भारतीय लाइकेनोलॉजिकल डॉ. डीके उप्रेती
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के सीमांत पिथौरागढ़ जिले के डॉ. डीके उप्रेती ने दुनिया भर में लाइकेन की 20,000 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत में इसकी 2714 प्रजातियां हैं जबकि उत्तराखंड में लगभग 600 प्रजातियां हैं। लाइकेन के लिए अनुकूल स्थान होने के कारण दो वर्ष पहले जून 2020 में वन विभाग ने मुनस्यारी में दो हेक्टेयर भूमि में लाइकेन पार्क विकसित किया था। मुख्य वन संरक्षक (कार्ययोजना) के निर्देशन में बनाए गए अपनी तरह के इस पहले पार्क में लाइकेन की 120 प्रजातियां विकसित की गई हैं। झूला एक लाइकेन है जो फफूंदी (Fungus) तथा शैवाल (Algae) से मिलकर बनता है तथा एक दूसरे के साथ परस्पर लाभान्वित (Symbiotic) करते हुए पेडों के छालों पर उगते हुए देखे जाते है। सामान्यतः देखने में इनकी कुछ खास महत्वा नहीं दिखती किंतु यह पेड की छाल के ऊपर एक परत बनाकर पेड को विपरित वातावरण के प्रभाव व नमी की मात्रा को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। इनका पारम्परिक उपयोग मेहंदी, औषधी तथा मसालों में किया जाता है जिसकी वजह से बडे औद्योगिकी क्षेत्रों में इनकी वृहद मॉग रहती है। केवल गढवाल क्षेत्र से ही 750 मीट्रिक टन लाइकेन एकत्रित कर बडे बाजारों को बेचा जाता है। इसका आर्थिक महत्व इसी से आंका जा सकता है कि वन विभाग के आंकडों के अनुसार वर्ष 2016 से 2024 तक लगभग 98 6.53 कुन्तल लाईकेन 177.33 प्रति कि0ग्रा0 की दर से बेचा गया है। लाइकेन वैज्ञानिक रूप से परमेवीएसी परिवार से संबंधित है जिसके अन्तर्गत लगभग 80 जेनस तथा 20,000 प्रजातियॉ पाई जाती है। उत्तराखण्ड में लाइकेन की 500 प्रजाति पाई जाती है, जिनमें से 158 प्रजातियॉ कुमॉऊ की पहाडियों में पाई जाती है। उत्तराखण्ड में झूला (लाइकेन) को अनेकों नामों से जाना जाता है जैसे- मुक्कू, शैवाल, छरीया, झूला। पारमिलोडड लाइकेन उत्तराखण्ड की पहाडियों से व्यावसायिक तौर पर एकत्रित किया जाता है। लाइकेन मुख्यतः पेडों की छाल तथा चट्टानों पर उगता है। कई पेडों की प्रजातियॉ जामुन, बांज, साल तथा चीड के विभिन्न प्रकार के लाइकेन की वृद्धि में सहायक होते है।क्वरकस सेमिकारपिफोलिया (बांज) पर लाइकन की 25 प्रजातियॉ, क्वरकस ल्यूकोट्राइकोफोरा पर 20 प्रजातियॉ एवं क्वरकस फ्लोरिबंडा में लाइकेन की 12 प्रजातियॉ पाई गयी है। पारमिलोइड लाइकेन जैसे कि इवरनिसेट्रम, पारमोट्रिना, सिट्रारिओपसिस, बलवोथ्रिक्स, हाइपोट्रिकियाना और राइमिलिया, फ्रूटिकोज जाति, रामालीना और यूसेन के साथ हिमालय के सम शीतोष्ण क्षेत्रों से इकट्ठा किया जाता है। इसका प्रयोग इत्र, डाई तथा मसालों में बहुतायत किया जाता है तथा इसको गरम मसाला, मीट मसला, एवं सांभर मसला में मुख्य अव्यव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है साथ ही साथ इनका उपयोग एक प्रदूषण संकेतक के रूप में भी जाना जाता है।इसके अतिरिक्त औषधीय रूप से लाइकेन को आयुर्वेदिक तथा यूनानी औषधी निर्माण में मुख्य रूप से प्रयुक्त किया जाता है जिसमे Charila तथा Ushna नामक दवाइयॉ भारतीय बाजार में प्रसिद्ध है। इसके अलावा इसका प्रयोग भारतीय संस्कृति में हवन सामाग्री में भी उपयोग किया जाता है। लाइकेन में वैज्ञानिक रूप से बहुत सारे प्राथमिक व द्वितीयक मैटाबोलाइटस पाये जाते है। मुख्यतः इसमें Usnic Acid की मौजूदगी से इसका वैज्ञानिक एवं औद्योगिक महत्व और भी बढ जाता है। विभिन्न शोध अध्ययनों के अनुसार Usnic Acid होने की वजह से इसमें जीवाणु नाशक, ट्यूमर नाशक तथा ज्वलन निवारण के गुण पाये जाते है।2005-06 से पूर्व लाइकेन और अन्य औषधीय पौधों के व्यापार को विनिमित नहीं किया गया था। उत्तराखण्ड के वन विभाग ने वन उत्पाद के विपणन में उत्तराखण्ड वन विकास निगम को शामिल करके सक्रिय भूमिका निभाई। उत्तराखण्ड वन विकास निगम, भेषज संघ, कुंमाऊ मण्डल विकास निगम, गढवाल मण्डल विकास निगम तथा वन पंचायत उत्तराखण्ड में झूला (लाइकेन) के संग्रहण में शामिल मुख्य पॉच एजेन्सियॅा है। लाइकेन के व्यापार में इन एजेन्सियों को शामिल करने का मुख्य उद्देश्य उत्पादन की निकासी को विनियमित करना है ताकि इस वन उत्पाद का अत्यधिक व अवैज्ञानिक विदोहन ना हो। जंगल में झूले के सतत् विदोहन के लिए वन विभाग वनों को कुछ श्रेणियों में ही दोहन की अनुमति प्रदान करता है। गांववासी दैनिक आधार पर वन उत्पाद को एकत्र करते है और जब अच्छी मात्रा में एकत्रित हो जाय तो उसे सुखाने के बाद स्थानीय बाजारों को बेच दिया जाता है जो कि स्थानीय नागरिकों को आर्थिकी प्रदान करता है। लाइकेन की विशेषताओं एवं गुणों को देखते हुए इस पर अधिक वैज्ञानिक शोध कार्य किये जाने की आवश्यकता है जिससे भविष्य में इसकी विशेषता, गुणों एवं उपयोगिता को आम जनमानस से परिचय कराया जा सकें। एनबीआरआई के लाइकेन लैब के सीएसआईआर-एनबीआरआई के पूर्व मुख्य वैज्ञानिक और भारतीय लाइकेनोलॉजिकल सोसायटी (आईएलएस) के अध्यक्ष डॉ. डीके उप्रेती ने बताया कि हाल के कुछ वर्षों में शैवाल वर्गिकी व विविधता के क्षेत्र में नवीन शोधों में काफी वृद्धि हुई है। डॉ डी.के. उप्रेती ने बताया कि लाइकेन जिस जगह उखड़ने लगे, उससे पता चलता है कि वह क्षेत्र बेहद प्रदूषित है। इसी तरह जब लाइकेन अपना रंग बदलने लगे, तो वहां हैवी मेटल होता है। इतना ही नहीं जिस क्षेत्र में लाइकेन की संख्या बहुत तेजी से कम होती है, यह इस बात का सूचक है कि वहां जैव विविधता को सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है। जहां पर लाइकेन अच्छे से फैलते हैं, वहां का वातावरण प्रदूषित नहीं होता है। कि संस्थान ने पूर्वी उत्तर प्रदेश से लाइकेन की विभिन्न प्रजातियों की खोज की है। अब वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी खोज के लिए जाएंगे।लाइकेन नापेगा हिमालय का प्रदूषणएनबीआरआई के वैज्ञानिक ने बताया कि लाइकेन की मदद से हिमालय और एवरेस्ट जैसे पहाड़ों में प्रदूषण को जानना आसान हो गया है। यहां पर प्रदूषण मापने की मशीन ले जाना आसान नहीं। इसलिए यहां पर लाइकेन की मदद से प्रदूषण का स्तर आसानी से जाना जा सकता है।क्या है लाइकेनलाइकेन एक तरह की काई है। छोटी सी वनस्पतियों का एक समूह है, जो वृक्षों की पत्तियों, छाल, प्राचीन दीवारों, भूतल, चट्टान और शिलाओं पर उगते हैं। यह प्रदूषण का पैरामीटर है। इस दिशा में इसका सबसे पहले इस्तेमाल अंर्टाटिका स्थित भारत मैत्री शोध केंद्र के आस-पास किया गया था। वैज्ञानकिों ने इस प्रयोग में लाइकेन को प्रदूषण मापने में खरा पाया।मसाले और इत्र में भी इस्तेमालडॉ. संजीव नायक ने बताया कि लाइकेन बहुत फायदेमंद है। इसका इस्तेमाल कई तरह के मसाले बनाने में किया जाता है। इसके अलावा इससे इत्र भी बनता है। लाइकेन हमारे जैव विविधता में आने वाले परिवर्तन को भी बताता है। एनबीआरआई लाइकेन के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए जंगलों में फॉरेस्ट अधिकारियों को जानकारी देगा। इससे वह लाइकेन को उखाड़ कर नहीं फेकेंगे। आने वाले दिनों में लाइकेन की मदद से कई सारे शोध भी किए जाएंगे। लाइकेन की खूबियों से बहुत कम लोग परिचित हैं। वन विभाग ने लाइकेन की खूबियों की जानकारी लोगों तक पहुंचाने के लिए मुनस्यारी में ऐसा पार्क विकसित किया है जिसमें 120 प्रजातियां एक ही स्थान पर एक साथ नजर आती हैं। लाइकेन की इतनी प्रजातियों वाला यह विश्व का पहला लाइकेन (कवक एवं शैवाल) का पार्क है। इस पार्क के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक बेहद उपयोगी और उपेक्षित रहे लाइकेन की उपयोगिता की जानकारी पहुंच रही है। डॉ. डीके उप्रेती ने बताया कि लाइकेन की 20 हजार प्रजातियों में से भारत में 2714 पाई जाती हैं। इसमें अभी और शोध होने की आवश्यकता है। विश्व में 500 प्रजाति की आर्थिक उपयोगिता का वैज्ञानिकों ने पता लगाया है। लाइकेन चट्टानों को आवास में बदलने वाला जीव है। हैदराबादी बिरयानी का राज पारमोट्रीमा रेटिकुलेटम लाइकेन की सुगंध में छिपा है। लाइकेन नैनोकण रंजक मसाले बनाने सहित अन्य काम में उपयोगी है। इसकी पहचान रसायनिक रंगों से की जाती है। यह उत्तराखंड की टनकपुर और रामनगर की मंडी में बिकता है। लाइकेन सूक्ष्म, शैवाल और कवक में एक सहभागिता का रिश्ता है। वर्तमान में इसरो तथा अन्य संस्थान भी लाइकेन में शोध कर रहे हैं। लाइकेन पर्यावरण में संतुलन स्थापित करते हुए प्रदूषण मापक का भी कार्य करते हैं। दलीप कुमार उप्रेती एक भारतीय लाइकेनोलॉजिस्ट हैं। उन्होंने 1988 से 2017 के दौरान सीएसआईआर-राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान , लखनऊ में निदेशक और मुख्य वैज्ञानिक के रूप में कार्य किया फैलो ऑफ नेशनल एकेडमी प्रोफेसर डीके उप्रेती ने लाइकेन को जीवन का आधार बताते हुए कहा कि हिंदुस्तान में 2712 लाइकेन की प्रजातियां हैं, जिसमें से 500 प्रजातियां औषधीय रूप से महत्वपूर्ण हैं। विश्व में 20,000 लाइकेन की प्रजातियां ज्ञात हैं। लाइकेन शैवाल और कवक का सह जीवन है, जो विभिन्न प्रकार के आवासों में पाए जाते हैं। उन्होंने कहा हैदराबाद की बिरयानी का राज पारमेलिया लाइकेन है। गरम मसाले भी लाइकेन से ही सुगंधित होते हैं। कहा लाइकेन प्रदूषण की निगरानी करते हैं। लाइकेन डाई, रंग और पर्यावरण संरक्षण सूचक है। बताया कि लाइकेन के तहत मिलने वाला अस्नीया कैंसर रोधी है। हिना इतरा भी लाइकेन से मिलता है। मॉस इवेनिया 10 लाख रुपये प्रति लीटर बिकता है। क्लेडोनिया फेफड़ों की बीमारी में काम आता है। बताया कि लाइकेन से जलवायु परिवर्तन की भी पहचान की जाती है। जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ पौधों की कई प्रजातियां भी समाप्त होने लगती हैं। आगामी 2050 के लिए बढ़ती जनसंख्या, जलवायु परिवर्तन और लोगों को पोषण आहार मुहैया कराना ये तीन मुख्य चुनौतियां सामने खड़ी हैं। ऐसे में हमें उन पौधों पर काम करना होगा, जो लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन को सहन कर सकें। उन पौधों के संरक्षण की भी जरूरत है। वर्तमान में फूड सिक्योरिटी के साथ-साथ न्यूट्रिशन सिक्योरिटी की भी जरूरत है। इसका मतलब है कि ऐसे पौधों का भी संरक्षण करना होगा, जिनसे बेहतर न्यूट्रिशन मिलता है। डीके उप्रेती ने अनमोल. मानक तय किए हैं।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।