डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
करौंदा (कैरिसा कैरन्डास) एपोसाइनेसी कुल का एक झाड़ी नुमा, बहुवर्षीय एवं सदाबहार पौधा है। करौंदे की झाड़ी में अत्यन्त नुकीले कांटे होने के कारण इसे क्रास्ट के कांटे के नाम से भी जाना जाता हैं। यह पौधा भारत में राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं उत्तराखण्ड के हिमालय के क्षेत्रों में समुद्र तल से 300 मीटर से 1800 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है। घनी कांटेदार झाड़ी होने के कारण करौंदा प्रायः जिवंत बाड़ के रूप में बाग़.बगीचों तथा खेतों में लगाया जाता हैं जिससे जानवरों से फसल, पेड़.पौधों की सुरक्षा के अतिरिक्त इससे बहुपयोगी फल भी प्राप्त हो जाते है। झाड़ियों की बढ़वार ऊपर की तरफ 3.4 मीटर की ऊँचाई तक हो सकती है। इसकी पत्तियां छोटी व अंडाकार आकार की होती है। नई पत्तियों पर हल्की लालिमा पाई जाती हैं। फूल सफेद अथवा गुलाबी रंग के सुगन्धित तथा गुच्छों में आते हैं। यह एक गैर पारंपरिक फल है जो मुख्यतः वर्षा आधारित क्षेत्रों में उगाया जाता है। एक बार करोंदा के पौधे स्थापित होने के बाद, न्यूनतम प्रबंधन एवं देखभाल से भी इनसे अच्छी उपज प्राप्त हो जाती हैं। पहाड़ी.पठारी क्षेत्रों में इसके पेड़ मृदा एवं जल संरक्षण में सहायक हैं।
भारत के अनेक राज्यों में विशेषकर छत्तीसगढ़ राज्य में प्रायः मवेशियों को खुल्ला चराने की कुप्रथा है। इससे खाध फसलों का अत्यधिक नुकसान होता है एवं द्विफसलीय खेती करने में बाधा आती है। किसान अपने खेत को करौंदे की जीवंत बाड फेंसिंग से घेर कर अपनी फसल की जानवरों से सुरक्षा कर सकते हैं। इस प्रकार स्वास्थ्य रक्षा, फसल सुरक्षा एवं धन वर्षा के उद्देश्य से करौदा का रोपण कर अपने आस पास के क्षेत्रों में हरियाली और खुशहाली स्थापित की जा सकती है। करौंदा के फल स्वाद में बेहद खट्टे परन्तु पौष्टिकता की दृष्टि से यह स्वास्थ्य के लिए बेहद गुणकारी है। परिपक्व फल अम्लीय स्वाद के साथ एक विशेष सुगंध लिए होते हैं जिनसे जेली, सॉस, करौंदा क्रीम और जूस जैसे सर्वप्रिय फल उत्पादों को तैयार किया जाता है। इसके कच्चे फल खट्टे और कसैले होते हैं जिनका प्रयोग अचार, सॉस और चटनी तैयार करने में बखूबी से किया जाता है।
करौंदे के अधपके फलों में छिद्र करके व चीनी की चाशनी मे खाने वाला रंग मिलाकर नकल चेरी नामक बहुत ही बढ़िया उत्पाद बनाया जाता है जिसे 5.6 महीने तक कम तापमान पर सुरक्षित रखा जा सकता हैं। आज कल कुछ स्थानों पर करौंदे का उपयोग मिठाई एवं पेस्ट्री को सजाने के लिए रंगीन चेरी की जगह भी किया जाने लगा है। करौंदे की लकड़ी सफेद, कड़ी व चिकनी होने के कारण चम्मच व कंघे बनाने के काम आती हैं। इसकी पत्तियों का टसर रेशम के कीडों के चारे के रूप में प्रयोग होता है। भूमि क्षरण से प्रभावित क्षेत्रों में करौंदे की झाड़ियाँ मृदा कटाव रोकने में सहायक होती है। इस प्रकार से करौदा के पौधों को शोभाकारी झाड़ी के रूप में लगाकर न केवल खेत और बागों की सुरक्षा मजबूत होगी वल्कि यह भूमि सरंक्षण में सहायक होने के साथ साथ हमें पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक फल भी प्रदान करता है, जिन्हें बेच कर किसान भाई अच्छा मुनाफा भी अर्जित कर सकते करौंदें के फल में स्वास्थ्य के लिए आवश्यक पौष्टिक तत्वों का खजाना विद्यमान है। इसमें पेक्टिन, कार्बोहाइड्रेट व विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। इसके शुष्क फलों से 364 कैलोरी ऊर्जा, 2.3 प्रतिशत प्रोटीन, 2.8 प्रतिशत खनिज लवण, 9.6 प्रतिशत वसा, 67.1 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 39.1 मिग्रा. प्रति 100 ग्राम लोहा पाया जाता है। भारतीय बागवानी रिसर्च इंस्टीट्यूट, बैंगलोर के अनुसार करौंदा का फल थायमीन विटामिन बी1, रिबोफ्लेविन विटामिन बी2, पैंटोथेनिक एसिड विटामिन बी5, पाइरोडॉक्सिन विटामिन बी6, बायोटिन विटामिन बी7, फोलिक एसिड विटामिन बी9 का एक उत्तम स्रोत है। करौंदे में विद्यमान पौष्टिक तत्व और विटामिन्स के कारण इसका उपयोग आयुर्वेदिक दवाएं और औषधीय प्रदार्थ बनाने में किया जा रहा है। कच्चा करौंदा प्यास को शान्त करनेऔर भूख बढ़ने में कारगर होता है जबकि पका करौंदाए हल्का मीठा रुचिकर और वातहारी होता है। लौह की प्रचुरता होने के कारण एनीमिया रोग में उपचार के लिए करौंदा एक अत्यन्त लाभाकारी फल हैं। इसमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी होने की वजह से स्कर्वी रोग से लड़ने में सहायक हैं। इसका फल जुलाई से सितम्बर के बीच में उपलब्ध होता है तथा सामान्यतः अचार, जैम, जैली तथा चटनी आदि में उपयोग में लाया जाता है। आयरन तथा विटामिन सी का अच्छा प्राकृतिक स्रोत माने जाने के साथ.साथ विभिन्न शोध पत्रों में इससे अनेकों विशिष्ट औषधीय रासायनिक अवयव निकाले जाने की बात कही गयी है। इसमें टर्पिनोइड्स जो कि मुख्यतः सिस्क्यूटर्पीप्स होते है जैसे कि केरीसोन तथा करिन्डोन नये प्रकार के टर्पिनोइड बताये गये है।
इसके अलावा इसमें केरीसोल, लीनालूल, बीटा.केरियोफाइलीन, केरिसिक एसिड, यूर्सोलिक एसिड, केरीनोल, एसकोर्बिक एसिड, लूपिओल तथा बीटा सिटोस्टेरोल आदि पाये जाते है। इसमें अच्छे औषधीय रसायनों के मौजूद होने कारण इसका प्रयोग विभिन्न आयुर्वैदिक औषधियों में भी लिया जाता है जैसे कि मार्मा गुटिका, हरिदया महाकाशाया, काल्कांतका रसा, कशुद्राकर्वान्दा योगा तथा मर्चादि तरी आदि। इसका परम्परागत औषधीय उपयोग प्राचीन काल से ही लिया जाता है। छत्तीसगढ राज्य में वैद्यों द्वारा करौंदा से विभिन्न प्रकार के कैंसर का उपचार किया जाता है। विभिन्न औषधीय रूप में उपयोग होने के साथ.साथ राजस्थान में इसका हरी मिर्च के साथ मिलाकर बनाया जाता है और खाने में खूब पंसद किया जाता है। यह एक अच्छा एपिटाइसस भी है जो कि भूख बढाने हेतु प्रयोग किया जाता है। करौंदा ठंडा तथा एसिडिक होने के कारण गले में खराश, मुंह के अल्सर तथा त्वचा रोग में भी प्रयुक्त किया जाता है। इसके पेड़ की जड़ों का रस छाती के दर्द से निजात दिलाने में सहयोगी है जबकि इसकी पत्तियों का रस बुखार में राहत दिलाने में कारगर है। खेती के साथ.साथ करौंदे के पौधों से भी किसान उठा सकते हैं मुनाफा, जिससे पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य दोनों को ही लाभ होगा। उत्तराखण्ड के लिए सुखद ही होगा किया जाता है तो यदि रोजगार से जोड़े तो अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य फसल उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती है। भारत में प्रायः सभी प्रान्तों में पाया जाता है। उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में इतनी पोष्टिक एवं औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण फसल जिसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अधिक मांग हैए को प्रदेश में व्यवसायिक रूप से उत्पादित कर जीवका उपार्जन का साधन बनाया जा सकता है।