*गैरसैण से उठी आवाज़ !*
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देवभूमि उत्तराखंड किसी परिचय की मौहताज नहीं वहीं देवभूमि देश के यशस्वी प्रधान मंत्री की तप भूमि भी रहा है इस वजह से उत्तराखंड मोदी का प्रिय प्रदेश भी है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री देवभूमि की प्रशंसा करते कभी नहीं थकते और कोई मौका अगर देवभूमि में आने का उनका बन गया तो वो तय है कि मोदी आएंगे ही. हालांकि मोदी का उत्तरकाशी जिले के मुखबा में दौरा 27 फरवरी को ही प्रस्तावित था लेकिन मौसम के हाई अलर्ट की वजह से प्रधानमंत्री नहीं पहुंच पाए वही अब प्रधानमंत्री 6 मार्च को प्रस्तावित कार्यक्रम के हिसाब से देवभूमि पधारे हैं आपको बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उत्तराखंड में शीतकालीन यात्रा कार्यक्रम पहले से ही तय है। पीएम छह मार्च को एक दिवसीय दौरे पर उत्तरकाशी जनपद के दौरे पर रहें, जहां वे पहले मां गंगा के शीतकालीन गद्दी स्थल मुखबा में दर्शन व पूजा की, फिर हर्षिल में सार्वजनिक समारोह में शामिल हुए। साथ ही हर्षिल में विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए धामी सरकार के कामो की जमकर प्रशंसा भी की यह दौरा उत्तराखंड में धार्मिक पर्यटन और शीतकालीन पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण पहल साबित हो सकता है। वही दूसरी और प्रदेश में विधानसभा में पहाड़ियों पर दिए गए बयान को लेकर विपक्षी दलों के साथ साथ लोक गायक व संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी भी केबिनेट मंत्री को बर्खास्त करने के विरोध में 6 मार्च को ही गैरसैण में महा रैली करने का फैसला ले चुके है साथ ही बड़ी संख्या में गैरसैण चलो महा रैली का प्रचार प्रसार किया जा रहा है ताकि प्रधानमंत्री तक इस आंदोलन की आवाज पहुंच सकेमुखवा स्थित गंगा मंदिर एवं स्थानीय भवन शैली से बने पौराणिक भवनों को भव्य तरीके से सजाने के साथ ही समूचे मुखवा गांव को भी सजाया-संवारा गया।पी एम मोदी के प्रस्तावित कार्यक्रम के अनुसार मुखवा मंदिर के बाद प्रधानमंत्री पूर्वाह्न 10.30 बजे हर्षिल पहुंचकर उत्तराखंड शीतकालीन पर्यटन और स्थानीय उत्पादों की प्रदर्शनी का अवलोकन किया। सीमावर्ती नेलांग-जादुंग-पीडीए क्षेत्र का मनमोहक शीत मरुस्थल पठार का क्षेत्र अभी तक पर्यटन की गतिविधियों से अछूता रहा है। प्रधानमंत्री द्वारा इन क्षेत्रों के लिए साहसिक पर्यटन अभियानों के शुभारंभ से इस क्षेत्र में पर्यटन विकास के नए द्वार खुल जाएंगे।पी एम मोदी की हर्षिल में जनसभा के लिए बड़ा पंडाल बनाया गया। प्रधानमंत्री जनसभा को संबोधित करते हुए कहा मेरा माँ गंगा से विशेष लगाव रहा है, मैंने वाराणसी में भी कहा था मुझे माँ गंगा ने बुलाया है। उसी विशेष लगाव के चलते देवभूमि उत्तराखंड का विकास मेरी प्राथमिकता में रहता है।कैबिनेट मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल को लेकर सियासत कम होने का नाम नहीं ले रही है एक तरफ देश के प्रधानमंत्री हर्षिल में जनता को सम्बोधित कर रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर विपक्षी दलों को अपनी आवाज को प्रधान मंत्री तक पहुंचाने के लिए गैरसैण का सहारा लेना पड़ रहा है मांग सिर्फ एक ही है कि विधान सभा में दिए बयान को लेकर भाजपा कैबिनेट मंत्री को बर्खास्त किया जाए जिसके चलते बड़ी संख्या में लोक गायक व संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी के नेतृत्व में बड़ा जनांदोलन अन्य दलों का भी गैरसैण में आयोजित किया गया।जहां एक तरफ देश के प्रधानमंत्री उत्तराखंड में धार्मिक पर्यटन और शीतकालीन पर्यटन को बढ़ावा देने की बात करते नजर आये तो दूसरी ओर बड़ा आंदोलन गैरसैण में देखने को मिला सवाल यही उठता है जहाँ डबल इंजन की सरकार प्रदेश को विकास का मॉडल बनाने का सपना देख रही है वही अपने ही मंत्रियो की वजह से प्रदेश की जनता के आक्रोश का सामना करना पड़ रहा है अब देखना होगा कि मोदी के दौरे के दौरान इस जन आंदोलन का किसको फायदा किसको नुकसान उठाना पड़ेगा पहाड़ और मैदान की राजनैतिक बयानबाजियों को उत्तराखंड के साथ अन्याय बताया। उन्होंने इस मुद्दे पर विवाद समाप्त करने की अपील करते हुए कहा कि सदन के अंदर सभी को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना होता है और स्पीकर ने भी वही किया। लेकिन जिस तरह क्षेत्रवाद की आड़ में गैरजिम्मेदारी से उनके योगदान को नकारा जा रहा है वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।सदन में कैबिनेट मंत्री की टिप्पणी को लेकर पूछे गए सवाल ज़बाब देते हुए उन्होंने कहा कि किसी ने भी दोनों तरफ से हुई टिप्पणियां को उचित नहीं ठहराया है। लेकिन आज जिस तरह समाज में वैमनस्य पैदा करने वाले मुद्दे पर चर्चा हो रही है। इस सबसे कहीं न कहीं क्षेत्र का विकास प्रभावित होता है और पहाड़ के कल्याण के विषय पीछे छूटते हैं। लिहाजा हमे बेवजह के विवादों में नहीं उलझना चाहिए क्योंकि इसमें बहुत चर्चा हो गई है।उन्होंने एक सवाल का जवाब देते हुए, स्पीकर द्वारा सदन में किए दायित्व निर्वहन पर सोशल मीडिया टिप्पणियों को बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बताया। उन्होंने कहा कि सदन की मर्यादा होती है।बल्कि विधायक, एक पार्टी का कार्यकर्ता, उत्तराखंडी और राज्य आंदोलनकारी भी हूँ। चूंकि सदन के सदस्य नाते वहां हमारी कुछ मर्यादा होती है। ऐसे मे सदन के अंदर संवैधानिक परंपराओं, मर्यादा और अनुशासन का पालन कराना विधानसभा अध्यक्ष की भी जिम्मेदारी है। वे सदन से हम एकतरफा संदेश तो नहीं दे सकते है, सदन को व्यवस्थित करने और संतुलन बनाने का काम उनका होता है “इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी राज्य के संसाधनों-जल, जंगल, ज़मीन पर पहला अधिकार, उस राज्य के मूलनिवासियों का होता है, होना चाहिए. राज्य की नियुक्तियों में भी पहली प्राथमिकता उस राज्य के मूलनिवासियों को मिलनी चाहिए.”लेकिन मूल निवास को बहाल किए जाने की मांग को पहाड़-मैदान और बाहरी-भीतरी के लबादे में लपेटना, अंध क्षेत्रीयतावादी उन्माद खड़ा करने की कोशिश है. यह कुछ लोगों को सस्ती लोकप्रियता तो दिला सकता है, लेकिन वह राज्य की उस बड़ी आबादी के हितों को सुरक्षित नहीं कर सकती.” अब गैरसैण को राजधानी बनाने के लिए आवाज उठ रही है. आए दिन कोई न कोई काफिला, जुलूस दिल्ली देहरादून से होते हुए गैरसैण की ओर जाता है. उत्तराखंड राज्य की स्थापना के बाद देहरादून को राजधानी बनाया गया, लेकिन जब उत्तराखंड आंदोलन चल रहा था तो उसके मूल स्वर में यही था कि उत्तर प्रदेश से अलग करके पर्वतीय क्षेत्र का एक आदर्श राज्य होगा और गैरसैण इसकी राजधानी होगी.गैरसैण को राजधानी बनाने की सोच के पीछे यही आशय था कि यह गढवाल और कुमाऊं क्षेत्र के बिल्कुल बीच में है और यहां राजधानी स्थापित करने से गावों से होता हुआ विकास पूरे पहाड़ को समृद्ध करेगा.वैसे भावनात्मक स्वरूप से देखें तो गैरसैण को राजधानी बनाने का सपना पेशावर कांड के नायक वीर चंद्र सिंह गढवाली का था. उन्होंने महसूस किया था कि अगर कभी भविष्य में कोई राज्य बनता है तो गैरसैण इसके लिए उपयुक्त स्थल है. इसलिए जब नब्बे के दशक में राज्य आंदोलन हुआ तो नारे गैरसैण के लिए भी गूंजते रहे.इस क्षेत्र में उत्तराखंड राज्य बनने का उल्लास इस तरह था कि उस समय राज्य की राजधानी देहरादून बनाए जाने पर बड़ा सवाल खड़ा नहीं हुआ. इस राज्य में कुछ मैदानी इलाके भी जुड़े तो यही माना गया कि शुरू के कुछ वर्षों में सुविधा के लिहाज से देहरादून ही उपयुक्त होगा. बाद में समय के साथ गैरसैण क्षेत्र को पूरी तरह विकसित करके राजधानी के स्वरूप में ढाल दिया जाएगा. इसलिए राज्य की राजधानी भले देहरादून हो लेकिन कोई भी नेता गैरसैण पर विरोध का स्वर नहीं उभरता था. लेकिन इन सोलह सालों में राज्य जिस दिशा में चला उसमें उत्तराखंड के गांव सबसे ज्यादा उपेक्षित हो गए. पलायन भी होता रहा. केवल पिछले पंद्रह साल में ढाई लाख लोगों के घरों में ताले लगे हैं. पौड़ी के निकट एक गांव में तो एक ही महिला कई सालों से रह रही है. गांवों के सूने होने का मंजर हर तरफ है लेकिन पौड़ी अल्मोडा पिथौरागढ चमोली से कफी पलायन हुआ है. और यह पलायन केवल उत्तराखंड से बाहर की ओर का ही नहीं बल्कि इस राज्य में ही देहरादून हरिद्वार और उधमसिंह नगर के लिए भी हुआ है.समुचित विकास न होने, बार बार की आपदा और संचार स्वास्थ्य की सुविधाओं की ठीक सुविधा न होने से लोगों ने मजबूर होकर अपने गांवों को छोडा. पहले गांवों से कुछ लोग शहरों की ओर निकलते भी थे तो परिवार गांव में रहता था. लेकिन अब घरों में ताले रहे हैं. इस स्थिति में जहां उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों का तानाबाना टूट रहा है वहीं सुरक्षा और आपदा के दृष्टिकोण से भी गांवों का निर्जन होना ठीक नहीं. अजब यह भी कि केवल आम लोगों ने ही गावों से पलायन नहीं किया. बल्कि समृद्ध और क्षेत्र में राजनीति, व्यवसाय, कला संस्कृति समाजिक सरोकार रखने वाले लोग भी गांवों से निकलकर देहरादून या तराई क्षेत्र में बसते गए. उत्तराखंड को गांव से शहरों की ओर देखा जाना चाहिए था, लेकिन राज्य का आधार शहरों पर ही केंद्रित कर दिया गया. सब कुछ सिमट कर देहरादून आ गया. स्थिति यहां तक आई कि विधायक और दूसरे जनप्रतिनिधि चाहे किसी क्षेत्र के हों लेकिन वे देहरादून में रहकर ही अपना कामकाज संचालित करते हैं. उनका ज्यादातर समय देहरादून या हलद्वानी जैसे मैदानी इलाकों मे ही बीतता है. पहाड और गांव से उनके सरोकार कम हो गए हैं.इन स्थितियों में असंतोष बढना स्वाभाविक है. यहां तक कि इस दशा को लेकर लोकगीत भी बन गए हैं. सब्बी धाणी देहरादून खाणी कमाणी देहरादून यानी जो कुछ भी है वो सब देहरादून में ही है, अगर कुछ रोजगार कमाने का साधन है तो देहरादून ही है.उत्तराखंड आंदोलनकारियों के मन में तीन बातें घूम रही थी. उत्त प्रदेश से अलग होने पर इस क्षेत्र को इसकी संसाधनों पर विकसित करेंगे. इसके लिए पर्यटन, बागवानी, जल स्त्रोत, योग, आयुर्वेद जडी बूटी, पांरपरिक लघु उद्यम, शिक्षा और होटल रेस्त्रा तमाम चीजों से बहतर राज्य के रूप में आगे लाया जाएगा. कहीं न कहीं पड़ोसी हिमाचल ने अपनी स्थापना के साथ ही अपने आधार पर जिस तरह विकास किया उसकी कोई कल्पना लोगों के मन में थी. इसके लिए लोगों के मन में अपेक्षा थी कि राज्य बनने ही गांवों कस्बों का विकास होने लगेगा. लेकिन सरकारी आंकडों के उलट उम्मीद धरी रह गई. उत्तराखंड के दूरदराज के गांवों के लिए देहरादून और तरा के दूसरे शहर उसी तरह अपरिचित बने रहे जैसे कभी वह लखनऊ दिल्ली को देखते थे. इन स्थितियों में लोगों में यह भावना उमड़ी है कि देहरादून को राजधानी बनाकर राज्य संवर नहीं सकता. वही हालात बने रहेंगे.देहरादून राजधानी के रूप में सामने आई तो कई विसंगतियां बढती गई. राज्य में खनन होता रहा. उर्जा स्वास्थ्य शिक्षा के विभाग चरमराए. राज्य गति नहीं पकड़ सका. ऐसे में अब उत्तराखंड के लोगों को यही उम्मीद लगती है कि शायद उत्तराखंड के पहाडों में राजधानी बने तो स्थिति संभलेंगी. इसके लिए आंदोलन यात्राएं हो रही हैं. शहरों में भी पर्चे बांटते लोग दिख रहे हैं. गैरसैण की बात केवल गांवों से नहीं हो रही, बल्कि मुबई दिल्ली जैसे शहरों से भी सामजिक संस्थाएं गैरसैण के लिए यात्राएं निकाल रही है.गैरसैण अपने आप में एक खूबसूरत जगह है. अगर यह राज्य की स्थाई राजधानी के रूप में सामने आता है तो यह देश के ही नहीं दुनिया के खूबसूरत राजधानियों में एक होगी. यहां पर राजधानी का स्वरूप देने के लिए विधानभा भवन बनाया जा रहा हैराजनीतिक पार्टियां और नेता गोलमोल जवाब देते हैं. एक ही राजनीतिक पार्टी में अपने अंतर्विरोध उभर आते हैं.वास्तव में राजनीतिक पार्टियां सोचती क्यां है इसे यहां का व्यक्ति समझ नहीं पा रहा है. क्योंकि इसके कई पेंच है. उत्तराखंड का एक बड़ा क्षेत्र मैदानी है. जहां से चुनकर आने वाले प्रतिनिधि सत्ता और शासन के समीकरणों को बनाऔर बिगाड सकते हैं. यही नहीं इन मैदानी इलाकों में पहाड़ों के नेताओं के अपने राजनीतिक क्षेत्र भी है. बहुत छोटे स्तर पर ही सही लेकिन टिहरी देहरादून आदि क्षेत्र में कुछ लोग यह भी सोचते हैं कि देहरादून से गैरसैण दूर हो जाएगा. हालांकि पहाड़ों के समग्र विकास पर गैरसैण के लिए स्वर मिलाते दिखेंगे. एक पेंच नौकरशाही का भी है. ब्यूरोक्रेट्स देहरादून को ही राजधानी के लिए सहज मानता है
उत्तराखंड की शीतकालीन यात्रा का उद्घाटन करने वाले हैं, जो कि एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन है। इस यात्रा के तहत, उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय क्षेत्र के चारधामों में से एक गंगोत्री मंदिर के पास स्थित मुखबा गांव को शीतकालीन प्रवास स्थल के रूप में स्थापित किया जाएगा। मुखबा गांव को मां गंगा का शीतकालीन निवास स्थल माना जाता है, जहां हर साल सर्दियों में विशेष धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। यह एक अद्भुत परंपरा है, जो भारतीय संस्कृति और विश्वासों की गहरी जड़ें दर्शाती है।गंगोत्री मंदिर, जो कि मां गंगा के पूजन का प्रमुख स्थल है, सर्दियों के दौरान बर्फ से ढ़क जाता है और इसलिए वहां पूजा के कार्य भी सीमित हो जाते हैं। पारंपरिक रूप से, सर्दी के मौसम में गंगोत्री मंदिर के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं और मां गंगा की डोली को मुखबा गांव ले जाया जाता है। इस डोली को खास श्रद्धा और भक्ति के साथ लाया जाता है, और वहां के स्थानीय लोग मां गंगा की पूजा अर्चना करते हैं। मुखबा गांव को इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है क्योंकि इस गांव को मां गंगा के प्रतीक के रूप में माना जाता है, जहां उनकी शीतकालीन यात्रा होती है। देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जो भारत-तिब्बत सीमा से जुड़े उत्तराखंड के चमोली और पिथौरागढ़ सीमावर्ती जिलों के बाद अब उत्तरकाशी के मुखबा और हर्षिल पहुंच रहे हैं। प्रधानमंत्री के नाम एक और रिकॉर्ड दर्ज होगा। वो देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जो गंगा के शीतकालीन पूजा स्थल पहुंचेंगे। पिछले दो सालों में चमोली जनपद के पहले गांव माणा, पिथौरागढ़ जनपद के सीमावर्ती गांव गुंजी के बाद अब उत्तरकाशी जिले के अंतिम आबादी गांव मुखबा और हर्षिल पहुंच रहे हैं। उनके दौरे से सीमावर्ती गांवों के विकास के साथ ही ग्रामीणों की सालों पुरानी मांगों के पूरा होने की उम्मीद भी जगी है। वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध से पहले यहां के ग्रामीणों का तिब्बत से सीधा व्यापारिक संबंध था। इसके अलावा चमोली जनपद की नीति माणा, उत्तरकाशी जिले के कोपांग, जादूंग और पिथौरागढ़ जिले के गुंजी गांवों से तिब्बत और मानसरोवर यात्रा की जाती थी। वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद पिछले छह दशकों से अधिक समय से व्यापार और कैलाश मानसरोवर यात्रा बंद है। हालांकि वर्ष 1976 में कैलाश मानसरोवर यात्रा फिर से शुरू की गई, लेकिन फिर कोविडकाल और बाद में चीन से संबंधों में तल्खी के बाद यह यात्रा बंद है। पिछले दिनों केंद्रीय विदेश मंत्री की चीन के विदेश मंत्री से कैलाश मानसरोवर यात्रा शुरू करने को लेकर हुई वार्ता से उम्मीद के पंख लगे हैं। भारत तिब्बत सीमा से सटे उत्तराखंड के सीमावर्ती गांव हैं माणा, कोपांग और गुंजी। पहले इन सभी सीमावर्ती गांवों को देश का अंतिम गांव कहा जाता था, लेकिन अब ये देश के पहले गांव के रूप में पहचाने जाते हैं। केंद्र सरकार की वाइब्रेंट विलेज योजना के तहत इन सीमांत गांवों का चयन किया गया है। ये सीमा से जुड़े गांव धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक एवं पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। मुखबा गांव में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और यह उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई है। इस परंपरा के दौरान, गांववासियों द्वारा मां गंगा की विशेष पूजा की जाती है, जो न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है बल्कि स्थानीय समुदाय की एकता और सहयोग को भी दर्शाता है। यह अनुष्ठान न केवल स्थानीय लोगों के लिए बल्कि श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बनता है।प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस यात्रा के उद्घाटन से न केवल उत्तराखंड की धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को प्रोत्साहन मिलेगा, बल्कि यह राज्य के पर्यटन उद्योग को भी नया जीवन प्रदान करेगा। शीतकालीन यात्रा का उद्घाटन इस बात को दर्शाता है कि भारत में धार्मिक पर्यटन और सांस्कृतिक संरक्षण के प्रति सरकार की गहरी रुचि है। इसके माध्यम से पर्यटकों को न केवल आध्यात्मिक अनुभव मिलेगा, बल्कि वे उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को भी करीब से महसूस कर सकेंगे। हर्षिल-मुखवा के मनोरम प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण क्षेत्र में आगमन से शीतकालीन यात्रा को पंख लगेंगे। पूरे विश्व में इस यात्रा का प्रचार-प्रसार होगा। जिससे हमारे राज्य में बड़ी संख्या में श्रद्धालु व पर्यटकों का आगमन होना तय है। यह अवसर हमारे राज्य की समृद्धि में बहुत बड़ा योगदान साबित होने वाला है। प्रधानमंत्री के इस दौरे से आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना को बल मिलेगा। प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान राज्य उत्पादों की एक प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया है जिसमें सभी पर्वतीय जिलों के प्रमुख घरेलू उत्पादों के स्टाल लगाये जाएंगे। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का कहना है कि उत्तराखंड आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के आगमन से चारधाम यात्रा को नई दिशा मिलेगी।प्रधानमंत्री पहली बार मुखवा आ रहे हैं उनके इस दौरे को लेकर क्षेत्र वासियो में अत्यंत ही उत्साह है। जहां एक ओर मां गंगोत्री के मंदिर को फूलों से सजाया गया है वहीं लोक कलाकार भी अपनी विभिन्न प्रस्तुतियों से पारंपरिक वेशभूषा में उनका स्वागत करेंगे। प्रधानमंत्री यहां पहुंचने पर सबसे पहले मां गंगा की पूजा अर्चना करेंगे तथा इसके पश्चात वह उत्पाद प्रदर्शनी का अवलोकन भी करेंगे। इसके बाद वह हर्षिल में आयोजित होने वाली जनसभा को संबोधित करेंगे जिसे लेकर हर्षिल के 8-10 गांवों के लोग उन्हें सुनने पहुंचेंगे। मुखबा में पारंपरिक परिधान चपकन पहनकर मां गंगा की पूजा-अर्चना कर सकते हैं। मां गंगा के शीतकालीन प्रवास स्थल मुखबा में तीर्थ पुरोहित इसी परिधान में पूजा करते हैं। गंगोत्री मंदिर समिति के सचिव सुरेश सेमवाल के अनुसार, मंदिर समिति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये परिधान भेंट करेगी। चपकन कोट की तरह दिखने वाला बेहद गर्म परिधान होता है। इसे मुखबा गांव के सम्मान का प्रतीक माना जाता है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री को हर्षिल कार्यक्रम के दौरान वहां का पारंपरिक परिधान मिरजाई भेंट करने की तैयारी है। सीमांत जिले उत्तरकाशी के रासौं नृत्य की अपनी खास पहचान है. मांगलिक और अन्य त्यौहार के अवसर पर महिलाएं और पुरुष सामूहिक रूप से पारंपरिक गीत गाते हुए यह नृत्य करते हैं. तीर्थ पुरोहित व लोक गायक के अनुसार, पीएम मोदी के स्वागत में रासौं नृत्य किया जाएगा. इसके लिए ग्रामीण लगातार तैयारी कर रहे हैं वहीं, उत्तरकाशी के रासौं नृत्य की अपनी खास पहचान हैं। तीर्थ पुरोहित व लोक गायक रजनीकांत सेमवाल के अनुसार, इसके लिए ग्रामीण लगातार तैयारी कर रहे हैं। राज्य की समृद्धि में बहुत बड़ा योगदान साबित होने वाला है।! ।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।