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उत्तराखंड के विख्यात लोक गायक हीरा सिंह राणा

17/09/24
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला। हीरा सिंह राणा उत्तराखंड लोक संगीत के महान संवाहक व रक्षक रहे हैं। उनके रचे गीतों में तरह तरह के भाव, रस, प्रतीक, विम्बों का प्रयोग हुआ। जो उन्हें आधुनिक संगीत संसार में एक महान गीत रचयिता और गायक की श्रेणी में रखने को काफी हैं।

16 सितंबर, 1942 को डंढ़ोली गांव (मनिला) अल्मोड़ा में जन्मे लोक कवि हीरा सिंह राणा का प्रारंभिक जीवन-संघर्ष दिल्ली और कोलकता में रहा। प्रवास से मन हटा तो वापस पहाड़ आकर लोक कलाकार बन गए। धीरे-धीरे आकाशवाणी और दूरदर्शन के बाद देश-विदेश में अपनी पहचान बनाई।

हीरा सिंह राणा ने कई विषयों पर गीत लिखे और बहु विषयों पर गीत गाए। इन गीतों में गीतों में पहाड़ी मानवीय प्रकृति व पहाड़ों के भौगोलिक प्रकृति वर्णन अन्यन लगते हैं। ‘के भला मनिखा हो हमारा पहाड़ मा’ गीत में पहाड़ों की मानवीय संस्कृति व पहाड़ों की भौगोलिक प्रकृति का ऐसा संगम देखने को मिलता है जो हीरा सिंह को स्वयं ही एक ऊंचाई देने में सक्षम है।

बारामासा गीत में हीरा सिंह राणा ने हर महीने बदलती भौगोलिक स्थिति व उस हिसाब से सांस्कृतिक व सामाजिक कार्यों में परिवर्तन की जो झलक बिखेरी वह इस गीत को एक विशेष काव्य बना देता है। ’आयु पूस माख… मैत जुला खुल कोनी पंचमी उत्तरैणी…’ जैसे प्रतीक प्रयोग यह बताने में सक्षम हैं कि पहाड़ों की जिंदगी प्रकृति मय है और पहाड़ी अपनी सांस्कृतिक प्रकृति भौगोलिक हिसाब से बदलता रहता है जिससे कि मानव व प्रकृति में सामंजस्य बना रहे।हीरा सिंह राणा पहाड़ी भौगोलिक प्रकृति से इतने प्रभावित रहे कि ‘हे मेरी मानिले हम तेरी बलाइ ल्यूला’ जैसे गीत, जागर में गंगा, पाणी, घाट व स्थानीय नामों जैसे प्रतीकों का प्रयोग कर उत्तराखंड के भौगोलिक विस्तार का वर्णन देने से नहीं चुके। उन्होने भक्ति रस में प्रकृति रस की भरमार कर डाली। इसी तरह पूर्ण श्रृंगारिक गीत ‘रंगीला बिंदी घाघरी काई धोती लाल किनार वाइ’ मे नायिका के आभूषणो से श्रृंगार रस प्राप्ति के लिए हीरा सिंह राणा ‘फ्यूंली (प्योली) फूली वाइ आंख मा’ जैसे भौगोलिक प्रकृति प्रतीक देने से नही चूकते। इसी तरह ’अजकाल हरे ज्वाना मेर नौली पराण’ जैसे संयोग श्रृंगार युक्त रसीले गीत में भी गांव गदेरे जैसे प्रतीकों से वे कई विम्ब प्रस्तुत करने में सफल रहे। निपट श्रृंगारिक गीत ‘के बाटु मै काइ तू कसी लाग छे ये’ गीत में नायक नायिका की सुंदरता व अन्य गुण वर्णन करने के लिए कई भौगोलिक प्रतीकात्मक शब्द जैसे- बुरांश फूली डाळ, फूल, हिमाला, कार्तिकी माउ, उदंकार आदि का सुंदर प्रयोग हुआ, जो कि शृंगारिता वर्धक प्रतीक साबित हुए हैं।लोक गीतकार हीरा सिंह राणा का ’के संध्या झूली रे छौ भगिवाना नीलकंठा हिमाला’ गीत तो उत्तराखंड की भौगोलिक परिवेश को ही समर्पित है। बहुत कम शब्दों में ही सारा उत्तराखंड का भौगोलिक सुंदरता का वर्णन कर डालता है।

राणा के ’जुग बजाने गया बिनाई’ जैसे आध्यामिक गीत में ’कैकि लागुली पट्ट बुसी कैकि फली फूली’ वनस्पति प्रतीकों से गीतकार वह बात कह गया जो अन्य शब्दों से संभंव ही नही होता। ’अहा धना धना धानुली धन तेरो पराणी’ गीत में तो ’बौली का सेरा’ जैसे प्रतीक श्रोताओं के मन में मनमाफिक विम्ब बनाने में सफल रहे। स्थान विशेष नाम भी प्रकृति विम्ब प्रदान करने में सफल होते हैं। हीरा सिंह राणा ने एक श्रृंगारिक गीत ‘हिटे अल्मोड़ा बजार, हिटे नंदादेवी म्याल देखुला’ में भौगोलिक स्थान व विशेष स्थानीय परिधानो, स्थानीय मिठाई आदि का प्रयोग कर अपना प्रकृति प्रतीक प्रेम बताया। इन प्रतीकों से गीत को ऊंचाई देने में राणा को सफलता मिली। ’घाम गयो धार मा’ जैसे गीतों में भी हीरा सिंह प्रकृति प्रतीकों से सफल विम्ब देने में सफल हुए रहे थे। हीरा सिंह राणा के गीतों में मानवीय व्यवहार व भौगोलिक प्रकृति प्रतीकों का सुंदर प्रयोग हुआ। और वांछनीय फल प्राप्ति करने में राणा सफल भी रहे विभिन्न जन आंदोलनों के लिए उन्होंने गीत रचे और आंदोलनों के मंच पर जा कर गाये भी.

 लसका कमर बांधा,हिम्मत का साथा,

फिर भोला उज्याली होली,कां ले रौली राता

उनका यह गीत तो उत्तराखंड के आंदोलनों,संघर्षों का निरंतर ही सांझी रहा.आखिरकार कठिन से कठिन समय में भी रास्ता तो कमर कस कर एकजुट हो कर लड़ने का ही रास्ता है और अंधेरे से अंधेरे वक्त में भी लड़ते हुए यह आस तो सर्वाधिक बलवती है ही कि रात का साम्राज्य आखिर कब तक रहेगा, कल तो सवेरा होगा,कल तो उजाला होगा ही थे। पहाड़ की महिला के संघर्ष को महसूस किया तो रचना फूटी ‘पहाड़ाक महिलाओंक तप और त्याग, आफी बड़ा जैले आपड़ भाग, राजुली सैक्याणी मालू घस्यारी, रामी बैराणा पहाड़ की नारी..।’ वह राज्य आंदोलन में भी सक्रिय रहे। नवोदित उत्तरांचल राज्य बनने की खुशी में गीत रचते हुए लिखा ‘उत्तरांचल राज्य हैगो गीत गाओ, फूंको हो रणसिंह नगाड़ ढोल बजाओ..।’ मगर राज्य बनने के बाद भी हालात नहीं बदले। पलायन, बेरोजगारी की पीड़ा को महसूस करते हुए उन्होंने मार्मिक कविता रची। ‘त्यर पहाड़ म्यर पहाड़, रयो दुखों को ड्यर पहाड़, बुजुर्गों लै जोड़ पहाड़, राजनीति लै तोड़ पहाड़, ठेकदारों लै फोड़ पहाड़, नानतिनू लै छोड़ पहाड़..। इसके बाद भी हीरा राणा हौसला और उम्मीद भरते हुए लिखते हैं ‘लस्का कमर बांधा हिम्मत का साथ, फिर भोल उज्याल होली कां लै रोली रात..।’ हीरा सिंह राणा भले हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनके कालजयी गीत हमें सदा आनंदित करते रहेंगे। हीरा सिंह राणा को उनके ठेठ पहाड़ी प्रतीकों वाले गीतों के लिए भी जाना जाता था. लेकिन इस दौरान भी वो लोक संगीत की बेहतरी के लिए संगीत जगत से जुड़े रहे. उनका उत्तराखंड के लोक गीतों को देश-दुनिया तक पहुंचाने में अहम योगदान रहा. हीरा सिंह राणा ने 70 के दशक में हीरा सिंह राणा ने कालजयी गीतों से अपनी पहचान बनाई. देश विदेश में विभिन्न मंचों तक उत्तराखंड की लोक संस्कृति को पहुंचाया. 1987 में प्यूली व बुराशं नाम से उनका कविता संग्रह प्रकाशित हुआ. उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान उनके जनगीत लस्का कमर बॉदा हिम्मत क साथा, भोल फिर उजियाली होली कालै रैली राता ने राज्य आंदोलन में एक नई ऊर्जा का संचार किया.हीरा सिंह राणा के गीतों में पहाड़ बसता है. कहीं गीतों में पहाड़ पर पड़ने वाली धूप से उपजा श्रृंगार है तो कहीं बंजर पड़े पहाड़ की पीड़ा है. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद चली लूस-खसोट और खोखले विकास पर दुःख और टीस उनके गीतों में सहज दिखती है. हीरा सिंह राणा के जन्मदिन पर आज उनके गीत की यह पंक्ति खूब याद आती है-

कैक तरक्की कैक विकास

हर आँखा में आंस ही आंस

जे.ई कैजां बिल के पास

ए.ई मारूँ पैसों गास

अटैच्यू में भौरो पहाड़…

यानी किसकी तरक्की किसका विकास, हर आंख में बस उम्मीद ही उम्मीद है, जेई बिल पास करता है और एई पैसों का गास कहता है अटैची में भरा हुआ है पहाड़. राणा जी की जीवनी बताती है कि वे 15 साल की उम्र से ही उत्तराखंड की संस्कृति से जुड़कर गीत गाने लगे थे. रामलीला, पारंपरिक लोक उत्सव, वैवाहिक कार्यक्रम, आकाशवाणी नजीबाबाद, दिल्ली, लखनऊ और देश-विदेश में उन्होंने खूब गाया. बच्चों को सिखाया भी,लेकिन उन्हें अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में यह चिंता भी सताती रही जिसे उन्होंने दो वर्ष पहले अपने जन्म दिन के अवसर पर व्यक्त किया-“आज हमारे लोक संगीत की चिंता नही है किसी को बबा! यह बहुत दुखद है.अपनी लोक संस्कृति और लोक परंपराओं को नहीं बचाओगे तो अपनी आंखों से अपनी सांस्कृतिक विरासत को लुप्त होते हुए देखोगे !”दरअसल, हीरा सिंह राणा जैसा कलाकार सदियों में पैदा होता है और हीरा सिंह राणा जैसा बनने के लिए भी सदियां लग जाती हैं.हीरा सिंह राणा कहा करते थे कि “हमारे नौनिहाल अपनी भाषा-बोली के प्रति जागरूक हों,अपने लोक संस्कृति को जानें समझें, और उन गीतों में उकेरी पीड़ा को जानने की कोशिश करें,जो लोकगीत आज बिखरे हुए हैं,उन्हें संकलित करने का प्रयास करे.सही अर्थों में यही हमारा सम्मान होगा.” राजनीति में उठापटक और वीरान होते पहाड़ के दर्द को उकेरने वाले लोकगायक हीरा सिंह राणा पहाड़ों की आवाज़ थे. उन्होंने पहाड़ की लोक संस्कृति को नयी पहचान ही नहीं दिलाई बल्कि विश्व सांस्कृतिक मंच पर उसे स्थापित भी किया.उनके साहित्यिक और लोकगायिकी से कुमाउँनी भाषा और संस्कृति को लोकप्रियता के नए आयाम मिले हैं, इसलिए हीरा सिंह राणा का आज नहीं रहना पर्वतीय लोक संस्कृति के लिए भी अपूरणीय क्षति है.आज हीरा सिंह राणा जी के जन्मदिन पर उन्हें शत शत नमन! (इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)।

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