानी है. फिल्मकार विनोद कापड़ी की ओर से निर्मित
फिल्म पायर को तेलिन ब्लैक नाइट्स फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ ऑडियंस अवार्ड मिला है उत्तराखंड के
हिमालय की पृष्ठभूमि में रची 80 साल के दो बुजुर्गों (आमा बूबू) की एक अद्भुत, अनोखी और दिल को छू
लेने वाली एक अविश्वसनीय प्रेम कहानी है. फिल्म में एक्टर के तौर पर गांव के ही दो बुजुर्ग पदम सिंह और
हीरा देवी हैं. जिन्होंने फिल्म शूटिंग से पहले न कभी कैमरा फेस किया है न ही कोई फिल्म देखी है. ये दोनों
बुजुर्ग पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग तहसील के ओखडा गांव के रहने वाले हैं. पदम सिंह पहले भारतीय सेना
में थे और रिटायरमेंट के बाद खेती बाड़ी करते हैं. जबकि, हीरा देवी घर में पशुपालन और जंगल से लकड़ी
व घास काटने-लाने का काम करती हैं. निर्देशक विनोद कापड़ी ने बताया कि पहले इस फिल्म के लिए
नसीरुद्दीन शाह और रत्ना पाठक शाह को कास्ट किया था. दोनों तैयार भी हो गए थे, लेकिन फिर
नसीरुद्दीन शाह ने कहा कि हिमालय की कहानी में नसीर एवं रत्ना की कास्टिंग से फिल्म की प्रमाणिकता
पर असर पड़ सकता है. जिसके बाद फिर लीड रोल के लिए हिमालय के दूर दराज के दर्जनों गांवों में खोज
शुरू की गई. यह फिल्म 'पायर' उत्तराखंड में लगातार हो रहे पलायन के बाद वहां खाली हो चुके गांव,
जिन्हें 'भूतहा' गांव भी कहा जाता है कि पृष्ठभूमि में एक बुजुर्ग दंपत्ति की सच्ची कहानी पर आधारित है.
निर्देशक विनोद कापड़ी ने बताया कि वो साल 2017 में मुनस्यारी के एक गांव में गए थे. जहां मृत्यु का
इंतजार कर रहे इस बुजुर्ग दंपति के एक दूसरे को लेकर प्यार ने उनके दिल में ऐसी गहरी छाप छोड़ी,
जिसके बाद उन्होंने यह फिल्म बनाने का फैसला किया.विनोद कापड़ी ने बताया कि नॉन एक्टर की इस
फिल्म के लिए उन्हें कोई निर्माता नहीं मिला तो उन्होंने अपनी पत्नी साक्षी जोशी के साथ खुद ये फिल्म
बनाने का फैसला किया. यूरोप के प्रतिष्ठित 28वें तेलिन ब्लैक नाइट्स इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में
इसका वर्ल्ड प्रीमियर हुआ. इस फेस्टिवल में यह अकेली भारतीय फिल्म चुनी गई थी. अब कम से कम 7-8
महीने तक 'पायर' अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में चलेगा. उसी के बाद पायर फिल्म को भारत
में रिलीज किया जाएगा. 'पायर' फिल्म बनाने का विचार किस तरह आया, इसकी भी एक दिलचस्प
कहानी है. इस फिल्म के सह निर्माता और लेखक अशोक पांडे बताते हैं कि मुनस्यारी के नीचे गोविंद नदी
बहती थी. उसके सामने एक और पहाड़ है. वहां से मुनस्यारी दिखाई देता है. वहां कोरोना काल से दो-तीन
साल पहले तक कोई रोड नहीं थी.वहीं, दूसरी तरफ का हिस्सा बदलती हुई दुनिया से बिल्कुल अछूता था,
भले वो नदी के उस पार बदलती हुई दुनिया देख रहे हों. जब रोड खुली तो यूं ही अशोक पांडे घूमने-फिरने
मुनस्यारी से उस तरफ गए. वहां उनको अचानक एक बुजुर्ग मिले. वो पूरे जीवन कभी मुनस्यारी नहीं गए
थे. उन्हें इस संसार की कोई खबर नहीं थी.उससे जब पूछा कि इस समय किसकी सरकार है तो उन्होंने कहा
पहले तो गांधी की थी, अब पता नहीं किसकी है? एक ट्रेकिंग के दौरान अशोक के दोस्त विनोद कापड़ी भी
उन बुजुर्ग दंपती से मिले, वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनके जीवन पर फिल्म बनाने का निश्चय कर
लिया. वहीं, विनोद कापड़ी दूसरी फिल्म बनाने की तैयारी में है, जो पहाड़ से जुड़ी होगी. फ़िल्म की
कहानी के बारे में फ़िल्म से जुड़े लोगों ने कुछ विशेष बताने से इनकार किया है. मगर सूत्रों से पता चला है
कि फ़िल्म की पूरी कहानी पहाड़ के दो बुजुर्ग आमा-बुबू किरदार के इर्द-गिर्द ही घूमती है. इस फिल्म के केंद्र
में उत्तराखंड में हो रहा पलायन है. दिलचस्प बात यह है कि प्रयोग धर्मी सिनेमा के लिए चर्चित निर्देशक
विनोद कापड़ी ने आमा-बुबू के इस मुख्य किरदार के लिए बेरीनाग के उखाड़ा गांव के 78 वर्षीय पद्म सिंह
और गढ़तिर की 68 वर्षीय हीरा देवी का चयन किया है.इन दोनों ने जीवन में ना कभी कैमरा देखा और ना
ही कभी कोई एक्टिंग की है. फ़िल्मकार कापड़ी ने इन दोनों के साथ एक महीने तक वर्कशॉप की. बाक़ायदा
एक्टिंग कोच अनूप त्रिवेदी ने इन्हें टिप्स दिये. अनूप खुद नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के पास आउट हैं. वे
'शेरनी' में विद्या बालन के साथ अहम किरदार निभा चुके हैं कार्यक्रम में पायर फिल्म ने खूब सुर्खियां
बटोरी। जिसके चलते फिल्मकार विनोद कापड़ी ने टोलीन से फोन पर बताया की फिल्म फेस्टिवल के
समापन दिवस पर फिल्म की एक विशेष स्क्रीनिंग आयोजित की गई थी जिसमें इस फिल्म पर दर्शकों ने खूब
प्यार लुटाया व सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑडियंस अवार्ड दिए जाने पर पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज
उठा। बताते चले इस दौरान फिल्म के निर्देशक विनोद कापड़ी, फिल्म के नायक पदम सिंह, नायिका हीरा
देवी, साक्षी जोशी और अरिंद्र चौधरी ने मंच पर पहुंचकर अवार्ड प्राप्त किया। विनोद कापड़ी ने बताया कि
फिल्म के दोनों बुजुर्ग कलाकार ग्रामीण पृष्ठभूमि के नॉन एक्टर है जिन्होंने पहली बार कैमरा देखा है और
इतना ही नहीं बल्कि पहली बार हवाई और विदेश यात्रा की है। पहली बार मे ही फेस्टिवल अवार्ड भी पा
लिया है। बेडीनाग के ग्रामीण क्षेत्र में हुई थी जहां पर चौपाता गांव मे पहाड़ के परंपरागत मकान का सेट
तैयार किया गया था और यह मुख्य लोकेशन थी इसके अतिरिक्त बेलकोट, पुरानाथल, रीठा, चौकोड़ी,
गराउ, नाचनी में लगभग दो माह तक फिल्म की शूटिंग चली थी इस फिल्म की खासियत यह रही कि इसमें
सभी कलाकार उत्तराखंड के हैं।.उत्तराखंड के गांवों की रौनक लौट सकती है और पहाड़ों में बसावट को फिर से
बढ़ावा मिल सकता है.लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।