डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तरांचल राज्य बना था, जिसका नाम 2007 मे बदलकर उत्तराखंड रखा गया. इस साल राज्य को 25 साल होने जा रहे हैं. ऐसे में पिछले 25 सालों में उत्तराखंड में बहुत बदलाव आए हैं. क़ई लोगों का मानना है कि मैदानी जिलों में शहरीकरण और विकास हुआ तो क़ई लोग मानते हैं कि पहाड़ों पर आज तक बदहाल स्थिति बनी हुई है.देहरादून के रहने वाले एडवोकेट ने कहा कि राज्य बन गया, लेकिन बेहतर होता कि यह यूपी से अलग न होता, क्योंकि जिस तरह से देहरादून समेत अभी राज्यों में गुंडागर्दी, क्राइम देखने के लिए मिलता है तो अलग से राज्य बनाने का क्या फायदा. जब यहां के स्कूलों और अस्पतालों की स्थिति न बदली हो. उन्होंने बताया कि हम बचपन से देहरादून में रह रहे हैं. कभी शांतिप्रिय शहर हुआ करता था, लेकिन आज चोरी- चकारी और खराब माहौल है. यातायात जाम इतना हो जाता है कि गाड़ी वालों की तो छोड़िए पैदल चलने वाले को जगह नहीं मिल पाती है.देहरादून में रह रहे हैं. कभी शांतिप्रिय शहर हुआ करता था, लेकिन आज चोरी- चकारी और खराब माहौल है. यातायात जाम इतना हो जाता है कि गाड़ी वालों की तो छोड़िए पैदल चलने वाले को जगह नहीं मिल पाती है.उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तरांचल राज्य बना था, जिसका नाम 2007 मे बदलकर उत्तराखंड रखा गया. इस साल राज्य को 25 साल होने जा रहे हैं. ऐसे में पिछले 25 सालों में उत्तराखंड में बहुत बदलाव आए हैं. क़ई लोगों का मानना है कि मैदानी जिलों में शहरीकरण और विकास हुआ तो क़ई लोग मानते हैं कि पहाड़ों पर आज तक बदहाल स्थिति बनी हुई है. राज्य आंदोलन के दौरान वह भी उसमें शामिल होते थे, जिस सपने को लेकर वे लड़ाई लड़ते थे. 25 साल बाद भी वे पूरे न हो सके. उन्होंने कहा कि कहा गया था कि पहाड़ का जंगल, जमीन, जवानी और पानी राज्य के विकास के लिए काम आएंगी, लेकिन जंगलों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, भूमि खनन से खोदी जा रही है औऱ पहाड़ की जवानी यानी युवा अक्सर बेरोजगारी या भ्र्ष्टाचार को लेकर सड़कों पर उतर आते हैं. उन्होंने कहा कि जिस आशा को लेकर सभी ने राज्य गठन की लड़ाई लड़ी थी वह पूरी न हो सकी. कुछ लोगों का मानना है कि राज्य बनने के बाद क़ई लोगों ने उद्यम और अच्छी नौकरी पाकर आजीविका चला रहें हैं. पवन सिंह रावत का कहना है कि उन्होंने सरकारी लोन लेकर अपना स्मॉल बिजनेस शुरू किया था, क़ई सरकारी योजनाओं से शहर के हालात सँवारे हैं और उद्यम को भी नई उड़ान मिली है, क़ई लोग देहरादून शहर के बदले स्वरूप और सौंदर्यीकरण से ख़ुश है तो क़ई लोग शहरीकरण और प्रदूषण के चलते देहरादून को पहले से खराब हालत में देख रहें हैं. प्रशांत का कहना है कि देहरादून को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए साल 2019 से काम शुरू किया गया था लेकिन आज तक पूरी तरह से देहरादून स्मार्ट सिटी नहीं बन पाया. यहां कूड़े का अंबार, यातायात जाम का झाम और क्राइम से लेकर खराब आबोहवा ने शांत शहर को खराब बना दिया. , लेकिन जिस उत्तराखंड का सपना राज्य आंदोलनकारियों ने देखा था. वह आज तक पूरा नहीं हो पाया है. उत्तराखंड राज्य गठन के पीछे दो सदियों का संघर्ष है. कई राज्य आंदोलकारियों की शहादत है, जिसके बदौलत आज उत्तराखंड अपने अस्तित्व में आया है, लेकिन अभी भी सपनों का उत्तराखंड अधूरा है. जानिए राज्य स्थापना के पीछे की कहानी.उत्तराखंड राज्य ऐसे ही नहीं बना है. इसके पीछे दो सदी की संघर्ष की कहानी है. माताओं-बहनों का अपमान, गोलीकांड, लाठीचार्ज और कई शहादतें इसमें शामिल हैं. राज्य स्थापना के 25 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन सपनों का उत्तराखंड की तलाश अभी जारी है. दर्द इस बात की है कि प्रदेश में इन 50 सालों के दौरान चौथी निर्वाचित सरकार बन चुकी है, लेकिन राज्य निर्माण आंदोलन कार्यों के सवाल आज भी जस के तस बने हुए हैं.उत्तराखंड राज्य निर्माण के दौरान तमाम घटनाओं में 40 राज्य आंदोलनकारियों ने अपनी जान गंवाई थी, जिसका रिकॉर्ड सरकारी खातों में दर्ज है. इसमें मुजफ्फरनगर कांड, मसूरी और खटीमा कांड में सबसे ज्यादा आंदोलनकारी शहीद हुए थे. शहीद राज्य आंदोलनकारियों पर गौर करें तो 1 सितंबर 1994 को खटीमा गोलीकांड हुआ, जिसमें 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए थे. खटीमा में हुए इस गोलीकांड के दौरान राज्य आंदोलनकारी बेहद शांति के साथ अपना आंदोलन कर रहे थे. तभी अचानक से पुलिस फोर्स की तरफ से गोलियों चलाई गई, जिसमें 7 आंदोलनकारियों को अपनी जान गंवानी पड़ी. इतनी शहादतों के बाद आखिरकार 9 नवंबर 2000 को राज्य की स्थापना हुई. वहीं, 25 साल बाद भी शहीदों और राज्य आंदोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड नहीं बन पाया है. हैरत इस बात की है कि आज तक राज्य आंदोलनकारियों की मांगों को कोई सरकार पूरा नहीं कर पाई है. राज्य आंदोलनकारियों का कहना है कि सरकारों ने सत्ता के लालच में शहीदों के सपनों को भुला दिया है. कांग्रेस और भाजपा ने बारी-बारी प्रदेश पर राज तो किया, लेकिन दिल्ली की जी हजूरी के चक्कर में प्रदेश के विकास और शहीदों के सपनों को नेता भुला बैठे. देवभूमि’ या ‘देवताओं का निवास’ कहे जाने वाले उत्तराखंड, भारत के उत्तरी भाग में स्थित है। यह हिमालय पर्वतमालाओं से घिरा एक खूबसूरत राज्य है, जो आध्यात्मिक आभा और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से ओतप्रोत है। यह राज्य अपने मनोरम हिल स्टेशनों, खूबसूरत गाँवों, असंख्य नदियों और चार सबसे पवित्र हिंदू मंदिरों (यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ), जिन्हें छोटा चार धाम भी कहा जाता है, के लिए प्रसिद्ध है। उत्तराखंड को बनाने में आमजन की सीधी सहभागिता रही, इसमें हर वर्ग का संघर्ष रहा, लेकिन जब राज्य के बारे में सोचने व सरकारों के कार्यो के आकलन का मौका आया तो सभी सरकार से अपनी-अपनी मांगों को मनवाने में लग गए। ऐसा लग रहा है कि उत्तराखंड राज्य का गठन ही कम काम बेहतर पगार, अधिक पदोन्नति और ज्यादा सरकारी छुट्टियों, भर्तियों में अनियमितता व विभिन्न निर्माण कार्यो की गुणवत्ता में समझौता करने के लिए हुआ है।मानो विकास का मतलब विद्यालय व महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पतालों व मेडिकल कालेजों के ज्यादा से ज्यादा भवन बनाना भर है, न कि उनके बेहतर संचालन की व्यवस्था करना। हर साल सड़कें बनाना मकसद है, पर हर साल ये क्यों उखड़ रही हैं, इसकी चिंता न तो सरकारें करती हैं और न ही विपक्ष इस पर सवाल उठाता है। जाहिर है कि करोड़ों रुपये के निर्माण में लाभार्थी पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने हैं।उस वर्षगांठ को मनाने का औचित्य ही क्या है जिसमें उपलब्धियों व असफलताओं की बैलेंस सीट ईमानदारी से न खंगाली जाए। अब लोग भी यह पूछने लगे हैं कि अलग राज्य बनने के बाद ऐसा क्या हुआ जो उत्तर प्रदेश में ही रहते तो नहीं हो पाता। अगर कई जमीनी मुद्दों को सत्ताधारी नहीं देखते हैं या छिपाते हैं तो इसके कारण समझ में आते हैं, लेकिन विपक्ष की खानापूर्ति तो चिंता का कारण बनती है। जाहिर है कि इन 25 सालों में जवाबदेह व्यवस्था नहीं बन पाई है।दोनों प्रमुख दलों ने प्रदेश को मुख्यमंत्री तो दिए, लेकिन जननेता नहीं। सत्ता के सिंहासन पर बारी-बारी से दल तो बदले, लेकिन तौर-तरीके नहीं। इन वर्षो में राज्य की राजधानी का मसला तक नहीं सुलझ पाया। आज राज्य के पास गैरसैंण में शीतकालीन राजधानी है व देहरादून में अस्थायी राजधानी। भावनाओं की कीमत पर जमीनी हकीकत से किनारा न किया गया होता सालों में स्थायी राजधानी तो मिल ही गई होती। नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं।जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं। आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर रहती है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं।लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है। आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*












