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आधुनिकता की चमक में खत्म हो रही परंपरा

17/10/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
दीपावली दीपों का त्योहार है। दीपों से त्योहार मनाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है, जिसका निर्वहन हम करते हैं। तेरस से अमावस्या और बाद में देवउठनी एकादशी तक दीये लगाने का रिवाज है। कार्तिक माह में वैसे भी दीपदान का विशेष महत्व है। दीपावली पर मिट्टी के दीये प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। गांव या नगर में मिट्टी के कार्य करने करने वाले वर्षा ऋतु के बाद से इन्हें बनाने का कार्य कर देते हैं। आजकल दीये भी मशीनों से बनाने के बाद सुखा लिए जाते हैं। मिट्टी के दीये जो एक निश्चित आकार के निर्मित होते हैं और बाजार में सरलता से उपलब्ध हो जाते हैं। वर्तमान में मिट्टी के आधुनिक, सुन्दर, छोटे और बड़े आकार के और नये कलेवर के दीये सबका ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। दीपावली पर्व की तैयारियां जोरों शोरों से चल रही है. इसी क्रम में कुम्हार मंडी में इन दोनों दीये (दीपक) बनाए जा रहे हैं. दीये और मूर्ति बनाने वाले कलाकार दीपावली से करीब 6 महीने पहले से ही अपनी तैयारियां शुरू कर देते हैं. इस बार भी रंग बिरंगे दीपक बनाए जा रहे हैं, ताकि लोगों को काफी अधिक पसंद आए. हालांकि, हर साल की तरह ही इस साल भी भारत सरकार और राज्य सरकार स्वदेशी उत्पादों के अत्यधिक इस्तेमाल पर जोर दे रही है. ऐसे में इस साल स्वदेशी उत्पादों के अभियान का कितना दिख रहा है असर? दीपावली के पावन पर्व की तैयारी शुरू हो चुकी है. दीपावली के पर्व को हर्षोल्लास से मनाने के लिए जहां एक ओर बाजार की रौनक बढ़ने लगी है. वहीं, दूसरी ओर घर को रोशन करने वाले दीयों की डिमांड भी बढ़ने लगी है. राजधानी देहरादून के चकराता रोड स्थित कुम्हार मंडी में इन दिनों मिट्टी दीये बनाने के साथ ही लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति बनाने और कर्वा बनाने का काम किया जा रहा है. दीपावली की पूजा के लिए दीये और लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति की ग्राहकों ने खरीदारी भी शुरू कर दी है. मिट्टी की इस कला से जुड़े कुम्हार का मानना है कि मिट्टी के आइटम तैयार करने के लिए कुछ चुनिंदा स्थानों से ही मिट्टी उपलब्ध हो पा रही है. हालांकि, मिट्टी की उपलब्धता कुछ कुम्हारों के लिए एक बड़ी चुनौती भी बनने लगी है. यही वजह है कि कुम्हार मंडी के लोग पिछले कई सालों से स्थानीय जनप्रतिनिधियों समेत सरकार से भी अनुरोध करते रहे हैं कि उन्हें प्रयाप्त मात्र में मिट्टी उपलब्ध हो सके. क्योंकि साल दर साल कुम्हारों की ओर से बनाई जा रही मिट्टी के दीये की डिमांड लगातार बढ़ती जा रही है, जिसके चलते कुम्हार दीपावली पर्व पर दीये की खपत को पूरी नहीं कर पा रहे हैं. यही वजह है कि उन्हें अन्य राज्यों गुजरात, कोलकाता, दिल्ली और मुंबई से भी दीये मंगवाने पड़ रहे हैं.  कुम्हार मंडी के कुम्हारों ने बताया कि इस मॉनसून सीजन के दौरान अत्यधिक भारी बारिश होने के कारण कुम्हार पर्याप्त मात्रा में दीये नहीं बना पाए हैं. वर्तमान समय में मिट्टी से बने उत्पादों की डिमांड काफी अधिक है, जबकि उनके पास इतना माल नहीं है कि वो लोगों की डिमांड पूरी नहीं कर सकें. कुछ कुम्हारों का कहना है कि उन्होंने जो दीये बनाए थे वो सभी दीये थोक में बिक चुके हैं. ऐसे में अब अन्य राज्यों से मंगाए गए फैंसी दीये और मूर्तियां बेच रहे हैं. कुछ दुकानदारों का कहना है कि अभी से ही लोगों ने दीपावली की खरीदारी शुरू कर दी है. लोगों को स्थानीय स्तर पर बने दीये और मूर्तियां ज्यादा पसंद आ रही हैं और वो वही खरीद रहे हैं. मिट्टी की वस्तुएं तैयार करने के लिए कुछ कुम्हार एक साल पहले जबकि कुछ कुम्हार 6 महीने पहले से ही तैयारी में जुट जाते हैं. हालांकि, मॉनसून सीजन के दौरान बदले मौसम के मिजाज ने कुम्हारों की इस कला को निखारने में एक बड़ी चुनौती बनने का काम किया है. बावजूद इसके दीपावली से ठीक पहले इन दिनों मिट्टी से निर्मित दीपक और लक्ष्मी गणेश की मूर्तियों और कर्वे की काफी डिमांड बढ़ गई है. कुछ कुम्हार तो उपभोक्ताओं की डिमांड को पूरी भी नहीं कर पा रहे हैं, जबकि कुछ कुमार बढ़ती डिमांड से खासे उत्साहित भी नजर आ रहे हैं. ऐसे में सीधे कुम्हार से दीपक व मिट्टी के बर्तन और लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति को खरीदना काफी मुफीद मानते हैं. कुछ उपभोक्ताओं का मानना है कि मिट्टी के दीये और मिट्टी की लक्ष्मी गणेश की मूर्ति का दीपावली के पावन पर पर पूजा करना संस्कृति से भी जुड़ा हुआ है. प्रधानमंत्री के ओकल फॉर लोकल अभियान से प्रेरित होकर लोग अब विदेशी वस्तुओं की बजाय देसी उत्पादों को अपनाने लगे हैं। सूदन कुम्हार के मिट्टी के दीये इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इन दीयों की बिक्री से न केवल उनके परिवार को आर्थिक संबल मिलता है बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी मजबूत होती है। आज के युवा परंपरागत कार्य को करने में रुचि नहीं रखते हैं। समाज में समय के साथ बदलाव आया और आज की पीढ़ी शिक्षित होने से वह उच्च स्थानों पर कार्य करने लगी। परिवार के वृद्ध और कुछ लोग मिट्टी के बर्तन और सामग्री बनाने का कार्य करते हैं। जूनी इंदौर में रहने वाले रामकिशन प्रजापत का कहना है कि पहले की अपेक्षा परंपरागत मिट्टी के दीये कम बनाए जाने लगे हैं। आज की पीढ़ी का पुश्तैनी कार्य में झुकाव भी कम है। आधुनिकता की दौर में परंपरा और संस्कृति को छोड़कर लोग फैंसी बल्ब और साज-सामान से पर्व त्योहार मनाने लगे हैं. इससे कुम्हारों की कमाई पर असर पड़ा है. दीपावली में मिट्टी के दीयों को जलाने की परंपरा कम होती जा रही है. क्षेत्र में बिजली के झालरों का प्रयोग बढ़ गया है. इससे मिट्टी के बर्तन बनाने वालों की आजीविका पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. हम पीढ़ी दर पीढ़ी कुम्हार का काम करते आ रहे हैं. अब हमारे बच्चे इस काम को नहीं करना चाहते हैं. कुम्हार परिवार ने मिट्टी के दीये जलाने की अपील की है. इस दिवाली, स्वदेशी उत्पादों को अपनाना सिर्फ खरीदारी का विकल्प नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश भी है। यह संदेश देता है कि हम अपनी परंपरा और संस्कृति को महत्व देते हैं और विदेशी वस्तुओं की चमक में खो जाने के बजाय अपने कारीगरों और ग्रामीण अर्थव्यवस्थाकाभीहै। आज देश का उपभोक्ता स्वदेशी उत्पादों के लिए जागरूक और प्रतिबद्ध है. ‘वोकल फॉर लोकल’ अब केवल एक नारा नहीं रहा, बल्कि यह एक व्यवहारिक आंदोलन बन चुका है.” *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*

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