डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रतिवर्ष सम्पूर्ण विश्व में 26 नवम्बर को विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस मनाया जाता है। यह दिवस पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने एवं लोगों को जागरूक करने के सन्दर्भ में सकारात्मक कदम उठाने के लिए मनाते हैं। सन् 1992 में विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस मनाने की शुरुआत हुई थी। साधारण तौर पर सोचे तो पर्यावरण से तात्पर्य हमारे चारो ओर के वातावरण और उसमे निहित तत्वो और उसमे रहने वाले प्राणियों से है। हम अपने चारों ओर उपस्थित वायु, भूमि, जल, पशु, पक्षी, पेड़ पौधे आदि को अपने पर्यावरण में शामिल करते है। जिस तरह हम अपने पर्यावरण से प्रभावित होते हैं, उसी प्रकार हमारा पर्यावरण भी हमारे द्वारा किए गए कृत्यो से प्रभावित होता है। जैसे लकड़ी के लिए काटे गए पेड़ो से जंगल समाप्त हो रहे है और जंगलो के समाप्त होने से इसमे रहने वाले जीवो के जीवन पर भी असर पड रहा है। जीवो की कुछ जातीय तो विलुप्त हो गयी और कुछ विलुप्त होने की कगार पर है 26 नवंबर को हम मुख्यतः दो दिवस मनाते हैं पहला है विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस यह दिवस पर्यावरण के प्रति जागरुक होने और पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने के संबंध में मनाया जाता है आज के दौर में सबसे बड़ी वैश्विक समस्या पर्यावरण है जिससे आने वाले भविष्य में पर्यावरण से उत्पन्न खतरों के बारे में वैज्ञानिकों ने आगाह किया है।
दरअसल आधुनिक जीवन शैली और प्रकृति के बीच असंतुलन के कारण ऐसा हो रहा है पेड़ पौधों की कमी तथा लगातार मानव द्वारा प्रकृति का दोहन की जाने तथा पर्यावरण प्रदूषण फैलाने से विसंगति उत्पन्न हो रही है इसी को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यूएनईपी के माध्यम से सन 1992 में पृथ्वी सम्मेलन पर पर्यावरण के प्रति जागरुक होने के लिए विश्व के सभी देश एकत्रित होकर इस के संबंध में विचार विमर्श किया उसके बाद से विश्व स्तर पर तथा क्षेत्रीय स्तर पर पर्यावरण को सुधारने के लिए कई तरह के सम्मेलन किए गए यह सम्मेलन अधिकतर रियो डी जनेरियो में आयोजित किया गया संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का लक्ष्य 5ः तक वैश्विक तापमान को कम किया जाना तथा ओजोन परत को क्षति पहुंचाने वाले कारकों को समाप्त करना है जिससे की वैश्विक स्तर पर इस समस्या से निजात मिल सके यह दिवस हमें यह अवसर देता है कि हम एकजुट होकर के पर्यावरण के प्रति सचेत हो कर लोगों को जागरूक करें और कुछ ऐसे कार्यक्रम आयोजित करें जिससे कि पर्यावरण की सुरक्षा किया जा सके और हम पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का समुचित निर्वहन कर सकें।
26 नवंबर को हम भारतीय संविधान दिवस मनाते हैं 26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा भारतीय संविधान को स्वीकृत किया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे पूरे भारत में लागू किया गया भारत के महान संविधान वास्तुकार डॉ भीमराव अंबेडकर के महान योगदान के कारण भी इस दिवस को मनाया जाता है भीमराव अंबेडकर के संविधान के सच्चे और अच्छे शिल्पकार माने जाते हैं उन्हीं के नेतृत्व में भारतीय संविधान बनकर तैयार हुआ और इसी दिन डॉक्टर भीमराव भीमराव अंबेडकर योगदान को पूरे देश में याद करके 19 सच्ची श्रद्धांजलि दी जाती है। मानवीय क्रियाकलापों की वजह से पृथ्वी पर बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। इसी सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए बहुत सारी सरकारों एवं देशों ने इनकी रक्षा एवं उचित दोहन के सन्दर्भ में अनेकों समझौते संपन्न किये हैं। इस तरह के समझौते यूरोपए अमेरिका और अफ्रीका के देशों में 1910 के दशक से शुरू हुए हैं। इसी तरह के अनेकों समझौते जैसे. क्योटो प्रोटोकालए मांट्रियल प्रोटोकाल और रिओ सम्मलेन बहुराष्ट्रीय समझौतों की श्रेणी में आते हैं। वर्तमान में यूरोपीय देशों जैसे जर्मनी में पर्यावरण मुद्दों के सन्दर्भ में नए.नए मानक अपनाए जा रहे हैं जैसे. पारिस्थितिक कर और पर्यावरण की रक्षा के लिए बहुत सारे कार्यकारी कदम एवं उनके विनाश की गतियों को कम करने से जुड़े मानक आदि। लेकिन इन सबके बावजूद पर्यावरण विनाश की स्थितियां विकराल रूप से बढ़ रही है। निरंतर बढ़ रही जनसंख्या के कारण नई कृषि तकनीकए औद्योगिकरण और नगरीयकरण के कारण लोगों के जीवन स्तर में काफी परिर्वतन हो रहें हैं। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा है।
मनुष्य प्रकृति के साथ अनेक वर्षों से छेड़छाड़ कर रहा हैए जिससे पर्यावरण को काफी नुकसान हो रहा है। इसे देखने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। धरती पर बढ़ रही बंजर भूमि, फैलते रेगिस्तान, जंगलों का विनाश, लुप्त होते पेड़.पौधे और जीव जंतु, दूषित होता पानी, शहरों में प्रदूषित हवा और हर साल बढ़ते बाढ़ एवं सूखा, ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक तापमान वृद्धि, ग्लेशियर पिघलना, ओजोन का क्षतिग्रस्त होना आदि इस बात का सबूत हैं कि हम धरती और पर्यावरण की सही तरीके से देखभाल नहीं कर रहे।
आज पूरे भारत वर्ष में पर्यावरण के सम्मुख गंभीर स्थितियां बनी हुई हैं। प्लास्टिक का उपयोग बहुत ज्यादा बढ़ रहा है। प्लास्टिक के उपयोग से पर्यावरण को बहुत अधिक नुकसान हो रहा हैए क्योंकि प्लास्टिक न तो नष्ट होती है और न ही सड़ती है। एक शोध के मुताबिक प्लास्टिक 500 से 700 सालों के बाद नष्ट होना प्रारम्भ होता है। प्लास्टिक को पूरी तरह से नष्ट होने में 1000 साल लग जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अभी तक जितना भी प्लास्टिक बना वो आज तक नष्ट नहीं हुआ है। मनुष्य जब प्रकृति का स्वामी बन जाता है तो वह उसके साथ कसाई जैसा व्यवहार करने लग जाता है। पश्चिम की सभ्यता की उपलब्धियां और उसके आधार पर दुनिया पर उसका आर्थिक साम्राज्य उन देशों के लिए भी अनुकरणीय बन गया जिनकी लूट.खसोट से वे वैभवशाली बने। प्रकृति के भण्डार सीमित हैं और यदि उनका दोहन पुनर्जनन की क्षमता से अधिकमात्रा में किया जाए तो ये भण्डार खाली हो जाएंगे। जल, जंगल और जमीन का एक.दूसरे के घनिष्ट संबंध है। भोगवादी सभ्यता जंगलों को उद्योग व निर्माण सामग्री का भण्डार मानती है। वास्तव में वन तो जिंदा प्राणियों का एक समुदाय है जिसमें पेड़, पौधे, लताएं, कन्द.मूल, पशु.पक्षी और कई जीवधारी शामिल हैं। इनका अस्तित्व एक.दूसरे पर निर्भर है। औद्योगिक सभ्यता ने इस समुदाय को नष्ट कर दियाए वन लुप्त हो गए। इसका प्रभाव जल स्त्रोतों पर पड़ा। वन वर्षा की बूंदों की मार अपने हरित कवच के ऊपर झेलकर एक ओर तो मिट्टी का कटाव रोकते हैं और उसका संरक्षण करते हैं। पत्तियों को सड़ाकर नई मिट्टी का निर्माण करते हैं और दूसरी ओर स्पंज की तरह पानी को चूसकर जड़ों में पहुंचाते हैं, वहीं पानी का शुद्धिकरण और संचय करते हैं, फिर धीरे.धीरे इस पानी को छोड़कर नदियों के प्रवाह को सुस्थिर रखते हैं। इसीलिए मुहावरा बना है कि ष्जंगल नदियों की मां है। हमारे शास्त्रों में संतोषं परमं सुखं का मुहावरा आया है। इसलिए विकास की परिभाषा यह है कि विकास वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति और समाज स्थायी सुखए शांति और संतोष का उपयोग करते हैं। वहां प्राकृतिक संसाधनों को क्षरण नहीं होता बल्कि उनकी वृद्धि होती रहती है।
दूसरा, जिससे एक व्यक्ति या समूह का लाभ होता हैए उसे दूसरों की क्षति न होए विकास के कारण समाज में असंतुलन पैदा नहीं होना चाहिए। असंतुलन असंतोष की जननी है। इन स्थितियों में आज की भोगवादी सभ्यता को प्राथमिकताओं. बाहुल्य के स्थान पर सादगी और संयम को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। सौभाग्य से भारतीय संस्कृति में सादगी और संयम का पालन करने वाले ही समाज में पूज्य और सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते रहे हैं। महात्मा गांधी ने भारतीय संस्कृति के इस संदर्भ को स्वयं अपने आचरण द्वारा पुनः जीवित कर सारी दुनिया को राह बता दी। उन्होंने कहा. प्रकृति के पास हर एक की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त है लेकिन किसी एक के भी लोभ लालच को संतुष्ट करने के लिए कुछ नहीं हैं। निश्चित रूप से कई वस्तुएं ऐसी होंगी जिनके बिना हमारा काम नहीं चल सकता इसके विकल्प ढूंढने होंगे। इधर भारत सरकार का नारा है सबका साथ, सबका विकास, यह नारा जितना लुभावना है उतना ही भ्रामक एवं विडम्बनापूर्ण भी है। यह सही है कि आम आदमी की जरूरतें चरम अवस्था में पहुंच चुकी हैं। हम उन जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास की कीमत पर्यावरण के विनाश से चुकाने जा रहे हैं। पर्यावरण का बढ़ता संकट कितना गंभीर हो सकता है, इसको नजरअंदाज करते हुए सरकार राजनीतिक लाभ के लिये कोरे विकास की बात कर रही है, जिसमें विनाश की आशंकाएं ज्यादा हैं। विकास और पर्यावरण साथ.साथ चलने चाहिएं लेकिन यह चल ही नहीं रहे हैंए इसमें सरकारों के नकारापन के ही संकेत दिखाई देते हैं।जिस तरीके से देश को विकास की ऊंचाई पर खड़ा करने की बात कही जा रही है और इसके लिए औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे तो लगता है कि प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों एवं विविधतापूर्ण जीवन का अक्षयकोष कहलाने वाला देश भविष्य में राख का कटोरा बन जाएगा। हरियाली उजड़ती जा रही है और पहाड़ नग्न हो चुके हैं। नदियों का जल सूख रहा है, कृषि भूमि लोहे एवं सीमेन्ट, कंकरीट का जंगल बनता जा रहा है। महानगरों के इर्द.गिर्द बहुमंजिले इमारतों एवं शॉपिंग मॉल के अम्बार लग रहे हैं। उद्योगों को जमीन देने से कृषि भूमि लगातार घटती जा रही है। नये.नये उद्योगों की स्थापना से नदियों का जल दूषित हो रहा है, निर्धारित सीमा.रेखाओं का अतिक्रमण धरती पर जीवन के लिये घातक साबित हो रहा है। महानगरों का हश्र आप देख चुके हैं। अगर अनियोजित विकास ऐसे ही होता रहा तो दिल्लीए मुम्बईए कोलकता में सांस लेना जटिल हो जायेगा।इस देश में विकास के नाम पर वनवासियों, आदिवासियों के हितों की बलि देकर व्यावसायिक हितों को बढ़ावा दिया गया। खनन के नाम पर जगह.जगह आदिवासियों से जल, जंगल और जमीन को छीना गया। कौन नहीं जानता कि ओडिशा का नियमागिरी पर्वत उजाड़ने का प्रयास किया गया।
आदिवासियों के प्रति सरकार तथा मुख्यधारा के समाज के लोगों का नजरिया कभी संतोषजनक नहीं रहा। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अक्सर आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं करते हैं और वे इस समुदाय के विकास के लिए तत्पर भी हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि आदिवासियों का हित केवल आदिवासी समुदाय का हित नहीं है प्रत्युतः सम्पूर्ण देशए पर्यावरण व समाज के कल्याण का मुद्दा है जिस पर व्यवस्था से जुड़े तथा स्वतन्त्र नागरिकों को बहुत गम्भीरता से सोचना चाहिए।विकास के लिये पर्यावरण की उपेक्षा गंभीर स्थिति है। सरकार की नीतियां एवं मनुष्य की वर्तमान जीवन.पद्धति के अनेक तौर.तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती.जागती दुनिया को इतना बदल रहे हैं कि वहां जीवन का अस्तित्व ही कठिन हो जायेगा। प्रकृति एवं पर्यावरण की तबाही को रोकने के लिये बुनियादी बदलाव जरूरी है और वह बदलाव सरकार की नीतियों के साथ जीवनशैली में भी आना जरूरी है।