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हिंदी और हिंदुस्तान को आजीवन समर्पित रही मैथिलीशरण गुप्त की कलम

03/08/25
in उत्तराखंड, देहरादून, साहित्य
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत के प्रथम राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भारतीय संस्कृति के उद्बोधक, राष्ट्रीय जागरण के वैतालिक और युगचेतना के सच्चे प्रतिनिधि साहित्यकार थे। वे भारतीय संस्कृति को वाणी देने वाले आदर्शवादी कवि थे। श्रेष्ठ रचनाकार अतीत का गौरव गानेवाला, वर्तमान का बहुत बारीक से देखने वाला और भविष्य का अद्वितीय सूत्र होता है। राष्ट्रकवि गुप्त जी ने प्रायः अपनी प्रत्येक रचना में अतीत के स्वर्णिम आदर्शों को उपस्थित करने का प्रयास किया है। गुप्त जी के प्रभापूर्ण काव्य में अतीत का सुंदर रूप वर्तमान को प्रेरणा का सक्षम भाव सौंपता है ताकि कुव्यवस्था में छटपटाता हुआ वर्तमान कोई नयी राह पा सके। ‘रामायण, ‘महाभारत’ और ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ जैसे स्थायी ग्रंथों ने हिंदी साहित्य के अधिकांश कवियों को प्रभावित किया है और हिंदी के प्रायः सभी श्रेष्ठ कवियों ने उनके आभार को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया है। इसका अतीत संस्कृति की पवित्रा सलिला की तरह भव्यता का प्रकाश-स्तंभ है, जिसमें विश्व कल्याण का अमृत छलकता रहता है। ‘साकेत’ के राम हों या ‘पंचवटी’ के लक्ष्मण, ‘द्वापर’ के कृष्ण हों या बलराम, गुप्त जी ने कभी भी अपने आदर्श को विलुप्त नहीं होने दिया। भारतेंदु ने जिस खड़ी बोली की प्रस्तावना की और उसे परिपक्वता प्रदान करने का दायित्व आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पर पड़ा। गुप्त जी द्विवेदी युग के कवि होने के नाते खड़ी बोली की पुष्टि के रचनात्मक आंदोलन के एक महत्त्वपूर्ण रचनाकार थे। श्री गुप्त जी द्वारा प्रणीत ‘जयद्रथ वध’, ‘सैरंध्री’ आदि रचनाओं की पृष्ठभूमि और प्रेरणा महाभारत के प्रसंग ही हैं। ‘प्रदक्षिणा’, ‘साकेत’ और ‘पंचवटी’, इन तीन काव्य-ग्रंथों का मूल आधार रामायण है।राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की 3 अगस्त को जयंती है। उनका जन्म 3 अगस्त, 1886 को झांसी के चिरगांव में हुआ था। भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक भी बने। कविताएं जितनी सरल थीं उतनी ही गूढ़ भी। इनकी कलम आजीवन भारत भूमि को समर्पित रही।मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक हिंदी काव्य के निर्माता कहे जाते हैं। उनकी कविताओं में राष्ट्र, इतिहास, संस्कृति और साहित्य का अद्भुत गठजोड़ देखने को मिल जाता है। मैथिलीशरण गुप्त की बहुत-सी रचनाएं रामायण और महाभारत पर आधारित हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में राष्ट्र से जुड़ी समस्याओं का जिक्र किया। उनकी इस शैली के प्रशंसक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी थे। तभी तो पहली बार राष्ट्रकवि कह कर उन्होंने ही पुकारा था।उनकी लिखी भारत-भारती (1912) ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा देने का काम किया। भारत-भारती की सफलता के बाद ही महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की पदवी भी दी। उन्होंने अपने जीवनकाल में साकेत (1931), यशोधरा (1932) जैसे महाकाव्य लिखें। इसके अलावा उन्होंने जयद्रथ वध (1910), भारत-भारती (1912), पंचवटी (1925), द्वापर (1936), विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान (1917), कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल, जय भारत, युद्ध, झंकार जैसे खण्डकाव्य की रचना की।मैथिलीशरण गुप्त की शुरुआती शिक्षा झांसी के राजकीय विद्यालय से हुई। उन्होंने घर में ही रहकर हिंदी, बांग्ला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। उन्हें मुंशी अजमेरी से मार्गदर्शन मिला। बताते हैं कि जब उनकी 12 वर्ष थी तो उन्होंने ब्रजभाषा में कनकलता नाम से कविता रचना की शुरुआत की। इसी दौरान वे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए। आचार्य ने मैथिलीशरण को खड़ी बोली में लिखने के लिए प्रेरित किया। यहीं से उनकी कविताएं ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होना शुरू हो गई।मैथिलीशरण गुप्त को साहित्य जगत में ‘दद्दा’ नाम से पुकारा जाता था। उन्होंने खुद प्रेस की स्थापना भी की थी, जहां उनकी लिखी पुस्तकें छपती थी। भारत सरकार ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान के लिए साल 1954 में उन्हें पद्मभूषण और 1953 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। मैथिलीशरण गुप्त की लिखी रचनाओं के कारण उनकी जयंती को हर वर्ष ‘कवि दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक भी बने। कविताएं जितनी सरल थीं उतनी ही गूढ़ भी। इनकी कलम आजीवन भारत भूमि को समर्पित रही।गुप्त जी परम वैष्णव थे। राम के अनन्य होते हुए भी वे सब धर्मों तथा सम्प्रदायों के प्रति आदर भाव रखते है। तुलसी के बाद रामभकत कवियों में इन्हीं का स्थान है। सभी अवतारों में विश्वास तथा श्रद्धा रखते हुए भी भगवान्‌ का रामरूप ही उन्हें अधिक प्रिय रहा है। भक्ति के साथ दैन्य-भाव भी इनके काव्य में पाया जाता है। तुलसी जैसी रामभक्ति की अनन्यता गुप्त जी के काव्य में देखी जा सकती मैथिलीशरण गुप्त जी भारतीय सभ्यता व संस्कृति के परमभक्त थे, लेकिन वे अन्धभक्त नहीं थे और साथ ही अन्य धर्मों के प्रति वे न केवल सहिष्णु और उदार थे, बल्कि उनके गुण ग्रहण करने में भी वे संकोच नहीं करते थे। भारतीय संस्कृति में नारी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा सम्मानप्रदक स्थान रहा है और गुप्तजी ने नारी के अनेक व विविध प्रकार के चरित्र अपने काव्यों में उपस्थित किए हैं। हम कह सकते हैं कि नारी के इतने अधिक तथा विभिन्नतापूर्ण चरित्र किसी अन्य हिन्दी कवि ने प्रस्तुत नहीं किये। सीता, उर्मिला, यशोधरा, विष्णुप्रिया आदि उनके नारी पात्र इतने महान हैं कि उनकी तुलना में किसी भी अन्य कवि के पात्रों को नहीं रखा जा सकता। अबला जीवन से गुप्तजी को गहरी सहानुभूति है। उसे उन्होंने ने इस प्रकार व्यक्त किया है-
अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी।
आंचल में है दूध और आंखों में पानी ।।

आज जब हम भारत को पुनः ‘विश्वगुरु’ तथा ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में देखने के लिये प्रयत्नशील है, तब गुप्तजी के अवदान हमारी शक्ति बन रहे हैं। यही कारण है कि अनेक संकटों एवं हमलों के बावजूद हम आगे बढ़ रहे हैं। ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’-आज भारत की ज्ञान-संपदा नई तकनीक के क्षेत्र में वैश्विक-स्पर्धा का विषय है। लड़खड़ाते वैश्विक आर्थिक संकट में भारत की स्थिति बेहतर है। नयी सदी के इस परिदृश्य में, नयी पीढ़ी को देश के नवनिर्माण के सापेक्ष अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी है। जब तक नैराश्य से निकलकर आशा और उल्लास की किरण देखने का मन है, आतंकवाद के मुकाबले के लिए निर्भय होकर अडिग मार्ग चुनना है, कृषकों-श्रमिकों सहित सर्वसमाज के समन्वय से देश को वैभव के शिखर पर प्रतिष्ठित करने का स्वप्न है, तब तक गुप्तजी का साहित्य प्रासंगिक है और रहेगा। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं* ।

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