डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत का उत्तराखंड राज्य किसी परिचय का मोहताज नहीं है। क्योंकि, यह राज्य एक तरफ उत्तर भारत की प्रमुख नदियों के उद्गम स्थल के लिए जाना जाता है, तो दूसरी तरफ इसके आंचल में सिमटी पहाड़ी वादियां यहां आने वाले लाखों सैलानियों को हर साल अपनी तरफ आकर्षित करती हैं।राज्य की प्राकृतिक सुंदरता और हरियाली इसे शेष भारत के राज्यों से अलग बनाती हैं। साथ ही यहां संस्कृति और कला शैली भारत की राज्य सूची में इसे विशेष स्थान पर रखती है।उत्तराखंड सरकार ने मैदानी व पहाड़ी जिलों में हो रहे जनसांख्यकीय परिवर्तन (डेमोग्राफिक चेंज) को लेकर जिला प्रशासन को सतर्क रहने के निर्देश दिए हैं। जिला व पुलिस प्रशासन को जिला स्तरीय समितियों के गठन, अन्य राज्यों से आकर बसे व्यक्तियों के सत्यापन व धोखा देकर रह रहे विदेशियों के खिलाफ कार्रवाई के निर्देश दिए गए हैं। चुनाव से ठीक पहले भाजपा सरकार के इन निर्देशों को समाज व राजनीति के एक वर्ग की ओर जिस तरह के प्रतिरोध की आशंका व्यक्त की जा रही थी, वैसा कुछ दिखने में नहीं आया। इसकी दो वजह है।एक तो सरकार के इस कदम के पीछे ठोस कारणों की मौजूदगी व दूसरे विरोध करने पर सियासी नुकसान की आशंका। कारण कुछ भी हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि सीमांत राज्य उत्तराखंड में नियोजित या अनियोजित ढंग से हो रहा जनसांख्यकीय परिवर्तन बड़े खतरे की आहट है। राज्य व देश हित चाहने वाला कोई भी व्यक्ति इसे नकार नहीं सकता। राज्य गठन के बाद से कांग्रेस व भाजपा की सरकारें आई व गईं, लेकिन इस आहट को सुनने में नाकाम रहीं या सियासी लाभ के लिए जानबूझ कर नकारती रही हैं। अब जब स्थिति विकट होने के कगार पर है, तब भी सरकार जिला प्रशासन व पुलिस को सतर्क रहने तक की ही हिदायत दे पाई है। देश में कहीं भी भूमि खरीदने के मूल अधिकार की रक्षा करना बेशक सरकार का दायित्व है, लेकिन किसी मूल अधिकार के दुरुपयोग को रोकना भी तो सरकार का ही दायित्व होगा। इसका बोध राज्य सरकार को अब हुआ है। सीमांत राज्य उत्तराखंड में जनसांख्यकीय परिवर्तन प्रदेश ही नहीं देश के लिए भी घातक हो सकता है, यह सरकार को भले देर से ही सही, पर समझ में तो आया। अब भी अगर ठोस निगरानी शुरू कर दी जाए तो स्थिति बदतर होने से बच सकती है।जनसांख्यकीय परिवर्तन कोई यकायक होने वाली प्रक्रिया नहीं है। उत्तराखंड में इस परिवर्तन की नींव अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौरान पड़ गई थी। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद इस दिशा में तेजी आई है, लेकिन सरकारें जाने-अनजाने इसकी अनदेखी करती रहीं। प्रदेश में यह परिवर्तन दो तरह का है। देहरादून, हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर जैसे जिलों में बाहरी प्रदेशों से लोग विभिन्न कारणों से आ बसे हैं। यह प्रक्रिया सामान्य है, लेकिन एक समुदाय विशेष के लोग इन जिलों के क्षेत्र विशेष में जमीन खरीद कर या अतिक्रमण कर भी भारी संख्या में बसे हैं। इस कारण वहां पहले से बसे लोगों ने अपनी भूमि औने-पौने दामों पर बेच कर अन्यत्र बसना उचित समझा। अब इन जिलों के कुछ क्षेत्रों में मिश्रित जनसंख्या के बजाय समुदाय विशेष की किलेबंदी जैसी दिखने लगी है। इन क्षेत्रों व अवैध बस्तियों में बांग्लादेशी भी शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षो में यह प्रवृत्ति पहाड़ी जिलों में भी दिखाई दी है। जहां पहाड़ से लोगों का पलायन रोकना सरकार के लिए चुनौती बना है, वहीं यह भी देखने में आया है कि पहाड़ के कस्बाई क्षेत्रों में समुदाय विशेष के लोग बसने में विशेष रुचि ले रहे हैं। पौड़ी गढ़वाल, चमोली, नैनीताल, उत्तरकाशी में इस तस्वीर को देखने के लिए कोई खोजबीन करने की जरूरत नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में बसने में रुचि लेने वालों में विदेशी भी शुमार हैं।क्षेत्र विशेष में समुदाय विशेष की नियोजित बसावट को रोका जाना क्यों जरूरी है, इसके तीन ठोस आधार हैं। सबसे पहले देवभूमि के मूल स्वरूप को बचाना आवश्यक है। देवभूमि के मूल चरित्र के कारण जो कभी यहां आए भी नहीं, वे भी इस स्वरूप को संरक्षित रखना चाहते हैं। वहीं, जो भौतिकवादी सोच के लोग हैं, वे भी राज्य की आर्थिकी के लिए इस स्वरूप को कायम रखना चाहते हैं। सब जानते हैं कि उत्तराखंड के पर्यटन उद्योग की रीढ़ तीर्थाटन ही है।सरकार के इस कदम का एक और ठोस आधार देश की सीमाओं की सुरक्षा भी है। नेपाल व चीन की सीमा से लगने वाले इस राज्य की सीमाओं में मूल निवासियों के पलायन को रोकना जितना जरूरी है उतना ही तर्कसंगत बाहर से आकर बसने वालों की स्क्रीनिंग करना भी है। इस राज्य के सीमांत जिलों के हर गांव-परिवार के स्वजन सीमाओं पर सैनिक के रूप में तैनात है। जो गांवों में हैं वे बिना वर्दी के समर्पित सैनिक हैं। इनकी भूमिका को सेना द्वारा सराहा जाता रहा है। इन क्षेत्रों में सुनियोजित बाहरी बसावट की ओर यूं ही आंख मूंद कर नहीं बैठा जा सकता है। चंद वोटों की लालच में ऐसा होते रहने दिया गया तो सीमा पर संकट खड़ा हो जाएगा। आने वाली पीढ़ियां वोटखोर नेताओं को कभी माफ नहीं करेंगी। उत्तराखंड में पिछले कई वर्षों से जनसंख्या के सामुदायिक अनुपात में आ रहा बदलाव स्थानीय जनता के बीच बहस का मुद्दा रहा है लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है जब प्रदेश सरकार ने इस पर अधिकारियों को कार्रवाई करने को कहा है। उत्तराखंड के ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने इस मुद्दे पर चिंता प्रकट की और कहा कि यह जांच किसी समुदाय विशेष को ‘निशाना बनाकर’ नहीं की जा रही है। पहाड़ी क्षेत्रों में ‘लव जिहाद’ और एक विशेष समुदाय के लोगों के धर्मस्थलों की संख्या में वृद्धि को लेकर मुख्यमंत्री चिंता जता चुके हैं। लव जिहाद के मामलों को लेकर DGP ने कहा कि दो व्यस्क अपना जीवनसाथी चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन, अगर कोई दूसरे के धर्म को बदलने के इरादे से रिश्ता बनाता है तो पुलिस मौजूदा कानूनों के तहत कार्रवाई करेगी। अगर ऐसा कोई मकसद नहीं है तो पुलिस किसी को परेशान नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि दोनों मुद्दे राज्य पुलिस के लिए प्राथमिकता है।हाल ही में कुछ हिंदूवादी संगठनों ने आरोप लगाया था कि देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल, पौड़ी गढ़वाल एवं टिहरी गढ़वाल जैसे कुछ पहाड़ी जिलों में मुस्लिमों की आबादी में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। उनका आरोप है कि यह देवभूमि की डेमोग्राफी को बदलने की व्यापक साजिश का हिस्सा है और इसे सुनियोजित ढंग से अंजाम दिया जा रहा है।दरअसल, उत्तरकाशी के पुरोला कस्बे, धारचूला और चमोली के नंदानगर इलाके जैसे कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में हाल ही में सांप्रदायिक तनाव हुए थे। इसमें लव जिहाद की बड़ी भूमिका थी। इसको लेकर हिंदू कार्यकर्ताओं ने राज्य में बाहरी लोगों की मौजूदगी बढ़ने का सवाल भी उठायाहै । *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*