डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
नैनीताल जिले के रामनगर की लीची अपनी मिठास के कारण बहुत मशहूर है. दो साल पहले ही यहां की लीची को जीआई टैग मिला था. अब एक नई तकनीक से ये लीची और भी खास बन गई है. जी हां, अब रामनगर की लीची के गुच्छे नॉन वोवन बैग्स में लिपटे हुए हैं. इससे न केवल उसका स्वाद बढ़ेगा, बल्कि किसानों की कमाई भी उछाल मारेगी. दरअसल रामनगर की लीची अब सिर्फ एक फल नहीं, बल्कि एक ब्रांड बन चुकी है. इसके पीछे है मेहनत, शोध और नवाचार की एक प्रेरक कहानी की.उत्तराखंड के नैनीताल जिले में स्थित रामनगर, कालाढुंगी, चकलुआ अब केवल अपनी प्राकृतिक सुंदरता या जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के लिए नहीं, बल्कि मीठी और रसीली लीची के लिए भी जाने जा रहे हैं. दो वर्ष पूर्व रामनगर की लीची को विशेष भौगोलिक पहचान और गुणवत्ता के प्रमाण के लिए जीआई टैग मिला था. टैग से रामनगर की लीची को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में नई पहचान मिली. इस सफलता के बाद किसानों ने इसे और बेहतर बनाने की दिशा में काम किया. इसी कोशिश में सामने आई एक नई तकनीक जिसका नाम है नॉन वोवन बैग्स. रिसर्च के मुताबिक, नॉन वोवन बैग्स से लीची को न कीड़े नुकसान पहुंचा सकते हैं, न चिड़िया या चमगादड़. यहां तक कि आंधी-तूफान और ओलावृष्टि जैसी आपदाओं में भी ये फल सुरक्षित रहते हैं. इसके अलावा, इन बैग्स में लीची का रंग ज्यादा निखरता है और साइज भी बड़ा होता है. जब लीची बैग में होती है, तो हमें कीटनाशकों का छिड़काव करने की जरूरत नहीं पड़ती. इससे किसानों का खर्चा कम होता है और पर्यावरण भी सुरक्षित रहता है. ये तकनीक पूरी तरह इको-फ्रेंडली और कारगर है. इस साल पहली बार यह तकनीक कई खेतों में ट्रायल के रूप में अपनाई गई है. शुरुआती नतीजे बेहद उत्साहजनक हैं. बैग्स में लिपटी लीची न सिर्फ बड़ी और रसदार है, बल्कि टूट-फूट से भी पूरी तरह बची है. खुले में और बैग में लीची का तुलनात्मक अध्ययन किया. बैग वाली लीची न केवल बड़ी है, बल्कि गुणवत्ता में भी बेहतर है. यह किसानों के लिए फसल की सुरक्षा का एक बेहतरीन तरीका बनकर उभरा है. रामनगर की लीची को 2023 में जीआई टैग मिला था. इस क्षेत्र में लीची का उत्पादन रामनगर, कालाढुंगी, कोटाबाग और चकलुआ में होता है. यहां करीब 900 हेक्टेयर में लीची का उत्पादन होता है और लीची के करीब 140,000 पेड़ हैं. इलाके के 2000 से ज्यादा किसान लीची की खेती करते हैं. रामनगर की लीची अब केवल जीआई टैग तक सीमित नहीं है. अब यह विज्ञान, नवाचार और स्मार्ट खेती की मिसाल बन रही है. नॉन वोवन बैग्स ने इसे वो मिठास दी है, जो स्वाद में भी दिखती है और बाजार में बढ़ती इसकी मांग में भी. तो अगली बार जब आप मीठी लीची का स्वाद लें, तो जान लीजिए कि उसमें छुपी है रामनगर के किसानों की मेहनत, शोधकर्ताओं की लगन और एक नई तकनीक की शक्ति. उत्तराखंड की यह लीची अब देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अपनी मिठास घोलने को तैयार हो रही है. नॉन वोवन बैग पॉलीप्रोपाइलीन से बनाए जाते हैं. ये एक प्रकार का प्लास्टिक पॉलीमर है, लेकिन पारंपरिक प्लास्टिक बैग की तुलना में यह पर्यावरण के अधिक अनुकूल माना जाता है. नॉन-वोवन बैग पानी प्रतिरोधी होते हैं. इस कारण ये फलों के लिए सुरक्षित माने जाते हैं. रामनगर की रसीली लीची बाहरी राज्यों में अपना स्वाद बिखेर रही है। यहां के बागानों से लीची सीधे बाहरी राज्यों में सप्लाई हो रही है। खपत इतनी बढ़ गई कि मुंह मांगी कीमत मिलने पर भी बगीचे वालों के लिए आपूर्ति करना मुश्किल हो रहा है। देहरादून के बाज़ारों में स्थानीय लीची की उपलब्धता सीमित हो गई है। उन्होंने अपनी चिंता व्यक्त की कि शुरुआती मानसून की बारिश और लगातार बारिश ने लीची की कुछ फ़सल को बुरी तरह से नुकसान पहुँचाया है, जिसके परिणामस्वरूप बाज़ार की दुकानों से लीची चुपचाप गायब हो गई है। देहरादून में रामनगर की लीची उपलब्ध है, लेकिन काफ़ी ज़्यादा कीमत पर।शहर के डालनवाला इलाके के लीची ठेकेदार ने बताया कि भारी बारिश के कारण इस साल उनकी लीची की फसल में करीब 50 फीसदी का नुकसान हुआ है। उन्होंने बताया कि हालांकि इस सप्ताह की शुरुआत में बारिश शुरू हुई थी, लेकिन देहरादून में लीची के पेड़ों से अपेक्षित उपज 10 जून तक कम हो जाएगी, जबकि सामान्य तौर पर 20 जून तक पूरी तरह परिपक्व होने की संभावना होती है। इस साल अब तक हुई बारिश ने उनकी लीची की फसल को लगभग बर्बाद कर दिया है, और इसके परिणामस्वरूप, यह अनुमान लगाया जा रहा है कि इस मौसम में देहरादून के बाजार में स्थानीय लीची की कमी है और आगे भी रहेगी।धरमपुर इलाके में काम करने वाले एक अन्य लीची विक्रेता रहमान ने बताया कि वे रामनगर इलाके से उच्च गुणवत्ता वाली लीची खरीद रहे हैं। उन्होंने बताया कि वे 180 से 200 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से लीची बेच रहे हैं। बढ़ती कीमतों का कारण देहरादून में स्थानीय लीची की फसल का खराब होना है, जिससे बाजार में आपूर्ति कम हो गई है। नतीजतन, उनके जैसे स्थानीय विक्रेता दूसरे जिलों से लीची खरीद रहे हैं, जिससे उनकी कीमतों पर असर पड़ रहा है।हालांकि कुछ स्थानीय लीची उपलब्ध हैं, लेकिन उनकी मात्रा पिछले वर्षों की तुलना में काफी कम है, जब उनकी कीमत 120 रुपये प्रति किलोग्राम थी।स्थानीय बाजार में अन्य लीची विक्रेताओं ने भी इस मौसम में स्थानीय लीची की सीमित उपलब्धता के बारे में इसी प्रकार की चिंता व्यक्त की। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून की लीची दुनियाभर में मशहूर रही है. एक वक्त था जब पर्यटक देहरादून घूमने आते तो यहां की लीची लेकर जरूर जाते. लेकिन देहरादून के शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन, निर्माण कार्य और लीची बागों के कम होते जाने से आज देहरादून के इस मशहूर फल गायब हो गया है. अब लीची का उतना उत्पादन नहीं होता, जितना कभी होता था. देहरादून में कभी 6 हजार लीची बाग थे, लेकिन अब लोगों के घरों में और हरबर्टपुर, विकासनगर, सहसपुर और झाझरा में ही कुछ पेड़ देखने को मिलते हैं. पहाड़ों की लीची अपनी मिठास और महक खोती जा रही है. देहरादून में ज्यादा लीची के बाग हुआ करते थे, तब हजारों टन लीची का उत्पादन हुआ करता था. लेकिन जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण में परिवर्तन और शहरीकरण के चलते लीची का उत्पादन कम होने लगा है लीची की खेती कई चुनौतियों का सामना कर रही है। सबसे बड़ी समस्या है शहरीकरण, जिससे बागों की अंधाधुंध कटाई हुई है। वन और उद्यान विभाग द्वारा पेड़ों की कटाई की मंजूरी मिलने के बाद कई पुराने बाग नष्ट हो गए हैं। इसके अलावा नए बाग लगाने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा, जिससे न केवल उत्पादन घटा है, बल्कि लीची की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। जलवायु परिवर्तन भी एक बड़ी चिंता बन चुका है, क्योंकि बारिश और तापमान में बदलाव फलों के रंग और स्वाद पर असर डाल रहे हैं। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*