शंकर सिंह भाटिया
उत्तराखंड राज्य गठन के उस दौर में राज्य के बड़बोले नेता इस प्रदेश को कथित ऊर्जा प्रदेश के नाम से पुकारते थे, आज बिजली संकट के दौर से गुजर रहा है। राज्य में बिजली का यह संकट किसी और ने नहीं बल्कि यहां की सरकारों का खड़ा किया हुआ है। 2003 में उत्तराखंड की सरकार ने बकायदा समझौता कर 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजना की अपने हिस्से की बिजली लेने का पहला हक छोड़ते हुए इसे उत्तर प्रदेश को सौंप दिया, इसी क्रम में 2006 में किए गए दूसरे समझौते में 330 मेगावाट की श्रीनगर जल विद्युत परियोजना पर अपना बिजली लेने का अधिकार यूपी को सौंप दिया। उत्तराखंड बिजली संकट के इस भयावह दौर से गुजर रहा है और प्रदेश की सरकारें अपनी बिजली लेने का हक दूसरों को सौंप रही थी। इत्तिफाक यह रहा कि ये दोनों समझौते नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल में हुए। यही नहीं नारायण दत्त तिवारी हिमाचल प्रदेश की 1500 मेगावाट क्षमता की नाफ्ता झाकरी परियोजना में उत्तराखंड के 50 मेगावाट के हिस्से को लेने से ही इंकार कर दिया। यह क्रम यहीं नहीं रुका, यमुना और टौंस की पांच जल विद्युत परियोजनाओं में हिमाचल प्रदेश को उसके हिस्से से अधिक बिजली देकर राज्य को बड़ा नुकसान पहुंचाने का काम नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने किया। टिहरी परियोजना के जिस 25 प्रतिशत हिस्से पर उत्तराखंड का स्वामित्व होना चाहिए, वह उत्तर प्रदेश के कब्जे में है। भागीरथी घाटी में अरबों खर्च करने के बाद जिस तरह तीन परियोजनाओं को हमेशा के लिए बंद किया गया और करीब 24 से अधिक परियोजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट से लगी रोक उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाने की राह पर ठोकी गई आखिरी कील है।
उत्तराखंड में मौजूद जल संसाधनों की वजह से इस राज्य को जल विद्युत उत्पादन में क्षमतावान माना गया है। कुछ सर्वेक्षणों में उत्तराखंड में 40 हजार मेगावाट और कुछ में तीस हजार मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता होने का दावा किया गया है। इस क्षमतावान राज्य को अपनों ने ही लूट का अड्डा बना दिया। उत्तर प्रदेश में भी मुख्यमंत्री रह चुके नारायण दत्त तिवारी को बड़े स्टेटस का नेता माना जाता था, लेकिन उत्तराखंड का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने जो कारनामे किए, वे उत्तराखंड को आज कष्ट दे रहे हैं, आने वाले समय में यह कष्ट बढ़ता ही जाएगा। यहां हम सिर्फ बिजली के क्षेत्र में किए गए कारनामों पर बात कर रहे हैं। 330 मेगावाट क्षमता की निजी क्षेत्र की श्रीनगर जलविद्युत परियोजना की वजह से न जाने कितने कष्ट स्थानीय लोग झेल रहे हैं, अब बिजली उत्पादन शुरू हुआ तो यह बात सामने आई कि यहां की बिजली उत्तराखंड नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश लेगा। इस बारे में बाकायदा नारायण दत्त तिवारी यूपी से समझौता कर गए।
10 फरवरी 2006 को तत्कालीन उत्तरांचल सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार, उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन लि. और अलकनंदा हाइड्रो पावर कंपनी लि. के बीच एक रिस्टेटेड इंप्लीमेंटेशन एग्रीमेंट हस्ताक्षरित किया गया। इस एग्रीमेंट के क्लाज 8.1 में कहा गया है कि उत्तराखंड सरकार प्रोजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहण में सभी संभव सहायता देगी। कंपनी के आग्रह पर उत्तराखंड सरकार लैंड एक्वीजिशन एक्ट 1894 के तहत भूमि अधिग्रहण कर कंपनी को सौंपेगी। कंपनी को प्रोजेक्ट क्षेत्र में निजी भूमि अधिग्रहण करने का भी अधिकार होगा। उत्तराखंड सरकार कंपनी को वन भूमि के अतिरिक्त अन्य भूमि पर मोर्टगेज की सुविधा भी प्रदान करेगी। प्रोजेक्ट क्षेत्र के अंतर्गत उत्तराखंड सरकार कंपनी की जरूरत के अनुसार शार्ट टर्म लीज पर भी भूमि उपलब्ध कराएगी।
समझौते के क्लाज 9.1 में कहा गया है कि उत्तराखंड सरकार कंपनी को प्रोजेक्ट क्षेत्र के दायरे से बोल्डर, सिंगल, पत्थर, लाइम स्टोन और अन्य निर्माण सामग्री उठाने का अधिकार देगी। यदि खनन के दौरान कोई ऐतिहासिक धरोहर या वस्तु मिलती है तो कंपनी उसे राज्य सरकार को सौंपेगी।
समझौते के क्लाज 10.1 में कहा गया है कि निर्माण कार्य के लिए उत्तराखंड सरकार कंपनी को जितनी जरूरत होगी उतनी बिजली उपलब्ध कराएगी। क्लाज 10.2 में कहा गया है कि कंपनी उत्तराखंड सरकार के विभागों द्वारा बनाई गई सड़कों और पुलों का उपयोग कर सकेगी। प्रोजेक्ट क्षेत्र की तरफ जाने वाली सड़कों को अवाधित बनाने की जिम्मेदारी उत्तराखंड सरकार की होगी। यदि इन सड़कों पर कोई अतिक्रमण होता है, तो उसे हटाने की जिम्मेदारी भी उत्तराखंड सरकार की होगी।
इस समझौते का क्लाज 13.1 सबसे महत्वपूर्ण है जिसमें कहा गया है कि उत्तराखंड सरकार कंपनी को बिजली उत्पादन के लिए पानी के मुफ्त उपयोग का अधिकार देगी। उत्तराखंड सरकार पानी पर कोई कर, ड्यूटी, लेवी और सरचार्ज नहीं लगा पाएगी। खास बात यह है कि इस समझौते में दो बार कहा गया है कि उत्तराखंड सरकार बिजली उत्पादन के लिए उपयोग में लाए जाने वाले पानी पर कोई कर नहीं लगा सकेगी। लेकिन उत्तराखंड सरकार को श्रीनगर परियोजना के अपस्ट्रीम पर अलकनंदा की किसी सहायक नदी पर भी डायवर्जन बनाने का अधिकार नहीं होगा। यदि उत्तराखंड सरकार श्रीनगर परियोजना के अपस्ट्रीम में कोई डायवर्जन बनाती है, तो इससे होने वाले जनरेशन लाॅस की भरपाई उत्तराखंड सरकार को करनी होगी। इसके एवज में कंपनी को भुगतान करना होगा। क्लाज 18.6
समझौते के क्लाज 17.1 में कहा गया है कि प्रोजेक्ट से उत्पादित बिजली कंपनी के स्विचयार्ड से 400 केवी की लाइन के जरिये उत्तर प्रदेश ऊर्जा निगम को दी जाएगी। उसके बाद उत्तर प्रदेश बिक्री योग्य बिजली का 12 प्रतिशत बिजली उत्तराखंड को देगा। उत्तराखंड को मिलने वाली यह मुफ्त बिजली होगी। बाकी बिक्री योग 88 प्रतिशत बिजली उत्तर प्रदेश सरकार तथा उत्तर प्रदेश ऊर्जा निगम को पावर पर्चेज एग्रीमेंट के अनुसार मिलेगी।
इससे पहले नारायण दत्त तिवारी सरकार ने ही 22 मार्च 2003 को 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजना को लेकर एक और समझौता हस्ताक्षरित किया था। यह समझौता उत्तराखंड सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार, उत्तर प्रदेश ऊर्जा निगम और जेपी कंपनी के बीच हस्ताक्षरित हुआ था। 400 मेगावाट के विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना के लिए किए गए इस समझौते में भी इसी तरह के प्रावधान रखे गए हैं। भूमि देने और विस्थापितों का पुनर्वास करने की जिम्मेदारी उत्तराखंड सरकार की होगी। सिर्फ बिक्री योग्य 12 प्रतिशत बिजली के एवज में उत्तराखंड सरकार कंपनी को सारी सुविधाएं मुहैया कराएगी। उत्तर प्रदेश को बाकी 88 प्रतिशत बिजली मिलेगी, लेकिन वह समझौते में किसी भी जिम्मेदारी से मुक्त रहेगा। क्या कोई सरकार इस तरह के नतमस्तक होने वाले समझौते कर सकती है? इससे भी आगे अपने ही राज्य के अंतर्गत वह कोई डायवर्जन नहीं बना पाएगी, इस कदर उत्तराखंड के हाथ बांधने की जरूरत क्यों पड़ी?
सवाल उठता है कि नारायण दत्त तिवारी को इन एग्रीमेंट करने की इतनी जल्दी क्यों थी? इसके एवज में उत्तराखंड की परिसंपत्तियों को उत्तर प्रदेश से वापस लेने के लिए सौदेबाजी क्यों नहीं की गई? क्या नारायण दत्त तिवारी उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधि के तौर पर यह सब कर रहे थे? दोनों समझौतों में परियोजनाओं में उत्तराखंड के लोगों को रोजगार देने की बात कही गई है, दोनों कंपनियां बताएंगी कि वहां उत्तराखंड के मूल निवासियों को कितना रोजगार मिला हुआ है? उत्तराखंड की किसी भी सरकार ने इन परियोजनाओं का संचालन करने वाली कंपनियों से कभी यह सवाल आज तक क्यों नहीं उठाया?
सवाल इतना भर नहीं है। उत्तराखंड में जो आज बिजली संकट है, उसके लिए कहीं न कहीं उत्तराखंड की पहली चुनी हुई सरकार और करीब सवा साल तक काम करने वाली अंतरिम सरकार जिम्मेदार दिखाई देती हैं। उसके बाद की सरकारें भी अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रही हैं। 2007 तक उत्तराखंड बिजली के मामले में एक सरप्लस स्टेट रहा। मतलब यह कि उत्तराखंड को बिजली की जितनी जरूरत थी? उसके मुकाबले बिजली की उपलब्धता अधिक थी। लेकिन 2003 के बाद साल दर साल सरप्लस बिजली कम होती जा रही थी। इसका मतलब यह हुआ कि उत्तराखंड में खपत बढ़ती जा रही थी, लेकिन उस अनुपात में उत्पादन नहीं बढ़ रहा था। यह बात साफ होने के बावजूद उत्तराखंड की सरकार बिजली को लेकर जो करती रही, वह कोई अपनी सरकार नहीं कर सकती थी। इसलिए तत्कालीन सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं कि यह सरकार उत्तराखंड को बिजली संकट के वर्तमान दौर में धकेलने के लिए जिम्मेदार नहीं है?
एक तरफ समझौते कर निजी क्षेत्र की बिजली के हक से उत्तराखंड को महरूम किया जा रहा था। दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश के 1500 मेगावाट की नाफ्ता झाकरी जल विद्युत परियोजना से उत्तराखंड को मिलने वाली 50 मेगावाट बिजली को लेने से इंकार ही नहीं कर दिया गया, बल्कि लिखित तौर पर देकर इस अधिकार से राज्य को वंचित कर दिया गया। इतना ही नहीं यमुना तथा टौंस घाटी की पांच परियोजनाओं पर हिमाचल प्रदेश को 25 प्रतिशत बिजली दी जा रही है। यह क्रम आज भी जारी है। जबकि समझौते में कहा गया है कि यदि हिमाचल प्रदेश सरप्लस स्थिति में होगा तो उसे यह शेयर नहीं मिलेगा। हिमाचल प्रदेश लगातार सरप्लस स्थिति में है। हिमाचल आज भी सरप्लस स्थिति में है, उत्तराखंड उसे समझौते से इतर जाकर बिजली दे रहा है। कोई सरकार अपने ही राज्य के साथ ऐसा कैसे कर सकती है? लेकिन नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने अपने पांच साल के कार्यकाल में यह सब किया है और आज के बिजली संकट के लिए उस सरकार को जिम्मेदार न माना जाए, यह कैसे संभव है?
जुलाई 2006 में टिहरी जल विद्युत परियोजना कमीशन हुई। दुर्भाग्य से इस दौरान नारायण दत्त तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे। टिहरी परियोजना में 12.5 प्रतिशत रायल्टी उत्तराखंड को देने के बाद बाकी बची बिजली पर 75 प्रतिशत हिस्सेदारी केंद्र सरकार की और 25 प्रतिशत हिस्सेदारी राज्य की थी। उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 2000 में किए गए प्रावधान के अनुसार जो अचल संपत्ति जिस राज्य की सीमा में स्थित होगी, उस पर उसी राज्य का हक होगा। टिहरी परियोजना पूर्ण रूप से उत्तराखंड की सीमा में स्थित होने के बावजूद इसकी हिस्सेदारी यूपी को सौंप दी गई। किसी ने भी इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई। इस परियोजना का कमिशन हुए जुलाई 2021 में 15 साल पूरे हो गए हैं। इन 15 सालों में उत्तर प्रदेश टिहरी डैम से 12000 करोड़ रुपये खा चुका है। उत्तर प्रदेश 25 प्रतिशत हिस्सेदारी के एवज में प्रति वर्ष करीब 800 करोड़ की बिजली का उपभोग कर रहा है। जबकि सवा लाख लोगों का विस्थापन, टिहरी समेत एक दर्जन से अधिक शहरों, सवा सौ से अधिक गांवों को टिहरी डैम में डुबाने वाले उत्तराखंड का टिहरी परियोजना में हिस्सेदारी शून्य है। टिहरी डैम का मामला सुप्रीम कोर्ट में है। कई बार उत्तर प्रदेश कोर्ट में अपना पक्ष रखने तक के लिए मौजूद नहीं रहता। उत्तर प्रदेश के इस रुख के कारण कोर्ट ने राज्य पर 35 लाख रुपये का जुर्माना तक लगा दिया है। इसके बावजूद उत्तराखंड कोर्ट में अपना पक्ष मजबूती से नहीं रख पा रहा है, अन्यथा यह हिस्सेदारी उत्तराखंड को कब के मिल जाती।
भागीरथी पर बना रही तीन जल विद्युत परियोजनाएं भैरोघाटी, लोहारीनाग पाला और पाला मनेरी पर अरबों़ रुपये खर्च करने के बाद इन तीनों परियोजनाएं हमेशा के लिए बंद कर दी गईं। ये तीनों परियोजनाएं करीब डेढ़ हजार मेगावाट क्षमता की थी। देश का अरबों रुपया खर्च होने के बाद इन परियोजनाओं को 2008 में भाजपा-कांग्रेस की राजनीतिक खींचतान में बंद कर दिया गया था। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, राज्य में भाजपा की सरकार थी। 2009 के चुनाव निकट थे। भाजपा को लगता था कि अयोध्या का मुद्दा इस बार नहीं चलेगा, वह गंगा को मुद्दा बनाना चाहती थी। दिल्ली से लाल कृष्ण आडवाणी का मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी को संदेश आया और उन्होंने अगले दिन राज्य की दोनों परियोजनाओं पाला मनेरी और भैरोघाटी को स्थगित करने की घोषणा कर दी। इससे भी आगे बढ़ते हुए कांग्रेस की केंद्र सरकार ने एनटीपीसी की भैरोघाटी परियोजना को हमेशा से लिए बंद करने का निर्देश जारी कर दिया। उसके बाद यूजेवीएनएल की स्थगित की गई परियोजनाओं को भी हमेशा के लिए बंद कर दिया गया। इन तीनों परियोजनाओं में करीब डेढ़ हजार करोड़ रुपये से अधिक खर्च हो चुके थे। इससे राज्य को डेढ़ हजार मेगावाट विद्युत का नुकसान हुआ। राज्य सरकारों के नकारापन की वजह से अनकनंदा समेत राज्य की तमाम नदियों में निर्माणाधीन 24 परियोजनाएं कोर्ट के आदेश से लटकी हुई हैं। जिससे राज्य के ऊर्जा प्रदेश बनने की सभी संभावनाओं को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है।
इतना ही नहीं 2003-04 के बाद से उत्तराखंड की नदियों में जल विद्युत परियोजनाएं निर्माण करने का अधिकार सरकारी कंपनी यूजेवीएन से हटाकर एक निजी कंपनी आईएएंडएफएस के साथ संयुक्त उपक्रम यूआईपीसी का गठन कर सारे अधिकार इस कंपनी को सौंपने का षडयंत्र रचा गया। दुर्भाग्य से इसकी नींव भी नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल में कुछ शातिर किस्म के नौकरशाहों ने रचा। अखबार में इस पूरे षडयत्र का खुलासा होने के बाद राज्य सरकार को संयुक्त उपक्रम के एमओयू को बदलना पड़ा। हालांकि अभी भी संदिग्ध किस्म की आईएलएंडएफएस कंपनी और संयुक्त उपक्रम यूआईपीसी के पास राज्य सरकार के बहुत सारे काम हैं।
कुल मिलाकर उत्तराखंड के ऊर्जा प्रदेश की संभावनाओं को समाप्त करने के जिम्मेदार यहीं की सरकारें रही। इसकी आधारशिला नारायण दत्त तिवारी ने रखी, इन 21 सालों में बाद की सरकारें की इसी लीक पर चलती रहीं। अब इन राजनीतिक दलों में मुफ्त बिजली देने चुनावी होड़ लगी हुई है। क्या राज्य की जनता को यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि पहले राज्य की लुटाई गई बिजली को वापस लाओ, तब आगे की बात होनी चाहिए। वोट हासिल करने के लिए मुफ्त में बिजली लुटाने वाले दल सत्ता में आने के बाद राज्य की बची खुची सभावनाओं को भी पूरी तरह से मिट्टी में मिलाना चाहते हैं?