डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
बच्चों का मन बहुत ही कोमल होता है। इतना कोमल कि बच्चे के मन को हम अच्छी शिक्षा देकर किसी भी
आकार में ढाल सकते हैं। मनोविज्ञानी वाटसन ने कहा है कि ‘मुझे एक नवजात शिशु दे दो। मैं उसे डॉक्टर,
वकील, चोर या जो चाहे बना सकता हूं।’ हम सभी ने कभी न कभी अपने जीवन में किसी कुम्हार को चाक
पर काम करते देखा है। वह मिट्टी के एक बेकार से दिखने वाले टुकड़े को एक खूबसूरत मिट्टी के बर्तन में
बदल देता है। वह अपनी कला से मिट्टी को मनचाहा आकार दे देता है। बच्चों के साथ भी कुछ ऐसा ही है।
यदि हम उनको अच्छी शिक्षा, अच्छे संस्कार और नैतिकता की शिक्षा दें तो उसे हम देश व समाज का एक
अच्छा नागरिक, सुसंस्कृत व्यक्ति बना सकते हैं।
आज हमारी युवा पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति व सूचना क्रांति के प्रभाव में आकर एंड्रॉयड स्मार्टफोन का धड़ल्ले
से प्रयोग कर रही है। सूचना क्रांति का प्रयोग करना ग़लत नहीं है लेकिन आज तकनीक हमारी युवा पीढ़ी
पर हावी होती चली जा रही है। स्मार्टफोन के अधिक व अंधाधुंध प्रयोग से बच्चों के कोमन मन-मस्तिष्क पर
आज गहरा प्रभाव पड़ रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि आज तकनीक का विशेषकर टीनएज बच्चों के
मस्तिष्क पर गहरा असर देखा जा सकता है। सच तो यह है कि बच्चों में अधिक मोबाइल स्क्रीन का प्रयोग
की प्रवृति उनके मानसिक स्वास्थ्य, बौद्धिक विकास, शारीरिक समन्वय और यहां तक कि नींद और खाने
की आदतों, उनके अध्ययन को प्रभावित कर रहा है। अत्यधिक ऑनलाइन एक्टिविटी के अनेक मनोवैज्ञानिक
और सामाजिक परिणाम हैं, जिनको लेकर आज हमारे समाज को चेतने की जरूरत है। वास्तविक दुनिया से
दूर आज हमारे बच्चे वर्चुअल दुनिया या यूं कहें कि आभासी दुनिया में जी रहे हैं। आज जरूरत इस बात की है
कि वर्चुअल दुनिया की तुलना में वास्तविक दुनिया को प्राथमिकता दी जाए ताकि हमारे बच्चों का मानसिक,
शारीरिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या यूं कहें कि सर्वांगीण विकास हो सके।आज हमारी युवा पीढ़ी पर
कृत्रिमता बुरी तरह से हावी प्रतीत होती है। हमारी युवा पीढ़ी जीवन की वास्तविकताओं से परे एआई
चैटबॉट, सोशल नेटवर्किंग साइट्स व्हाट्स एप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब, ट्विटर की दुनिया में अधिक
जी रहे हैं।सच तो यह है कि आज हमारी युवा पीढ़ी का बहुत अधिक समय एंड्रॉयड, लैपटॉप, कंप्यूटर,
मोबाइल पर व्यतीत हो रहा है।आज हमारे बच्चों को अकेले रहने की आदत पड़ चुकी है। इंटरनेट आज की
जरूरत है लेकिन इसकी अंधी दौड़ ने हमारे बच्चों की दिनचर्या को काफी हद तक प्रभावित किया है और
स्वास्थ्य को भी। सच तो यह है कि तकनीक के जरिये विकास की अंधी दौड़ में हमारी युवा पीढ़ी बहुत कुछ
खो भी रही है। हमारी युवा पीढ़ी मशीनी हो गई है। कोरोना काल क्या आया ? इसने हमें एक तरह से पंगु
बना दिया। गौरतलब है कि कोरोना काल से आभासी पढ़ाई, मीटिंग, वर्क फ्रॉम होम आदि का दौर शुरू हो
गया। देश में जगह जगह आभासी स्कूल और कालेज खुलने लगे।आज विशेषकर हमारी युवा पीढ़ी के सोशल
मीडिया पर हजारों मित्र होते हैं, लेकिन जब वास्तविक जीवन में हमें और हमारी युवा पीढ़ी को मित्रों की
आवश्यकता होती है, तो आज कोई भी हमारे साथ खड़ा नहीं होता है। सच तो यह है कि आज आभासी
दुनिया(वर्चुअल दुनिया) की बढ़ती दखलंदाजी की वजह से हमारे अनेक सामाजिक संबंध लगातार पीछे
छूटते चले जा रहे हैं।
हम और हमारी युवा पीढ़ी आज आभासी दुनिया में ही रिश्ते-नाते स्थापित करने लगी है।यह ठीक है
तकनीक ने मनुष्य को अनेक प्रकार की सहूलियतें प्रदान की हैं,तकनीक हम इंसानों की मदद और सहायता
के लिए है, लेकिन आज इंसान तकनीक का लगातार गुलाम होता जा रहा है, इसे किसी भी हालत और
परिस्थितियों में ठीक नहीं ठहराया जा सकता है। वास्तव में सामाजिक संबंधों को बनाए रखने के लिए हमें
और हमारी युवा पीढ़ी को यह चाहिए कि हम इस आभासी दुनिया से बाहर निकलने का प्रयास करें। मनुष्य
में संवेदनाएं होतीं हैं, एक मशीन में कभी भी संवेदनाएं नहीं हो सकतीं हैं। एक मशीन कभी भी मानव का
स्थान नहीं ले सकती है,यह हमें समझना चाहिए। याद रखिए कि दुनिया का कोई भी इंसान कभी भी किसी
मशीन से संचालित नहीं हो सकता है। कृत्रिम चीजें कृत्रिम ही रहेंगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि मानवीय
संवेदनाएं और अहसास कभी कृत्रिम नहीं हो सकते। आज शिक्षा में,हर क्षेत्र में तकनीकी का प्रयोग किया जा
रहा है,यह ठीक है लेकिन तकनीक, तकनीक होती है। तकनीक सिर्फ़ मानव की सहयोगी मात्र हो सकती है,
मानव का स्थान कभी भी नहीं ले सकती है।आज युवा पीढ़ी के लिए मोबाइल फोन एक स्टेटस सिंबल हो
गया है। महंगे से महंगा मोबाइल फोन आज युवाओं के पास देखने को मिल जाएगा। लेकिन एक ओर जहां
एंड्रॉयड मोबाइल शिक्षा में सहयोगी बनकर उभरा है वहीं दूसरी ओर पढ़ाई में अत्यधिक मोबाइल का
प्रयोग विद्यार्थियों, हमारी युवा पीढ़ी के लिये अनेक प्रकार की मानसिक व शारीरिक समस्याएं खड़ी कर
रहा है।आज ऑनलाइन शिक्षा के लिए मोबाइल फोन, इंटरनेट का इस्तेमाल अनिवार्य हो गया है, लेकिन
इसके नकारात्मक प्रभावों को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। कहना ग़लत नहीं होगा कि
अत्यधिक डिजिटल उपस्थित का हमारे ब्रेन पर काफी बुरे प्रभाव पड़ते हैं। इससे हमारे ध्यान केंद्रित करने
और निर्णय लेने की क्षमताएं कम हो सकतीं हैं। स्क्रीन का नीला प्रकाश ‘मेलाटोनिन प्रोडक्शन’ में बाधा पैदा
करता है और हमें ठीक से नींद नहीं आती है। आज स्क्रीन-टाइम की अधिकता हमारी क्षेत्रीय सांस्कृतिक
गतिविधियों को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है, वहीं दूसरी ओर आज हम स्क्रीन टाइम पर लगातार
व्यस्त रहकर हमारे समाज में होने वाली विभिन्न घटनाओं, परंपराओं, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन,
आपसी संवाद से नहीं जुड़ पाते हैं। अपने चारों ओर की दुनिया में क्या हो रहा होता है, हमें स्क्रीन टाइम के
कारण इसका ठीक से भान तक नहीं होता है।जीवन की असली खुशियां स्क्रीन टाइम में नहीं, अपितु स्क्रीन
से हटने में हैं। जीवन हमेशा स्क्रीन से परे है, यह वास्तविक है, आभासी नहीं। आज हम इमोजी, लाइक्स,
शेयर, कमेंट्स की दुनिया तक सीमित हो चलें हैं। हमें सिर्फ और सिर्फ कैमरे, एंड्रॉयड मोबाइल फोन,
लैपटॉप, कंप्यूटर, इंटरनेट से मतलब है, किसी और से नहीं, लेकिन याद रखिए कि जीवन कभी भी लाइक्स,
कमेंट्स, शेयर या फालोअर्स की संख्या से नहीं चला करता है। जीवन को दोस्तों, परिवार, रिश्तेदारों का
संग-साथ चाहिए होता है, जो कि वास्तविक होता है। वर्चुअल वर्ल्ड वास्तव में देखा जाए तो एक लत है,
एक मायाजाल है। हमेशा गैजेट्स से घिरे लोग बेचैन रहते हैं, तनाव और अवसाद उनकी जिंदगी का हिस्सा
हो चला है। कुछ समय पहले ही आस्ट्रेलिया ने स्कूलों में मोबाइल उपयोग पर रोक लगाई और अब दुनिया
के तमाम विकसित देश मोबाइल के दुष्प्रभावों को देखते हुए स्कूलों में मोबाइल के उपयोग पर रोक लगा रहे
हैं। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि अब तो यूनेस्को अर्थात संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं
सांस्कृतिक संगठन की दुनिया में शैक्षिक स्थिति पर नजर रखने वाली टीम ने भी स्मार्टफोन के उपयोग से
विद्यार्थियों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर चिंता जतायी है। गौरतलब है कि यूनेस्को की टीम के मुताबिक
बीते साल के अंत तक कुल पंजीकृत शिक्षा प्रणालियों में से चालीस फीसदी ने सख्त कानून या नीति बनाकर
स्कूलों में छात्रों के स्मार्टफोन के प्रयोग पर रोक लगा दी है। दरअसल, आज सोशल नेटवर्किंग साइट्स
व्हाट्स एप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब, ट्विटर, इंटरनेट पर अनेक प्रकार की अश्लील, फूहड़, भद्दी,
अराजकता भरी बेलगाम अनुचित सामग्री परोसी जा रही है, जो हमारे बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क को
लगातार प्रभावित कर रही है और उनका ध्यान अच्छी बातों, अनुशासन, सामाजिक संस्कारों से हटता चला
जा रहा है। निस्संदेह, शिक्षकों अभिभावकों, माता पिता की देखरेख में सीखने की प्रक्रिया(लर्निंग प्रोसेस) में
इंटरनेट, लैपटॉप, स्मार्टफोन का सीमित उपयोग तो लाभदायक सिद्ध हो सकता है, लेकिन इसका अंधाधुंध
व गलत उपयोग घातक भी हो सकता है। आज बच्चे डिजिटल एमनीशिया(भूलने की बीमारी) का शिकार हो
रहे हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बिखरी अनर्गल, अश्लील, फ़ूहड़ सामग्री हमारी युवा पीढ़ी को यौन
कुंठित बना रही है। इतना ही नहीं एंड्रॉयड मोबाइल के लगातार प्रयोग से बच्चों की एकाग्रता भंग हो रही
है। ऐसे में आज जरूरत इस बात की है कि वर्चुअल वर्ल्ड का सीमित व नियंत्रित उपयोग पर बल दिया
जाए। वास्तव में,हमें डिजिटल उपकरणों से दूरी बनाकर प्रकृति के सानिध्य में अपने मन-मस्तिष्क को
तरोताजा महसूस करना चाहिए। इसके लिए हम प्राकृतिक वातावरण में घूम सकते हैं। दोस्तों, परिवार के
सदस्यों संग बातचीत कर सकते हैं, इससे हमारा मन-मस्तिष्क फ्रेश होगा और चीजें हमें याद रह
पाएंगी।सोशल मीडिया से बच्चों और किशोरों का संबंध आज अभिभावकों के लिए सबसे अधिक चिंता का
विषय बन चुका है। यह उन शीर्ष पांच मुद्दों में से एक है, जिन्हें माता-पिता क्लिनिक में, आपसी बातचीत
में और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक मंचों पर उठाते रहते हैं। माता-पिता तेजी से इस बात को लेकर जागरूक
हो रहे हैं कि जब बच्चे ऑनलाइन दुनिया में डूबे होते हैं, तब वे असल जिंदगी से कितने कट जाते हैं, और
फिर अभिभावकों को उन्हें इससे छुटकारा दिलवाने के लिए कैसा संघर्ष करना पड़ता है। अमरीका-स्थित
एनजीओ सैपियन लैब्स की एक नई रिपोर्ट से यह पुष्टि हुई है कि माता-पिता की यह शंका सच है कि बच्चे के
हाथ में पहली बार स्मार्टफोन या टैबलेट आने की उम्र और बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य के बीच सीधा संबंध है।
जितनी कम उम्र में बच्चा यह उपकरण प्राप्त करता है, उसके मानसिक स्वास्थ्य में उतनी ही अधिक समस्याएं
देखने को मिलती हैं।इस अध्ययन में बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य के सभी पहलुओं—आत्महत्या के
विचार, दूसरों के प्रति आक्रामकता की भावना, वास्तविकता से अलग-थलग महसूस करना और मतिभ्रम
पर विचार किया गया है। अध्ययन बताता है कि यदि स्मार्टफोन देर से दिया जाए तो इन समस्याओं में
कमी आती है। लड़कियों और लडक़ों के आंकड़ों में अंतर चौंकाने वाला है। यदि किसी लडक़ी को छह साल
की उम्र में स्मार्टफोन मिल गया तो 74 प्रतिशत मामलों में मानसिक समस्याएं देखी गईं। लेकिन अगर
यही 18 साल की उम्र में दिया गया तो आंकड़ा घटकर 46 प्रतिशत रह गया। हालांकि यह अब भी बहुत
अधिक है। लडक़ों में यह आंकड़ा 42 प्रतिशत से घटकर 36 प्रतिशत रहा। इसके पीछे कारण यह है कि
लड़कियां सामाजिक स्वीकार्यता का दबाव लडक़ों की तुलना में अधिक महसूस करती हैं, जो उनके मानसिक
स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।हमारा मानना हैं कि बच्चे को स्मार्टफोन देना वैसा ही है, जैसे
बिना ड्राइविंग लाइसेंस के किसी अनाड़ी बच्चे को तेज रफ्तार लैम्बॉर्गिनी थमा दी जाए। ऑनलाइन दुनिया
में नेवीगेशन भी एक कौशल है, जो समय के साथ विकसित होता है। यह कौशल मस्तिष्क के विकास के
कारण 20 की उम्र हो जाने पर ही पूरी तरह विकसित होता है। जब हम वयस्क ही इंस्टाग्राम ‘रील्स’ देखने
के समय को कम करने के लिए जूझते हैं तो एक बढ़ते हुए मस्तिष्क वाले बच्चे के लिए यह कितना मुश्किल
होगा, इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं। इसलिए हम तीन सरल उपाय दे रहे हैं, जिनकी मदद से माता-
पिता बच्चों को स्मार्टफोन देने में विलंब कर सकते हैं या उसके उपयोग को सीमित कर सकते हैं-
पहला, सामूहिक देरी। सबसे आदर्श और प्रभावी उपाय है-बच्चों की सामाजिक मंडली में अन्य माता-पिता के
साथ मिलकर यह तय करना कि स्मार्टफोन या सोशल मीडिया का प्रयोग कितनी देर में शुरू किया जाए।
सोशल मीडिया किशोरों के लिए स्वीकृति पाने का एक सशक्त मंच है और यदि कोई माता-पिता अकेले
अपने बच्चे को इससे दूर रखते हैं तो वह बच्चा खुद को अलग-थलग महसूस कर सकता है। अमरीका में चल
रहा ‘आठवीं तक इंतजार करो’ नामक अभियान इसी तरह का एक सामूहिक प्रयास है, जिसमें माता-पिता
आठवीं कक्षा तक स्मार्टफोन से बच्चों को दूर रखने का संकल्प लेते हैं।दूसरा, पारिवारिक तकनीकी समझौता।
बच्चों को भी बातचीत में शामिल करना आवश्यक है, क्योंकि हर सामाजिक समूह में सोशल मीडिया की
प्रासंगिकता अलग होती है। समझौते में यह तय किया जा सकता है कि दिन में कितनी देर और किस समय
फोन का प्रयोग होगा, कौन-कौन से प्लेटफॉर्म स्वीकृत होंगे और किस जिम्मेदारी के बदले उन्हें यह अधिकार
मिलेगा। बच्चे अक्सर सोशल मीडिया को अपना अधिकार समझते हैं, लेकिन अधिकार जिम्मेदारी के साथ
ही सार्थक होते हैं। जैसे मतदान का अधिकार लोकतंत्र की रक्षा की जिम्मेदारी के साथ आता है, वैसे ही
सोशल मीडिया का इस्तेमाल सामाजिक जीवन की जिम्मेदारियों के साथ जुड़ा होना चाहिए। बच्चों को घर
में छोटे-मोटे काम देना उनमें जिम्मेदारी की भावना पैदा करता है और उन्हें आभासी दुनिया से पहले
वास्तविक जीवन के कार्यों से जोड़ता है। जिम्मेदारियों के बिना अधिकार देना गैर-जिम्मेदार विशेषाधिकार
है। यह समझौता लचीला और बदलती परिस्थितियों के अनुरूप होना चाहिए-हर बच्चे के लिए अलग और
स्कूल व छुट्टियों के समय अलग।अंत में, स्वस्थ आदतों का उदाहरण और विकल्प देना। बच्चे स्मार्टफोन की
आसानी से उपलब्धता और अपने आसपास वयस्कों को लगातार फोन का इस्तेमाल करते हुए उसकी ओर
आकर्षित होते हैं। माता-पिता स्वयं डिजिटल सीमाओं का पालन करें और बच्चों को वैकल्पिक मनोरंजन के
साधन उपलब्ध कराएं, जैसे—फैमिली गेम नाइट, पार्क में खेल या ऑनलाइन गेम्स का भौतिक रूप। हाल
ही में एक जन्मदिन की पार्टी में 13 साल के बच्चों ने माइनक्राफ्ट के बेड वॉर्स का एक भौतिक संस्करण
प्लास्टिक की तलवारों, ढेर सारी हंसी और पसीने के साथ खेला! अनुभवों से सामने आया है कि जब बच्चे
वास्तविक दुनिया में व्यस्त होते हैं तो उन्हें ऑनलाइन दुनिया की याद नहीं आती। संयुक्त राज्य अमरीका में
नो-टेक कैंपों ने साबित किया है कि बच्चे डिजिटल उपकरणों के बिना भी मौज-मस्ती कर सकते हैं। ऐसे
बच्चे, जो खेल और शौक में लगे रहते हैं, वे फोन का उपयोग केवल एक उपकरण की तरह करते हैं, न कि उसे
जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं। हम कई प्रभावी तरीकों से अपने बच्चों की ऑनलाइन दुनिया तक पहुंच के
पहरेदार बन सकते हैं। हमें अपने बच्चों के साथ अधिक संवाद और जुड़ाव रखना होगा, ताकि वे ऑनलाइन
दुनिया में खो न जाएं, यह माता-पिता के रूप में हमारा विशेषाधिकार है। बच्चे जिनको प्रारंभिक अवस्था में
एक उन्मुक्त और गतिशील वातावरण की आवश्यकता होती है वह घर की चाहरदीवारों में कैद हो गये हैं.
पहले लग रहा था कि यह त्रासदी कुछ समय के लिए है मगर अब लग रहा है कि बच्चों का एक लंबा अरसा
घर की दीवारों के बीच बीतेगा.जो बचपन ज़माने की तमाम दुश्वारियों से बेखौफ पार्कों और आस-पास
घूमता था उस पर कोविड-19 का पहरा लग गया था. जब कोविड का प्रकोप शुरू ही हुआ था तो उसी
समय स्कूल बंद हो गए मगर अप्रैल आते-आते स्कूलों से नए मेल और फोन आने शुरू हो गए कि अब पढाई
ऑनलाइन होगी. कुछ समय के लिए तो यह प्रहसन फिर भी बच्चों ने झेल लिया मगर जुलाई के आते ही
फिर से बच्चों के स्कूलों से कक्षाएं शुरू होने के मेल आने लगे. इसके लिए बाकायदा टाइम-टेबल भी बन कर
आ गए हैं.इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्कूलों को शिक्षकों को वेतन देना है और स्कूलों को फीस लेनी है
जिसके कारण उनको लगता है कि कक्षाएं चलाना आवश्यक है क्योंकि बिना कक्षाओं के लोग फीस नहीं देंगे.
मगर इन सबके बीच कैसे बच्चों का बचपन पिस रहा है इस पर शायद किसी का ध्यान नहीं है. खेल के मैदान
और साथियों से महरूम ये बच्चे कैसे 9 से 2 बजे तक कक्षाएं लेंगे और कैसे अपनी एकाग्रता बनायेंगे, ये एक
बड़ा प्रश्न है.माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों के साथ ये प्रयोग कुछ समय के लिए करके देखा जा सकता था मगर
नर्सरी और प्राथमिक के बच्चों पर किया जा रहा यह प्रयोग न केवल अव्यावहारिक है अपितु अमानवीय भी
है. आज जब दुनिया के तमाम देश अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है वहीं हमारी शिक्षा
व्यवस्था अध्यापकों को काम में लगाने और लाभ को लेकर चिंतित है. हमारी शिक्षा व्यवस्था में प्राथमिक
शिक्षा सबसे उपेक्षित क्षेत्र है क्योंकि इस क्षेत्र में किये गए निवेश का परिणाम आने में समय लगता है मगर
दुनिया के तमाम देश प्राथमिक शिक्षा में दीर्घकालिक निवेश पर ध्यान देते हैं क्योंकि यह ऐसा क्षेत्र है जो
आने वाले कल की नींव तैयार करता है. परंतु ऐसा हमारे देश में होता नहीं दिख रहा है. *लेखक विज्ञान व*
*तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*