*मोटा अनाज औषधि गुणों का खजाना है झंगोरे वरदान है*
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
मध्य एशिया से भारत पहुंचा झंगोरा उत्तराखण्ड के पारंपरिक खान-पान का अहम हिस्सा रहा है. बाद के समय में इसे भी गरीबों का भोजन मानकर तिरस्कृत कर दिया गया. वेदों तक में झंगरू नाम से इस अनाज का वर्णन एक पौष्टिक आहार के रूप में किया गया है. देव की भूमि कहा जाने वाला उत्तराखंड जितना अपने पहाड़ों और मंदिरों के लिए फेमस है उतना ही वह अपने खाने के लिए मशहूर है. यहां का शुद्ध खानपान लोगों को आकर्षित करता है. झंगोरे को अलग-अलग नामों से बुलाते हैं.ये कुमाउं और गढ़वाल के हिस्सों में खूब बनाई जाती है. झंगोरा, जिसे अंग्रेजी में बर्नयार्ड मिलेट कहा जाता है, एक प्रमुख पहाड़ी अनाज है, जो उत्तराखंड और अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता है. इसे स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है. झंगोरा में भारी मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन और खनिज पाए जाते हैं, जो इसे एक संपूर्ण आहार बनाते हैं. इसका उपयोग पारंपरिक व्यंजनों जैसे खिचड़ी, पुलाव और खीर बनाने में किया जाता है. झंगोरा के सेवन से शरीर को कई बीमारियों से बचाया जा सकता है.उन्होंने कहा कि झंगोरा को अपने दैनिक आहार में शामिल कर स्वास्थ्य को बेहतर बनाया जा सकता है. इसके औषधीय गुणों की बात करें, तो इसमें कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स होता है, जो इसे डायबिटीज के मरीजों के लिए उपयुक्त बनाता है. यह धीरे-धीरे शुगर को रिलीज करता है, जिससे ब्लड शुगर लेवल नियंत्रित रहता है. इसमें मौजूद फाइबर पाचन क्रिया को बेहतर बनाता है और कब्ज जैसी समस्याओं से राहत दिलाने में मदद करता है. झंगोरा ग्लूटेन फ्री होता है, इसलिए यह उन लोगों के लिए आदर्श है, जिन्हें ग्लूटेन एलर्जी होती है. इसमें एंटी-ऑक्सीडेंट गुण भी होते हैं, जो शरीर से हानिकारक तत्वों को निकालने में सहायक होते हैं और इम्युनिटी को बढ़ाते हैं. झंगोरा में मौजूद मैग्नीशियम और पोटैशियम हृदय को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं. यह ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करता है और कोलेस्ट्रॉल लेवल को कम करने में सहायक है. इसमें फाइबर की अधिकता के कारण इसे खाने से पेट लंबे समय तक भरा रहता है, जिससे बार-बार भूख नहीं लगती और वजन नियंत्रित रहता है यानी यह वजन घटाने में भी असरदार है. इसमें कार्बोहाइड्रेट की भरपूर मात्रा होती है, जो शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है और थकान को दूर रखता है.उत्तराखंड में झंगोरा का काफी ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. बाजार में यह आसानी से मिल जाता है. यह आपको ऑनलाइन भी मिल जाएगा. इसकी कीमत 100 रुपये किलो से लेकर 400 रुपये किलो तक होती है. झंगोरा की खीर सिर्फ़ एक व्यंजन ही नहीं है, बल्कि एक सांस्कृतिक अनुभव है जो आपको उत्तराखंड की शांत पहाड़ियों में ले जाता है। इसे आमतौर पर त्यौहारों, शादियों और अन्य विशेष अवसरों पर बनाया जाता है। दूध की समृद्धि और सूखे मेवों के स्वाद के साथ इसकी हल्की मिठास इस मिठाई को अनूठा बनाती है। चाहे आप स्थानीय हों या उत्तराखंड के व्यंजनों की खोज करने वाले यात्री, झंगोरा की खीर एक ऐसी डिश है जिसे आपको ज़रूर आज़माना चाहिए, जो इस क्षेत्र की पाक परंपराओं की सादगी और समृद्धि को दर्शाती है।झंगोरा की खीर को सबसे अलग बनाने वाली बात है इसकी बहुमुखी प्रतिभा। इसे उत्सव के दौरान मिठाई के रूप में या फिर भरपेट भोजन के बाद मीठे के एक आरामदायक कटोरे के रूप में खाया जा सकता है। इसके पोषण संबंधी लाभ इसे अपराध-मुक्त बनाते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि आप अपनी मिठाई की लालसा को संतुष्ट करते हुए, अपने शरीर को आवश्यक विटामिन और खनिजों से भी पोषण दे रहे हैं। झंगोरे से उत्तराखंड के लोगों का बेहद जुड़ाव है। झंगोरा पहाड़ की संस्कृति का एक अटूट हिस्सा है जिसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब उत्तराखंड बनाने के लिए आंदोलन चल रहा था, तो गली-गली में नारा गूंजता था- ‘मंडुवा, झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’ अपने पौष्टिक तत्वों और लाजवाब स्वाद की वजह से झंगोरा अलग-अलग मौकों पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स व उनकी पत्नी कैमिला पारकर तथा पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की भी सराहना बटोर चुका है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी एक बार उत्तराखंड दौरे पर गए थे तो उनको डिनर में झंगोरे की खीर परोसी गई तो वे इसके दीवाने होकर रह गए. यह खीर उन्हें इतनी पसंद आई की राष्ट्रपति भवन में दी जाने वाली दावतों में झंगोरे की खीर को शामिल करने के लिए कहा. यह सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु चीन, नेपाल, जापान, पाकिस्तान, अफ्रीका के साथ ही कुछ यूरोपीय देशों में भी पैदा किया जाता है. झंगोरे में विपरीत वातावरण में भी पैदा हो जाने की अद्भुत क्षमता होती है. यह बिना किसी उन्नत तकनीक के, कम लागत और न्यूनतम देखभाल में पैदा होने वाला आनाज है. यह उन खेतों में भी आसानी से पैदा किया जा सकता है जहाँ धान और गेहूं नहीं उग पाता. अक्सर इसे धान या खरीफ की अन्य फसलों के साथ मेढ़ों में ही बो दिया जाता है. धान के साथ मेढ़ों पर बोये गए झंगोरे की तुलना करें तो इसकी पैदावार ज्यादा होती है, जबकि इसे उपयुक्त जमीन और देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन सबसे दुःखद ये है कि पौष्टिक गुणों की भरमार के बाबजूद आज झंगोरे की फसल धीरे-धीरे खेतों से गायब होने लगी है। मैगी, पिज्जा और बर्गर के दौर में झंगोरे को पूछने वाला है।सरकारों को चाहिए की इस बेशकीमती अनाज को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ धरातलीय योजनाओं को अमलीजामा पहनाया जाय। ताकि लोगों की आर्थिकी बढ़े और स्वास्थ्य भी तंदुरुस्त हो सके झंगोरा की खीर ने सदियों के कृषि ज्ञान और समकालीन पोषण विज्ञान के समन्वय से एक सुपरफूड का दर्जा प्राप्त किया है. मधुमेह, हृदय रोग और मोटापे जैसी वैश्विक चुनौतियों के समाधान में इसकी भूमिका अहम है. स्थानीय किसानों को प्रोत्साहन देकर तथा जैव-प्रसंस्करण तकनीकों के माध्यम से प्रोटीन पाउडर जैसे उत्पाद विकसित कर इसकी उपयोगिता बढ़ाई जा सकती है. 2023 के राष्ट्रीय मिलेट वर्ष ने इस अनाज के पुनरुद्धार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. भविष्य में सतत पैकेजिंग और डिजिटल मार्केटिंग रणनीतियों के माध्यम से इसे वैश्विक ‘सुपरफूड’ के रूप में स्थापित किया जा सकता है. झंगोरा की खेती में धान की तुलना में 70% कम पानी की आवश्यकता होती है. यह 45-50°C तापमान सहन कर सकता है, जो जलवायु परिवर्तन के दौर में महत्वपूर्ण है. रासायनिक उर्वरकों के बिना उगाने की क्षमता इसे जैविक खेती के लिए आदर्श बनाती है. अन्न उत्तराखंड की परंपरागत फसल है। यह कभी गरीबों का खाद्यान्न हुआ करता था, आज अमीरों की थाली में शामिल हो गया है। श्री अन्न के प्रोत्साहन और प्रचार-प्रसार के लिए के उत्तराखंड लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। स्टेट मिलेट्स मिशन के अंतर्गत का बजट में प्रावधान किया गया है।इस समय पूरी दुनिया में मोटे अनाज की मांग बढ़ रही है। अत: कृषकों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार की उम्मीद की जा सकती है क्योंकि मोटे अनाज की खेती कम खर्च में की जा सकती है एवं मौसम की मार का जोखिम भी नहीं रहता। यह खेती पर्यावरण हितैषी भी है। उपेक्षित मोटे अनाज की श्रेणी में रखा गया है जबकि यह सबसे बारीक है और दुनिया में जितने अनाज हैं, उनमें पौष्टिकता की दृष्टि से शिखर पर है। *लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*