डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके गीत हमें आज भी उनकी उपस्थिति का अहसास कराते हैं। जीवन के हर पहलु को छूते उनके गीतों की सूची लंबी है। हाय तेरो मिजाज, गुलबी मुखड़ी, कन भल सजदी नाक की नथुली, गोपाल बाबू गोस्वामी हर किसी को रुला देने वाला दुल्हन की विदाई का उनका मार्मिक गीत न रो चेली न रो मेरी लाल, जा चेली जा सरास और उठ मेरी लाड़ू लुकुड़ा पैरीले, रेशमी घाघरी आंगड़ी लगै ले, अलखतै बिखौती मेरि दुर्गा हरै गे, की आज भी जबरदस्त मांग है। उनका बेडू पाको 12 मासा गाना जबरदस्त हिट रहा और आज यह कुमाऊं रेजीमेंट का एंथम सॉन्ग भी है। बांसुरी और हुड़के की मीठी जुगलबन्दी पर गोपालबाबू के गाए श्कैले बाजै मुरूली, घुरु घुरु उज्याव है गो, घुघूती ना बासा और रुपसा रमोती जैसे गाने आज भी खूब चाव से सुने जाते हैं और कुछेक के तो अब रीमिक्स तक निकलने लगे हैं। अलखतै बिखौती मेरि दुर्गा हरै गे। द्वाराहाट में लगने वाले बिखौती मेले में एक आदमी अपनी पत्नी के अचानक कहीं गुम हो जाने पर किस किस तरह की परेशानियों से रू.ब.रू होता है, उसी का वर्णन इस गीत में है। गीत शुरू करने से पहले गोपाल बाबू गीत की कथावस्तु का थोड़ा बहुत खुलासा करते हैं। यहां इस बात को जोड़ना अप्रासंगिक नहीं होगा कि गोपाल बाबू कुमाऊंनी लोक संगीत के पहले सुपरस्टार का दर्ज़ा रखते हैं।
देवभूमि उत्तराखंड का पहनावा पूरे देश में मशहूर है। अपनी परंपरागत वेशभूषा के लिए उत्तराखंड दुनिया भर में मशहूर है। महिलाएं रूप निखारने के लिए तरह.तरह के आभूषण शुरु से ही पहनती आई हैं। उत्तराखंड की महिलाओं को अलग पहचान दिलाने वाला और उनका रूप निखारने वाला, ऐसा ही एक आभूषण है उत्तराखंडी नथ, पहाड़ी नथ नथूली जिसकी अपनी अलग ही पहचान है। जिस तरह से उत्तराखंड प्रदेश दो भाग गढ़वाल और कुमाऊं में बंटा हुआ है, ठीक उसी तरह से उत्तराखंडी नथ भी मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं। वैसे तो पहाड़ी क्षेत्र में नथ ही मशहूर है लेकिन टिहरी की नथ उत्तराखंड में सबसे ज्यादा मशहूर है। ऐसा माना जाता है कि नथ का इतिहास तब से है, जब से टिहरी में राजा रजवाड़ों का राज्य था और राजाओं की रानियां सोने की नथ पहनती थी।
ऐसी मान्यता रही है कि परिवार जितना सम्पन्न होगा महिला की नथ उतनी ही भारी और बड़ी होगी। जैसे.जैसे परिवार में पैसे और धनःधान्य की वृद्धि होती थी नथ का वज़न उतना ही बढ़ता जाता था। हालांकि बदलते वक्त के साथ महिलाओं की पसंद भी बदलती जा रही है और भारी नथ की जगह अब स्टाइलिश और छोटी नथों ने ले ली है। लगभग दो दशक पहले तक नथ का वज़न तीन तोले से शुरु होकर पांच तोले और कभी कभार तो 6 तोला तक रहता था। नथ की गोलाई भी 35 से 40 सेमी तक रहती थी। नथ की महत्ता इतनी ज्यादा है कि नथ पहाड़ के किसी भी जरुरी और पवित्र उत्सव में पहना जाता है जैसे कि पूजा पाठ, शादी आदि। नथ का वजन और उसमें लगे हुए मोती परिवार और नथ पहनने वाली और उसके धन धान्य और स्टेटस को दर्शाता हैं। समय बीतता चला गया और समय के हिसाब से नथ का आकार मार्डन कर दिया गया लेकिन पारंपरिक नथ की बात और शान अलग ही होती है। उत्तराखंडी महिलाओं के लिए पांरपरिक नथ एक पूंजी की तरह है जिसको महिला पीढी दर पीढ़ी संजोती हैं और उत्तराखंड की लगभग हर शादी.शुदा महिला के पास नथ जरुर होती ही है। उत्तराखंड के लोग अपनी संस्कृति और परंपरा को आज भी मानते हैं और नथ को एक शुभ गहने की तरह इस्तेमाल करते हैं खासकर के शादियों में, पहाड़ की शादियों में दुल्हन शादी के दिन पारंपरिक नथ पहन कर ही शादी करती है। हालांकि आकार में काफी बड़ी यह नथ किसी के लिए भी परेशानी का सबब नहीं बनती और पारंपरिक नथ के लिए लोग 10,000 से लेकर 25,000 तक या उससे ज्यादा भी खर्च करने के लिए तैयार रहते हैं। उत्तराखंडी संस्कृति के अनुसार ऐसा माना जाता है कि लड़की के मामा लड़की को शादी के दिन नथ देते हैं, जिसको वो शादी में पहनती है। समय के साथ नथ की डिजाइन में बहुत बदलाव आया है और आज लगभग 50 डिजाइन बाजार में उपलब्ध हैं। जैसे कि आजकल की युवतियां पुराने समय के बड़े बड़े नथ पहनने में असहज महसूस करती हैं उनके लिए बाजार में नए प्रकार के छोटे आकार में अलग अलग डिजाइन के नथ उपलब्ध हैं। उत्तराखंडी नथ का क्रेज़ ना केवल पहाड़ों में है बल्कि पारंपरिक गहनों के प्रेमी दूर दूर से उत्तराखंड में आकर अपनी बेटियों के लिए यह पारंपरिक नथ लेते हैं।
देवभूमि की कला और विरासत किसी से छुपी नहीं है, जो अपने आप में अतीत को समेटे हुए है, वहीं, प्रदेश में महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले आभूषण भी उन्हें बेहद खास बनाते हैं। जिन्हें वे मांगलिक कार्यों में अकसर पहनी दिखाई देती है। जो उनकी खूबसूरती में भी चार.चांद लगा देती है। उत्तराखंड की पारंपरिक नथ के संबंध में प्रदेश की जानी.मानी लोकगायिका पद्मश्री बसंती देवी बिष्ट ने बताया कि पुराने समय में सुहागिनों के लिए 24 घंटे नथ धारण करना अनिवार्य था। लेकिन आधुनिकता के इस दौर में जहां नाथ के डिजाइन में परिवर्तन आया है। वहीं, महिलाओं ने भी इसे सिर्फ खास मौकों पर पहने जाने वाला आभूषण बना दिया है।
आजकल सुहागिन सिर्फ मांगलिक कार्यों और तीज.त्योहारों के अवसर पर ही नथ पहने दिखाई देती हैं। वहीं, प्रदेश की पारंपरिक नथ के डिजाइन में आए बदलाव के बारे में सर्राफा व्यापारियों बताते हैं कि सोने के दाम बढ़ने की वजह से अब गढ़वाल और कुमाऊं की पारंपरिक नथ पहले के मुकाबले आकार में छोटी हो चुकी हैं लेकिन अब भी इनकी काफी डिमांड है। यहां तक कि बॉलीवुड की कई फिल्मों में भी अभिनेत्रियां इस आभूषण को पहनी दिखाई दी हैं। जहां पहले गढ़वाल और कुमाऊं मंडल में 20-25 ग्राम तक कि नथ तैयार कराई जाती थी। वहीं, अब लोग गढ़वाल में 3 से 15 ग्राम की नथ और कुमाऊं में 10-20 ग्राम तक की नथ बनवा रहे हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो अब नथ का आकार छोटा हो चुका है। बता दें कि गढ़वाल मंडल की टिहरी की नथ का आकार चौड़ा होता और इसमें सोने की तार में खूबसूरत मोतियों और नगों को पिरोया जाता हैण् वहींए दूसरी तरफ कुमाऊं की नथ आकर में काफी बढ़ी होती है और इसमें मोतियों और नगों का काम भी कुछ अधिक किया जाता है। साथ ही कुमाऊं की नथ का आकार में बढ़ा और वजन भी कुछ ज्यादा होता है। सोने के बढ़ते दाम और समय के साथ अब कम वजन के नथ की डिमांड बढ़ गई है वर्तमान में नथ को उत्तराखंड की परम्परा आदि से जोड़कर दिखाया गया है लेकिन असल में नथ हमेशा से ही एक स्टेट्स सिंबल रही है। जैसे की आज भी पहाड़ों में दुल्हन की नथ के आकार के आधार पर यह राय बना ली जाती है कि वह कितने अमीर परिवार से ताल्लुक रखती है।