डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला
इस मॉनसून में महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार समेत कई प्रदेशों से भारी बारिश के बाद बाढ़ की खबरें आ रही हैं। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्र यानि कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं के वीडियो आपने सोशल मीडिया पर जरूर देखें होंगे। यही नहीं कैलीफोर्निया के जंगल इस वक्त भी आग से झुलस रहे हैं, हाल ही में जापान में बादल फटने और जर्मनी में भारी बारिश के बाद तबाही का मंजर भी हमने देखा।
इस प्रकार की तमाम प्राकृतिक घटनओं का गहन अध्येयन करने वाले आईपीसीसी के वर्किंग ग्रुप.1 ने अपनी रिपोर्ट सोमवार को जारी की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि हीटवेव यानि कि गर्म हवाओं के दुष्प्र भाव भारत समेत पूरे एशिया में जारी हैं। संयुक्त राष्ट्रह से संबद्ध इंटर गवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज आईपीसीसी की सिक्थ असेसमेंट साइकिल के वर्किंग ग्रुप.1 ने बीते 6 अगस्त को अपना अध्य यन पूरा किया और आज एक रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट के अनुसार 1980 के बाद से समुद्र की ओर से उठने वाली हीटवेव यानि गर्म हवाओं का सिलसिला तेज़ हो गया है, जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण मानवजाति की गतिविधियां हैं। खास बात यह है कि इन गर्म हवाओं का सबसे अधिक प्रभाव 2006 के बाद से देखने को मिला है।
आईपीसीसी के पांचवें असेसमेंट में भी इस बात के लिए आगाह किया गया था कि हीटवेव के कारण मौसम में असामान्य बदलाव हुए हैं। पांचवें चक्र की रिपोर्ट 2014 में जारी हुई थी। उस रिपोर्ट में साफ कहा गया था कि दुनिया के कई देशों में बादल फटनेए एक ही स्थान पर भारी बारिश, सूखा पड़ने, बहुत अधिक गर्मी पड़ने और समुद्र तटों पर चक्रवातों का प्रभाव पहले से अधिक होगा।
पृथ्वी के अधिकांश भागों में गर्म हवाओं का प्रभाव अब बढ़ने लगा है और आगे भी बढ़ेगा। यह प्रभाव उत्तरी अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका के पश्चिम और दक्षिण पूर्वी भाग, रूस, साइबेरिया और पूरे एशिया में दिखेगा। इनमें से कुछ जगहों पर तो तापमान बीते वर्षों की तुलना में बहुत अधिक गर्म होने की संभावना है। दक्षिण अफ्रीका के उत्तर पूर्व भाग, मेडिटरेनियन, दक्षिणी ऑस्ट्रेकलिया, उत्तरी अमेरिका का पश्चिमी भाग जहां अब तक बहुत कम सूखा पड़ता थाए आने वाले समय में सूखे की चपेट में आ सकते हैं। निकटतम वर्षों में उत्तरी यूरोप, उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अफ्रीका में भारी बारिश होगी। वैज्ञानिकों ने कहा कि एशिया, अमेरिका और अन्य स्थानों पर बारिश का आंकलन करने के लिए और डाटा की जरूरत होगी।
पिछले 40 वर्षों में 3 से 5 श्रेणी के समुद्री चक्रवातों में वृद्धिा दर्ज हुई है। जलवायु को नुकसान पहुंचाने वाली जितनी अधिक गतिविधियां होंगी, चक्रवातों की तीव्रता उतनी अधिक बढ़ेगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले समय में चक्रवात और भी अधिक तीव्र होंगे, उतनी ही अधिक बारिश होगी उतनी ही तेज़ हवाएं चलेंगी और तटीय क्षेत्रों में उतना ही अधिक नुकसान होगा। इसके लिए समुद्री तटों से लगे देशों की सरकारों को पहले से योजनाएं बनानी होंगी। वैज्ञानिकों ने रिपोर्ट में कहा कि पृथ्वीस के तापमान में हो रही छोटी से छोटी वृद्धिन भी बड़े खतरे का संकेत है। तापमान में प्रत्येक डिग्री की वृद्धिथ से बाढ़ और आग की घटनाओं में वृद्धि होगी। और तो और अधिकतम तापमान का असर हर व्यरक्ति पर पड़ेगा। इस रिपोर्ट में सबसे महत्वपूर्ण तथ्यओ यह है कि पृथ्वीो पर हीटवेव, सूखा और असामान्य बारिश का एक साथ होना सामान्य बात नहीं है। और इन सबमें वृद्धिथ जारी रहेगी अगर सभी देश एक जुट होकर पेरिस समझौते की शर्तों परअमल नहीं करेंगे।
सदी के अंत तक पृथ्वीस के औसत तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धिे दर्ज होगी। अगर ऐसा हुआए तो संपूर्ण पृथ्वी विनाश की ओर बढ़ जाएगी। इस वृद्धिं को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र के तमाम सदस्य देशों ने पेरिस समझौते पर हस्ताओक्षर किए हैं, जिसका मुख्यि लक्ष्यर तापमान में वृद्धिे को 1.5 सेल्सियस तक रोकना है। इसे रोकने के लिए कार्बन का उत्सर्जन शून्य तक लाना होगा। कार्बन डाइऑक्साइड व अन्यय ग्रीनहाउस गैसों के स्तर को बढ़ने से रोकना होगा। आईपीसीसी से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर हम उत्सर्जन को न्यूनतम स्तर तक ले जाने में कामयाब हुए तो इस सदी के अंत तक वृद्धिक को 1.5 डिग्री तक सीमित कर सकते हैं। हालांकि 2021 से 2040 के बीच तापमान में पहले की तुलना में बहुत अधिक वृद्धि दर्ज होगी, उसके बाद तापमान कम होना शुरू होगा। ऐसा अनुमान वैज्ञानिकों का है।
क्लाइमेट ऐक्शन एंड फाइनेंस के लिए संयुक्त राष्ट्र् के उच्चायुक्त मार्क कार्ने ने आईपीसीसी की इस रिपोर्ट पर कहा है कि वैज्ञानिकों ने जिन बातों का उल्लेख इस रिपोर्ट में किया हैए वो वाकई में चिंताजनक हैं। अब वो दिन आ गया है जब सभी देशों की सरकारों को कोई भी बड़ा निर्णय लेने से पहले, नीतियां बनाने से पहले या फिर वित्तीय फैसला लेने से पहले वैज्ञानिकों की सलाह को ध्याान में रखना होगा। आईपीसीसी की रिपोर्ट नीति निर्धारकों को गंभीरता से पढ़ने की जरूरत है। कार्बन उत्सर्जन को रकने के लिए जरूरी कदम तुरंत उठाने की जरूरत है। उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में मौसम की तबाही की बड़ी घटनाएं देखी गई हैं। राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार राज्य के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र में लोक निर्माण विभाग की ओर से 43 जोन भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। कुमाऊं और गढ़वाल मंडलों में 400 से अधिक गांवों में भूस्खलन का खतरा है।इन गांवों के ग्रामीणों को भूस्खलन के संभावित खतरे से बचाने को लेकर सरकारए शासन के स्तर पर बैठकों का दौर तो चला, लेकिन अभी भूस्खलन संभावित इन गांव के ग्रामीणों को न तो भी विशेषज्ञों की राय है कि आसन्न भू.स्खलन संकट के चेतावनी संकेतों के प्रति जागरुक और सतर्क समाज, इस चुनौती से निपटने में अहम योगदान कर सकता है। एनडीएमए की वेबसाइट पर बताया गया है कि पूर्व चेतावनी तंत्र वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञता पर आधारित होना चाहिए। उसमें सूचनाओं के प्रवाह व चेतावनी की सूचना मिलते ही त्वरित प्रभावी कार्रवाई की क्षमता होनी चाहिए।